3 अप्रैल 2021 को वही हुआ जो इससे पहले भी कई बार, कई जगहों पर हो चुका है. अब ऐसा न हो इसके लिए पहल करने की जरूत है.
युवा धर्मपाल के लिए यह समझ के बाहर था कि विनोबा लोगों की भलाई का काम करने से उन्हें रोक क्यों रहे हैं? जब दोबारा अनुमति मांगी तो विनोबा ने उनसे ही एक वचन मांग लिया: अगर वहां जाने के बाद 10 सालों तक वहीं खूंटा गाड़ कर रहने की तैयारी हो तो मेरी अनुमति है! इसके बाद धर्मपाल ने अपना जीवन ही वहां गाड़ दिया. यह कहानी इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि किसी का गुणगान करना है. इसलिए लिख रहा हूं कि हम भी और राज्य भी यह समझे कि अहिंसा जादू की छड़ी नहीं है, समाज विज्ञान और मनोविज्ञान की वैज्ञानिक प्रक्रिया है.
बस्तर हो कि नक्सली हिंसा की अशांति में घिरा कोई भी क्षेत्र, राज्य यदि लोगों को डराने-धमकाने-मारने की असभ्यता दिखाएगा तो जवाब में उसे भी वही मिलेगा. हिंसा का विषचक्र तोड़ना हो तो किसी धर्मपाल सैनी को आगे आना होगा. राज्य को उसे आगे लाना होगा. ऐसा कोई इंसान जिसकी ईमानदारी, सेवा की साख हो और सत्य पर टिके रहने के जिसके साहस को लोग जानते हों. हम देखते ही तो हैं कि रेगिस्तान में बारिश का पानी बहता नहीं, धरती में जज्ब हो जाता है. प्रताड़ित-अपमानित निरुपाय लोगों को जहां और जिससे सहानुभूति, समर्थन व न्याय की आस बनती है, वे उसे जज्ब कर लेते हैं. विनोबा या जयप्रकाश के चरणों में चंबल के डाकू समर्पण करते हैं तो यह कोई चमत्कार नहीं, विज्ञान है.
सिपाही राकेश्वर सिंह की वापसी कह रही है कि हम सभी वापस लौटें! राज्य ईमानदार बने, न्यायवान बने और धर्मपाल सैनी जैसों को पहल करने में अपना पूरा साथ-सहयोग दे, तो रास्ते आज भी निकल सकते हैं. रास्ते कभी बंद नहीं होते, बंद होती हैं हमारी आंखें! बस्तर के नक्सलियों ने हमारी आंखें खोलने का माहौल बनाया है.
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