मिशन के प्रमुख ने मुसलमानों के प्रति भेदभाव, मांस खाने वालों, सनातन धर्म और विज्ञान पर मिशन की स्थिति स्पष्ट की है.
मैने पूछा कि क्या वो अभी भी मुसलमान ही हैं?
'हम धर्म-परिवर्तन नहीं कराते,' सुविरानंद जी ने उत्तर दिया. 'लेकिन उन्हें स्वामी रामकृष्ण के सिद्धांत अपने हृदय में उतारने होंगे. स्वामी रामकृष्ण धर्म की सार्वभौमिकता में विश्वास करते थे, समावेशी होने के लिए, सद्भाव के लिए, केवल सहिष्णुता के लिए ही नहीं बल्कि स्वीकृति के लिए भी... वो किसी को भी अस्वीकृत नहीं करते थे और सभी को स्वीकार करते थे. इसीलिए यहां सभी को जगह दी गयी है, और हम सब विकसित हो रहे हैं, हम सभी आध्यात्मिक रूप से भाई हैं, हम सब आपस में एक ही माता-पिता से जन्में भाईयों से भी ज्यादा सगे भाई हैं, फिर चाहे कोई इराक से हो, अमेरिका से हो या दुनिया के किसी भी देश से हो.'
सदस्यता की केवल एक ही शर्त है, उन वस्तुओं का त्याग जिन्हें उनके शब्दों में 'काम और कंचन' कहा जाता है और फिर वो खुद ही उनका अंग्रेजी में अनुवाद कर उनको 'लस्ट एंड गोल्ड' बताते हैं.
मिशन के संस्थानों में मांसाहारी खाना खाना कोई वर्जित काम नहीं है. सुविरानंद जी ने बताया, "अधिकांश आश्रमों के अधिकांश अनुयायियों को शाकाहारी भोजन की आदत है पर मुख्यालय से हम कभी भी ऐसा कोई विशेष निर्देश जारी नहीं करते कि अमुक आश्रम शाकाहारी रहेगा और अमुक आश्रम मांसाहारी. हमें सचमुच बंगाल के हिन्दू घरों में पकाए जाने वाले पारंपरिक भोजन से कोई समस्या नही है."
मछली और चावल बंगाली हिंदुओं का मुख्य भोजन है. अंडा, दो तरह का मुर्गे और बकरे का मांस भी पारंपरिक खान-पान का पसंदीदा हिस्सा है.
आज 2021 के भारत में जब हिंदुत्व के नाम पर दक्षिणपंथियों द्वारा मांसाहारी खान-पान और मंदिर में किसी अन्य धर्म के व्यक्ति का प्रवेश वर्जित करने जैसी कार्रवाइयां कर एक सांस्कृतिक युद्ध छेड़ दिया गया है तब मिशन के ये सारे कदम सामाजिक तौर पर बेहद प्रगतिशील लगते हैं. 1897 ई० में जिस वक्त स्वामी विवेकानंद द्वारा रामकृष्ण मिशन की स्थापना की गई उस समय की सामाजिक रवायतों पर गौर करने पर वो दौर भी काफी कट्टरता भरा लगेगा.
सुविरानंद जी कहते हैं, “श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानंद अपने समय के हिसाब से निश्चित तौर पर बेहद प्रगतिशील थे. केवल वही नहीं बल्कि सभी बड़े चिंतक, संत और सिद्ध पुरुष हमेशा ही अपने समय से आगे रहे हैं. इसीलिए अगर आप विवेकानंद की जीवनी पढ़ेंगे तो पायेंगे कि उन्होंने बहुत सारा उत्पीड़न झेला, उन्हें गलत समझा गया, यातनाएं दी गयीं, बेइज्जत किया गया, और यहां तक कि बहुत सारी जगहों पर तो उनके खिलाफ झूठी अफवाहें भी फैलायी गयीं क्योंकि उस दौर में इतनी कम उम्र के किसी भी सन्यासी को समाज की मान्यता मिलना मुश्किल था. और ये तो हमेशा ही होता है. ईसा मसीह को गलत समझा गया, चैतन्य को गलत समझा गया, श्रीकृष्ण को गलत समझा गया, श्रीराम को गलत समझा गया, रामकृष्ण को गलत समझा गया, विवेकानंद को गलत समझा गया.”
सुविरानंद जी बताते हैं कि जब पश्चिम की यात्रा से लौटकर स्वामी विवेकानंद वापस दक्षिणेश्वर मंदिर आए तो उन्हें भी मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश नहीं करने दिया गया क्योंकि मान्यता थी कि उन्होंने 'काला पानी' को पार किया था और इसलिए अब 'मलेच्छ' (जाति बहिष्कृत या बर्बर) बन गए थे.
मिशन ने अपनी प्रगतिशील परम्पराएं अभी भी जारी रखी हुई हैं. इसका आदर्श वाक्य "आत्मानो मोक्षर्थम जगत हित्य च" है. जिसका अर्थ है 'स्वयं के लिए मोक्ष और संसार के लिए कल्याण'. यहां शिक्षा और सीखने पर भी खास ध्यान दिया जाता है.
सुविरानंदजी मिशन के स्वामी विद्यानाथनंद या महान महाराज जैसे सन्यासियों के उदाहरण देते हैं जो जाने-माने गणितज्ञ हैं, आईआईटी कानपुर से स्नातक हैं और बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री हासिल करने के साथ ही वेदांत दर्शन के बेहतरीन व्याख्याताओं के घराने 'वेदांता सोसायटी ऑफ न्यूयॉर्क' की टीम से भी जुड़े हैं.
सुविरानंद जी ने बताया, 'स्वामीजी (विवेकानंद) चाहते थे कि वेदांत विज्ञान की भाषा बोले और विज्ञान मानवता के कल्याण की. विज्ञान और धर्म में निश्चित रूप से कोई भी अंतर्विरोध न होना स्वाभाविक है. विवेकानंद ने कहा है धार्मिक सिद्धांतों को विज्ञान की प्रयोगशाला में फेंक दो और उनका परीक्षण करो. अगर ये परीक्षण में खरा उतरते हैं तो स्वीकार करो अन्यथा इन्हें इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दो. एक धर्म जो वैज्ञानिक प्रश्नों या वैज्ञानिक प्रक्रियाओं का उत्तर नहीं दे सकता वो धर्म हो ही नहीं सकता. एक धर्म जिसमें कोई वैज्ञानिक चेतना नहीं है वो धर्म नहीं अंधविश्वास है.'
तो आखिर धर्म है क्या? उन्होंने इसका जवाब दिया, "धर्म के दो पहलू हैं. धर्म का एक पहलू है धार्मिक अनुष्ठान जिसमें बेल पत्र, तुलसी, चंदन की लकड़ियां, मंत्र और आराधना है ताकि किसी एक विशेष देवी या देवता को प्रसन्न किया जा सके. और दूसरा पहलू है आध्यात्म. कोई अनुष्ठान नहीं... यह अहं का उत्कर्ष है."
वो आगे कहते हैं, “अहं हमारे जीवन में खलनायक है. फिर जो भी समस्याएं हो चाहे व्यक्तिगत स्तर पर, राष्ट्रीय स्तर पर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, व्यष्टि स्तर पर या समष्टि स्तर पर, प्रत्येक समस्या की जड़ में अहं ही है और वो भी अपरिपक्व अहं. इसका उत्कर्ष कर इसको परिपक्व अहं में परिवर्तित करना है. 'स्व' से पार पा लो और ईसा मसीह हो जाओ. इसीलिए अपरिपक्व अहं का परिपक्व अहं तक उत्कर्ष ही आध्यात्म की तीर्थयात्रा है. इस कारण ही स्वामीजी कहते हैं कि प्रत्येक आत्मा में अलौकिक होने का सामर्थ्य है. आप राम, रहीम या जोसेफ़ कोई भी हो सकते हैं इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता आप उसी अलौकिकता से निकली एक किरण हैं.”
उन्होंने आगे कहा, "सनातन धर्म एक ऐसा धर्म है जो सहिष्णुता और स्वीकार्यता सिखाता है. ये धर्म कहता है, "एकं सद विप्रा बहुधा वदन्ति." सत्य एक है परंतु मनीषी इसे अनेक नामों से पुकारते हैं."
या फिर जैसा कि श्री रामकृष्ण कहते हैं, 'जोतो मोत तोतो पाथ'. संसार में जितने मत हैं उतने ही पथ हैं. यही सनातन धर्म की परिभाषा है जिसका नाम लेकर कुछ हुड़दंगबाज उसी नफ़रत के जहर की वकालत कर रहे हैं जिसे पीने के कारण, स्वामी सुविरानंद के शब्दों में कहें तो लगता है कि 'अपरिपक्व अहं' अभी बहुत लंबे वक़्त तक बना रहेगा.