कई कोविड-19 टीके विकसित किए गए और एक वर्ष से भी कम समय में उनके उपयोग के लिए मंजूरी दे दी गई है. यह कैसे संभव हुआ?
प्रभावकारिता किसी परीक्षण में भाग ले रहे वॉलंटियर्स की अनुवांशिकी पर भी निर्भर करती है. उदाहरण के लिए नोवावैक्स टीके ने अमेरिका में 90 प्रतिशत प्रभावकारिता दिखाई, लेकिन दक्षिण अफ्रीका में वे केवल 49 प्रतिशत प्रभावकारिता ही दिखा पायी क्योंकि बाद के मामले में परीक्षण उस समय किए गए जब कोरोना विषाणु का एक बदला हुआ संस्करण उस देश में फ़ैल चूका था. एक नैदानिक परीक्षण की अत्यधिक नियंत्रित स्थितियों के तहत एक प्रतिनिधि आबादी में प्रभावकारिता का परीक्षण किया जाता है, लेकिन प्रभावशीलता तब बदल जाती है जब टीका वास्तव में पूरी आबादी के लिए इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि ऐसा बिलकुल मुमकिन है कि बाद के हालात में कुछ परिस्थितियां बदल जाएं.
अंत में, प्रभावकारिता सीमित समय तक ही वही बनी रहेगी जैसी की परीक्षणों में पायी गयी थी. फ़ाइज़र/बायो-एन-टेक टीके की 95 प्रतिशत प्रभावकारिता तीन महीने की अवधि के आंकड़ों पर आधारित है. यह छह महीने, एक साल या पांच साल में बदल सकती है. अभी इस्तेमाल हो रहे कोविड-19 टीकों की प्रभावशीलता के लिए सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि यह बीमारी की गंभीरता से बचाएंगे और मृत्यु दर निचले स्तर पर ले जायेंगे. इस बिंदु पर, अभी तक के सभी स्वीकृत टीके 100 प्रतिशत प्रभावी हैं. इसलिए, नैदानिक परीक्षणों में उनकी प्रभावकारिता के आधार पर विभिन्न टीकों की तुलना करना बेमानी है.
क्या म्युटेशन से बदले हुए कोरोना विषाणु के संस्करण बनना चिंता का विषय हैं, और वर्तमान में उपलब्ध टीके उनके खिलाफ प्रभावी होंगे? म्युटेशन एक प्राकृतिक और यादृच्छिक क्रिया है. जब कोई विषाणु प्रजनन करके अपनी संख्या बढ़ा रहा होता है, तो इसका जीनोम/अनुवांशिक सामग्री (आरएनए या डीएनए) भी उसकी कार्बन प्रतियां बनाता है, परन्तु इस प्रक्रिया के दौरान इसमें त्रुटियां होती हैं और इसी तरह की त्रुटियां जीवों में क्रम-विकास का कारण हैं. ये बहुत कुछ वर्तनी की त्रुटियों की तरह है जो हम लिखते समय कर जाते हैं. जबकि हम वापस जा सकते हैं और उन गलतियों को सुधार सकते हैं, परन्तु विषाणु, विशेष रूप से जिनका जिनोम आरएनए का बना होता है, वे नहीं सुधार सकते. अधिकांश ऐसे म्युटेशन विषाणु के लिए हानिकारक होते हैं, और इसलिए वे ऐसे दोषपूर्ण संस्करण बनाते हैं जो स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं और कभी नहीं देखे जाते हैं.
दूसरे जो बच जाते हैं वे प्रजनन जारी रखते हैं और आगे संक्रमण करते हैं, ऐसे म्युटेशन विषाणु को कुछ चुनिंदा फायदे देते हैं, जैसे कि बेहतर संक्रामकता, बढ़ा हुआ संचरण या प्रतिरक्षा की चोरी. प्रकृति द्वारा इन्हीं का चुनाव होता है, और यही विषाणुओं की नस्ल को आगे बढ़ाते हैं. दिसंबर 2019 में चीन के वुहान से आया विषाणु लगातार होने वाले म्युटेशन की वजह अब काफी बदल चुका है. D614G नामक एक म्युटेशन जो जनवरी 2020 के अंत के समय में उभरा था, इस म्युटेशन से बने इस संस्करण ने विषाणु को संक्रमित करने, उसको तेज़ी से प्रजनन करने और अधिक कुशलता से संचारित करने की ताकत दी है. नतीजतन, यह अब ये दुनिया भर में प्रमुख चिंता का कारण बन गया है, इसी संस्करण के अब 99% से अधिक विषाणु दुनिया भर में घूम रहे हैं. वैज्ञानिकों ने कुछ और कोरोना विषाणु के चिंताजनक संस्करणों को ढूंढा है जिनको उन्होंने ‘वैरिएंट्स ऑफ़ कंसर्न’ (वीओसी) कहा है.
इन विषाणु संस्करणों में बेहतर संक्रामकता होती हैं और ये बहुत तेज़ी से फैलते हैं या आंशिक रूप से टीके द्वारा उत्पन्न प्रतिरक्षा से बचने में सक्षम होते हैं. ब्रिटेन के वीओसी संस्करण को वंशावली B.1.1.7 भी कहा जाता है, जिसमें 23 म्युटेशन थे, पहली बार इंग्लैंड के दक्षिणी भाग में खोजा गया था, लेकिन अब यह 114 देशों में पाया जाता है. इस वंश में परिभाषित स्पाइक प्रोटीन म्यूटेशन N501Y और P681H हैं, लेकिन ब्रिटेन और अमेरिका में पाए गए इस वंश के अधिक हाल के विषाणु में E484K म्युटेशन पाया जाता है. दक्षिण अफ्रीकी वीओसी संस्करण- जिसे वंश B.1.351 भी कहा जाता है- में 9 म्युटेशन होते हैं और अब 68 देशों से रिपोर्ट किए जा रहें हैं. इस वंश के विषाणुओं में इनकी कवच पर पाये जाने वाले स्पाइक प्रोटीन में N501Y, E484K और K417N म्यूटेशन होते हैं. ब्राजील वीओसी संस्करण- जिसे वंश P.1 भी कहा जाता है. इसमें 16 म्युटेशन होते हैं और अब 36 देशों से रिपोर्ट किए जा रहें हैं. इस वंश वाले विषाणुओं के स्पाइक प्रोटीन में N501Y, E484K और K417T म्यूटेशन हैं.
इन सभी वीओसी विषाणु संस्करणों में स्पाइक प्रोटीन में म्यूटेशन केंद्रित होता है, N501Y म्युटेशन सभी तीनों में पाया जाता है. यह एक संयोग नहीं हो सकता. बल्कि, यह बताता है कि यह म्युटेशन विषाणु की मदद करता है, और उसे और अधिक मारक बनाता है. स्पाइक प्रोटीन विषाणु के मानव कोशिका में प्रवेश करने में मदद करती है, जो विषाणु के प्रजनन करने के लिए आवश्यक पहला कदम है. मानव कोशिका के संपर्क में आने वाले स्पाइक प्रोटीन के हिस्से, इस प्रकार इसकी सफलता के लिए सबसे महत्वपूर्ण भाग हैं, और टीके द्वारा उत्पन्न सुरक्षा करने वाली एंटीबॉडी के लिए सर्वोत्तम संभव लक्ष्य हैं. स्वाभाविक रूप से, म्युटेशन से विषाणु विकास का लक्ष्य स्पाइक प्रोटीन का यही हिस्सा होगा, जो इसे मानव कोशिका से बेहतर संपर्क बनाने में मदद करे और टीकाकरण के बाद एंटीबॉडी द्वारा इस संपर्क को बेअसर करने की प्रक्रिया को फ़ेल कर दे.
वीओसी संस्करणों में जो म्यूटेशन जमा हुए हैं, उन सबका लक्ष्य यही है. N501Y म्युटेशन विषाणु के साथ मानव कोशिका के संपर्क को बेहतर बनाता है और जबकि E484K म्युटेशन एंटीबॉडी को कम प्रभावी बनाता है. ये वीओसी संस्करण चिंता का कारण हैं, लेकिन इतनी ज़्यादा भी नहीं। 30 मार्च को प्रकाशित ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका टीके के एक अध्ययन में, एक E484K मुक्त B.1.1.7 वंशावली विषाणु से संक्रमित लोगों ने एक गैर-बी.1.1.7 विषाणु की तुलना में समान रूप से अच्छी तरह से बीमारी के खिलाफ सुरक्षा प्रदर्शित की, लेकिन प्रभावकारिता थोड़ी कम और अनिश्चित दोनों थी. हालांकि जिन वालंटियर्स पर परीक्षण किया गया था उनकी एंटीबॉडी बी.1.1.7 वंश के विषाणुओं से मानव कोशिकाओं से संपर्क करने में कम सक्षम थी, टीके सिर्फ एंटीबॉडी को बनना ही नहीं उत्प्रेरित करते हैं बल्कि ये प्रतिरक्षा प्रणाली के दूसरी भुजाओं को भी उत्प्रेरित करते हैं. नोवावैक्स और जॉनसन एंड जॉनसन दोनों के टीके भी यूके म्युटेशन संस्करण के खिलाफ प्रभावी हैं, लेकिन दक्षिण अफ्रीकी और ब्राजील वेरिएंट के खिलाफ प्रभावकारिता कम दिखाते हैं. भारत का कोवैक्सिन टीका भी प्रयोगशाला परीक्षणों में यूके संस्करण को अच्छी तरह से बेअसर करने में कामयाब लगता है, लेकिन परिणाम अभी तक देश की आबादी पर या अन्य म्युटेशन संस्करण के लिए उपलब्ध नहीं हैं.
“टीके जीवन नहीं बचाते हैं, बल्कि टीकाकरण से जानें बचतीं है”, वाल्टर ओरेंस्टीन ने कहा जो कि रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र, संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा संचालित प्रतिरक्षण कार्यक्रम के पूर्व निदेशक हैं. अब तक भारत में लगभग 1 करोड़ 23 लाख लोगों का टीकाकरण हुआ है, जिनमे से 180 की मौतें किन्ही कारणों से हो गई, मरने वालों की संख्या नगण्य है, 68000 टीकाकृत व्यक्तियों में से सिर्फ एक की मौत हुई है, फिर भी लोगों की तसल्ली के लिए इसकी भी वैज्ञानिक जांच होनी चाहिए. सोशल मीडिया में ऐसे भ्रामक संदेश भी देखने को मिले जिसमे ये बताने की कोशिश की जा रही है की जिन लोगों ने टीका लिया है उनको भी संक्रमण हो जा रहा है, जिसका तात्पर्य ये निकाला जा रहा है की टीकाकरण बेकार है. जबकि लोगों को ये समझना होगा कि टीके हमें संक्रमण से नहीं बीमारी की गंभीरता से बचाते हैं. कोरोना विषाणु से होने वाली मौतों का आकड़ा कम करने का सबसे कारगर तरीका टीकाकरण ही है. हमें शुक्रगुज़ार रहना चाहिए कि दुनिया के पास टीके हैं और टीकाकरण का उपयोग कर महामारी को समाप्त करने का एक ऐतिहासिक अवसर है. और इसमें भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है। आइए हम इस अवसर को बर्बाद न करें.
लेखक बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर विश्विद्यालय, लखनऊ, में बायोटेक्नोलॉजी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.