आंबेडकर की प्राथमिकता में मौलिक अधिकारों की रक्षा भी उतना ही महत्वपूर्ण थी. इस तरह का सबसे महत्वपूर्ण मामला फिलिप स्प्राट का था जो इंगलैंड के मूल निवासी थे और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक थे. उन्होंने ‘इंडिया और चाइना’ नाम से एक पर्चा लिखा था जिसके चलते उसे ब्रिटिश हुकूमत ने गिरफ्तार कर लिया. कोर्ट में वह बरी हुए. इसी तरह मशहूर ट्रेड यूनियन और कम्युनिस्ट लीडर बीटी रणदिवे के राजद्रोह के मामले में डॉ. आंबेडकर ही वकालत कर रहे थे जिसमें रणविदे को भी बरी किया गया. ट्रेड यूनियन से जुड़े अनेकों मामले में, जिसमें देश के प्रमुख कम्युनिस्ट नेता वीबी कार्णिक, मणिबेन कारा, अब्दुल मजीद, रणविदे जैसे लोग शामिल थे, का सफलतापूर्वक बचाव किया था. डॉक्टर आंबेडकर इस बात को बखूबी जानते थे कि समाज के सबसे गरीब तबकों का ही इंसान होने के अधिकारों का सबसे अधिक उल्लंधन होता है, इसलिए ह्यूमन राइट डिफेंडर के रूप में उन्होंने तरह-तरह के मुकदमों में वकालत की.
आंबेडकर की प्रतिभा जो भी रही हो, इसके बावजूद जातीय प्रताड़ना को सबसे अधिक उन्होंने ही झेला. चूंकि वे मानव अधिकार व मानवीय गरिमा से वाकिफ थे, इसलिए इसका प्रतिरोध भी सबसे अधिक उन्होंने ही किया. वह अभिव्यक्ति की आजादी (फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन) के बारे में भी जानते थे और यह भी जानते थे किन लोगों व जगहों पर इसका बेजा इस्तेमाल हो सकता है, इसलिए उन्होंने इसके पक्ष में खड़ा रहने/होने को प्राथमिकता दी. इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण मराठी में लिखी एक पुस्तक के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज कराना था.
वर्ष 1926 में प्रकाशित पुस्तक ‘देश्चे दुश्मन’ (देश का दुश्मन) के लेखक केशव जेधे के खिलाफ ब्राह्मण वकील ने मुकदमा दायर कर दिया. केशव जेधे दलित थे और उन्होंने अपनी किताब में बाल गंगाधर तिलक और चिपलुनकर को ‘देश का दुश्मन’ और ‘गहदे की औलाद’ कहकर संबोधित किया था. मामला तुल पकड़ने से पहले ही किताब को प्रतिबंधित कर दिया लेकिन जब मामला कोर्ट में आया तो आंबेडकर ने दलील दी कि चूंकि जिन दो लोगों के बारे में किताब में जिक्र है, अब जिंदा नहीं हैं और जिसने यह मुकदमा दर्ज किया है, वह उनके निकट के संबंधी नहीं हैं, इसलिए उसके पास कोई अधिकार नहीं है कि वह मुकदमा दर्ज कराए. आंबेडकर ने अपनी वाकपटुता में यहां तक कह दिया कि चूंकि यह किताब किसी खास ब्राह्मण के खिलाफ नहीं बल्कि पूरे समुदाय के खिलाफ लिखा गया है, और वकील चूंकि पूरे समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करता है इसलिए इस मुकदमे का कोई तुक नहीं बनता है! इस पर न्यायालय ने माना कि इस तरह लिखना ‘गलत व्यवहार’ की श्रेणी में तो आता है लेकिन अवैध नहीं है या उस पर नजर रखना उनका अपना अधिकार है.
यह तो तय है कि आंबेडकर वकालत में जो सोचकर आए थे वह पूरी तरह नहीं कर पाए क्योंकि जातीय, सामाजिक और आर्थिक दुराग्रह उनके खिलाफ था, लेकिन अगर आंबेडकर उस समय वकालत में नहीं आए होते या किसी कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ा रहे होते तो भारतीय संविधान का वही स्वरूप नहीं होता जो आज दिख रहा है, क्योंकि उन्हें संविधान लिखने वाली कमिटी का अध्यक्ष भी इसलिए बनाया गया था क्योंकि वह पेशेवर वकील भी थे, न कि सिर्फ राजनेता!