अमेरिका को अफगानिस्तान से निकलना चाहिए पर भागना नहीं

अब बाइडन अफगानिस्तान के ‘अंतहीन युद्ध’ का अंत करना अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते हों तो स्वाभाविक ही है. अब वे फैसला करने वाली कुर्सी पर बैठे हैं तो उन्हें वह फैसला करना ही चाहिए जिसकी वे अब तक पैरवी करते रहे हैं.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
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बाइडन अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों की उपस्थिति के कटु आलोचक रहे हैं और वहां चल रहे युद्ध को ‘अंतहीन युद्ध’ कहते रहे हैं. जब वे राष्ट्रपति ओबामा के उप-राष्ट्रपति थे तब भी हर संभव मौके पर वे अमेरिकी वापसी की पैरवी करते रहे थे. यह राष्ट्रपति ओबामा की स्वीकृति व सहमति के बिना नहीं होता था. ओबामा चाहते थे कि अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी का श्रेय उन्हें मिले लेकिन ऐसा कोई मौका वे बना नहीं सके. सबसे नायाब मौका उन्हें मिला था 2011 में जब पाकिस्तान के एटाबाबाद शहर में घुस कर अमेरिकी सैनिकों ने ओसामा बिन लादेन को मार डाला था और उनकी लाश समुद्र में दफन कर, अमेरिका लौटे थे. तब व्हाइट हाउस के वाररूम में बैठकर, इस पूरे अभियान का जीवंत नजारा ओबामा ने देखा था. यह वह क्षण था जब वे दुनिया से कह सकते थे कि अफगानिस्तान में अमेरिकी उपस्थिति का एक अध्याय पूरा हुआ और अब हम अपनी फौज वहां से हटा रहे हैं. यह विजयी अमरीका का ऐसा निर्णय होता जिसे अमेरिकी शर्तों पर अलकायदा भी, तालिबान भी, अफगानिस्तान सरकार भी और लोमड़ी जैसी चालाकी दिखाता पाकिस्तान भी स्वीकार करता. जीत का स्वाद और जीत का तेवर अलग ही होता है. लेकिन यह नाजुक फैसला लेने से ओबामा हिचक गये. और हाथ मलते हुए वे विदा हुए.

अब बाइडन अफगानिस्तान के ‘अंतहीन युद्ध’ का अंत करना अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते हों तो स्वाभाविक ही है. अब वे फैसला करने वाली कुर्सी पर बैठे हैं तो उन्हें वह फैसला करना ही चाहिए जिसकी वे अब तक पैरवी करते रहे हैं. लेकिन राजनीति का सच यह है कि आप जो कहते हैं वह कर भी सकते हैं, यह न जरूरी है, न शक्य! अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी का आज एक ही मतलब होगा: भयंकर खूनी गृहयुद्ध, इस्लामी अंधता में मतवाले तालिबान का आधिपत्य और पाकिस्तानी स्वार्थ का बोलबाला. यह अमेरिकी कूटनीति की शर्मनाक विफलता, अमेरिकी फौजी नेतृत्व के नाकारापन की घोषणा और एशियाई मामलों से सदा के लिए हाथ धो लेने की विवशता को कबूल करना होगा. यह बहुत बड़ी कीमत होगी.

इसलिए 11 सितंबर से पहले अमेरिका को अपनी पूरी ताकत लगा कर अफगानिस्तान के सभी पक्षों को एक टेबल पा लाना होगा. सामरिक विफलता को कूटनीतिक सफलता में बदलने का एकमात्र यही रास्ता है. कितना भी टेढ़ा लगता हो लेकिन कोई 3 हजार अमेरिकी व नाटो संधि के कोई 7 हजार सैनिकों की उपस्थिति में ही अफगानिस्तान में एक मिली-जुली सरकार का गठन हो, यह जरूरी है. यह सरकार भले लूली-लंगड़ी भी हो, बार-बार टूटती-बिखरती भी हो लेकिन उसका बनना एक ऐसी राजनीतिक प्रक्रिया को जन्म देगा जिससे अफगानी समाज आज बहुत कम परिचित है. अफगानिस्तान को अफगानी लोकतंत्र का यह स्वाद चखने देना चाहिए.

तालिबान अभी जहां है उसमें ऐसा करना आसान नहीं है लेकिन अफगानिस्तान के दूसरे सारे कबीलों को साथ लेने की अमेरिकी कुशलता तालिबान पर भारी पड़ेगी. यहीं अमेरिका को हमारी जरूरत भी पड़ेगी. हमें आगे बढ़कर अमेरिकी कूटनीति में हिस्सेदारी करनी चाहिए ताकि पाकिस्तान को खुला मैदान न मिल सके. हिस्सेदारी व पिछलग्गूपन में क्या फर्क है, यह बताने की जरूरत है क्या? अफगानी लोगों को अफगानिस्तान के मामले में पहल करने का जितना मौका दिया जा सकेगा, अतिवादी ताकतें उतना ही पीछे हटेंगी. लोग भयभीत हों तथा चुप रहें, अतिवादी इसी की फसल काटते हैं. बाइडन यह समझें; और यह भी समझें कि लोकतंत्र का संरक्षण और विकास थानेदारी से नहीं, भागीदारी से ही हो सकता है. अमेरिका को अफगानिस्तान से निकलना ही चाहिए लेकिन भागना नहीं चाहिए.

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