इतनी बड़ी संख्या में कुम्भ में लोगों का भाग लेना कितना ज़्यादा खतरनाक हो सकता है. यह सिर्फ सोचा जा सकता है.
क्या आज हमारे सुप्रीम कोर्ट में इतनी ताकत है की वो कुम्भ मेले और चुनावी रैलियों पर प्रतिबन्ध लगा पाए? इस देश के चीफ जस्टिस जो एक भाजपा समर्थक की स्पोर्ट्स बाइक चलाते हों, जो बालात्कार के आरोपी से यह पूछते हों कि क्या वो पीड़िता से शादी करेगा, क्या उनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वो सरकार की मर्ज़ी के खिलाफ आर्डर निकालेंगे?
क्या उस चुनाव आयोग से, जो अपनी ईवीएम तक नहीं संभाल पा रहा, उम्मीद की जा सकती है कि वो चुनावी रैलियों पर प्रतिबन्ध लगाएगा? या मास्क ना पहनने पर गृहमंत्री पर जुर्माना ठोकेगा?
क्या उस पुलिस से, जो सरकार का हथियार है, जो दंगों में बिना सरकारी अनुमति के हिलती तक नहीं, अपने आकाओं के आदेश मात्र से देश-द्रोह और यूएपीए जैसी संकीर्ण धाराओं में लोगों को गिरफ्तार कर लेती है, कुछ भी उम्मीद की जा सकती है?
याद है जब देश में कोयला 3G घोटाला हुआ था, या फिर निर्भया की घटना हुई थी, तब कैसे मीडिया ने सरकार को कटघरे में खड़ा किया था? कैसे प्रेस कांफ्रेंस और इंटरव्यू में मनमोहन सिंह पर सवालों की बौछार होती थी? क्या यह चीज़ आज हमारे प्रधानमंत्री या गृहमंत्री के साथ होने की कल्पना भी कर सकते है? याद करिये 1975 का वो समय, जब इलाहबाद हाईकोर्ट ने देश के प्रधानमंत्री का चुनाव परिणाम पलटते हुए उन्हें चुनावी कदाचार करने के लिए किसी भी पद पर रहने से प्रतिबंधित कर दिया था? याद करिये 1993 में टीएन शेषन को, जिन्होंने किसी का खौफ खाये बिना देश में चुनाव का हुलिया बदल कर रख दिया.
यह सब क्या आज होना मुमकिन है? जवाब आपको भी पता है. मुमकिन नहीं है क्योंकि बड़े ही व्यवस्थित ढंग से एक-एक कर सारे संस्थानों को कॉम्प्रोमाइज कर दिया गया है. इन संस्थानों में अपने लोगों को लाया गया, विरोध करने वालों को किनारे किया गया, राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर हर प्रकार के विरोध को दबाया गया.
जब यह सब हो रहा था, तब आपमें से ज़्यादातर लोग चुप थे. कुछ तो यह भी सोचते थे कि देश में टू मच डेमोक्रेसी है. शायद विकास का पहिया ऐसे ही आगे बढ़ेगा. उस पहिये की कोरोना के पहले ही दयनीय हालत थी, अब तो सोचने का भी मतलब नहीं है. कुछ को तो सही में लगता था कि देश मुसलामानों के कारण पीछे जा रहा है. आज जब इन्हीं लोगों में से कुछ बेहद कठिन परिस्थितियों से गुज़र रहे हैं, तब उनकी आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं है. आज जब यहीं लोग अस्पताल की लाइनों में जूझ रहे हैं, अपनों को मरते हुए देख रहे हैं, तब इनके दुख पर मरहम लगाने वाला कोई नहीं है. कल जब कुम्भ और चुनावी रैलियों के कारण आपके परिवार में किसी को कोरोना होगा और उसकी जान को खतरा हो जाएगा, तब किस पर चिल्लायेंगे? कल जब देश में त्राहि मचेगी, और आपके किसी अपने को इलाज के लिए अस्पताल में बेड नहीं मिलेगा, तब किसे बोलेंगे? कौन होगा आपको आवाज़ देने के लिए?
जब तक आप सवाल पूछना नहीं शुरू करेंगे, जब तक आप हिन्दू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद के चक्कर में बेवक़ूफ़ बनते रहेंगे, जब तक आप हमारी संस्थाओं के साथ चल रहे खिलवाड़ को लेकर चुप रहेंगे, तब तक ऐसे ही देश पीछे जाता रहेगा. कुछ लोग अभी भी यह सोचकर खुश हैं कि हमारे जीवन में तो कुछ फर्क नहीं पड़ रहा. शायद ना पड़ रहा हो. पर वक्त-वक्त की बात है, फर्क पड़ेगा. आज किसी और का टाइम आया है कल आपका टाइम भी आएगा. अभी किसानों के नाम पर रातों-रात बिल पास कराये जा रहे हैं, कल आपके नाम पर कराये जाएंगे. अभी किसी और की 21 साल की बेटी को देशद्रोह के नाम पर फर्जी केस में फंसा रहे हैं, कल आपके बच्चों को भी फसाएंगे. अभी फटी हुई जींस को लड़कियों के संस्कार से जोड़ रहे हैं, कल आपकी बेटी को घर से बाहर निकलने से भी रोकेंगे. अभी हिंदू-मुस्लिम कर रहे हैं, कल ब्राह्मण-दलित करेंगे. यह रुकने वाले नहीं हैं. इन्हें रोक सकने वाला हमारा लोकतंत्र हमारी ही आंखों के सामने खत्म किया जा रहा है.
मानकर चलिएगा कि एक दिन आपकी भी बारी आएगी. तब लोकतंत्र नहीं होगा, आपको बचाने के लिए. समझ रहे है या अब भी नहीं?