ऐसा लगता है कि भाजपा ने अपने हिंदुत्व केंद्रीय प्रचार से मतदाताओं को होने वाली असहजता महसूस कर ली, पर शायद एहसास देरी से हुआ है.
मिश्रा का तर्क था कि भाजपा का असम गण परिषद से गठबंधन, और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट, राभा, टिवा और दूसरे आदिवासी संगठनों से समर्थन लेना एक मास्टरस्ट्रोक था जिसने पार्टी को जीत दिलाई. अगर वह सत्य था तो इस बार समीकरणों के बदल जाने से इसकी कीमत भाजपा को चुकानी पड़ सकती है. उन्होंने बीपीएफ से संबंध तोड़ दिया है और अपना साथी बनाने के लिए नई बोडो पार्टी शुरू की है, जबकि एजीपी का बिखरता हुआ असम पहचान का एजेंडा नए और ऊर्जावान दल जैसे एजेपी और रायजोर दोल ले चुके हैं.
मिश्रा ने यह भी देखा कि कांग्रेस, चाय बागानों में अपना वोट खोने की वजह से हारी और यही बात इस बार भाजपा पर भी लागू होती है. 1940 के दशक से इलाके में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों का इतिहास मानने के बाद भी, मिश्रा ने जोर दिया कि आरएसएस का प्रभाव नहीं बढ़ेगा क्योंकि असम में कहीं ज्यादा सौहार्द्रता है. "आरएसएस का रोल बढ़ा चढ़ाकर बताया गया है जिससे यह प्रतीत हो कि आखिरकार असम के लोग हिंदू राष्ट्रवाद की विचारधारा के आगे हथियार डाल चुके हैं." क्या यह सत्य है?
भाजपा ने इस बार अपने मतदाताओं के बीच इस असहजता के भाव को महसूस किया लेकिन लगता है कि यह महसूस करने में उन्हें देर हो गई. इसी वजह से पार्टी ने मीडिया के द्वारा थोड़ा बात संभालने की कोशिश की है. मतदान की सुबह मुख्यमंत्री वोट डालने जाते समय रास्ते में डिब्रूगढ़ की बोगा बाबा मज़ार पर प्रार्थना करने के लिए रुके. सत्ता के वरदहस्त से चलने वाले टीवी चैनल न्यूज़लाइव ने मुख्यमंत्री के साथ रहते हुए, अपने सीधे प्रसारण के पहले मिनट में कई बार मजार शब्द का उपयोग किया जिससे यह बात साफ हो सके कि यह एक मुस्लिम जगह थी.
संदेश साफ था. और यह भाजपा के प्रमुख नेता और चैनल के लगभग मालिक समान हेमंत बिसवा शर्मा कि पहले कही बात से बिल्कुल विपरीत था. शर्मा ने पहले कहा था कि उनकी पार्टी को मियां मुस्लिम वोट नहीं चाहिए.
असम में मुसलमानों को दो समूहों में देखा जाता है, गोरिया जो असमी मूल के मुसलमान हैं और मियां जो बंगाली मूल के मुसलमान हैं. गोरिया अपनी असली पहचान को प्राथमिकता देते हैं जिससे कि वह "शरणार्थी मुसलमान" की श्रेणी में न गिन लिए जायें. मुख्यमंत्री सोनोवाल ने बात संभालने की कोशिश में मीडिया को बताया, "सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास."
चुनाव के अगले 1 अप्रैल और 6 अप्रैल को होने वाले अगले दो चरण और बची हुई 126 विधानसभा क्षेत्रों में से 79 में मियाओं की जनसंख्या ज्यादा है, जिनकी हिंदुत्ववादी पार्टी को वोट करने की संभावना कम है. इन क्षेत्रों में बंगाली हिंदू हैं जो एनआरसी से प्रताड़ित महसूस करते हैं लेकिन उन्हें उम्मीद है कि सीएए उन्हें बचा लेगा, और बोडो जनसंख्या जिसका समर्थन आसानी से नहीं मिलेगा. साफ तौर पर आदि से अधिक सीटें पाने के लिए भाजपा को प्रार्थनाओं से कुछ अधिक चाहिए होगा.
भाजपा आगे आने वाले चुनाव क्षेत्रों, निचले असम और बराक घाटी में भी अच्छी स्थिति में नहीं है. बीपीएफ से गठबंधन टूट जाने के बाद पार्टी बोडोलैंड किसी ने तो छोड़ भी चुकी है. 2016 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन या एनडीए में 60 सीट वाली भाजपा 12 सीट वाली बीपीएस और 14 सीट लेकर एजीबी शामिल थे. इस बार भाजपा बोडोलैंड में अपने लिए अधिकतर यंत्रण की मांग कर रही थी लेकिन बीपीएफ के प्रमुख, पूर्व लड़ाके हाग्रामा मोहिलेरी अपना इलाके पर प्रभुत्व छोड़ने को तैयार नहीं थे और गठबंधन टूट गया. भाजपा के नए साथी प्रमोद गौरव के नेतृत्व वाली यूपीपीएफ है, जिसका जन्म भारत सरकार से जनवरी 2020 की संधि के बाद हुआ जहां पर अलग राज्य की मांग को पैसे और सत्ता के मोल छोड़ दिया गया.
दिल्ली और दिसपुर, दोनों ही एक नया बोडो समूह चाहते थे. यह भारी भी पड़ सकता है क्योंकि है हग रामा के नए साथी कांग्रेस काफी आशावान दिखाई देते हैं.
प्रतिदिन टाइम को हाल ही में दिए गए इंटरव्यू में राहुल गांधी ने असम की व्याख्या एक "बुद्धिमान राज्य" कहकर की. कांग्रेस नेता ने कहा, "असम संतुलन बनाकर चलने वाला राज्य है, यह उत्तर प्रदेश नहीं. अगर आप असम को चलाना चाहते हैं तो आपको सभी विषमताओं को समझना और स्वीकारना भी पड़ेगा."
इस समय विषमता ए संख्या में हैं और गणित के हिसाब से विपक्ष का गठबंधन लक्ष्य के करीब दिखाई पड़ता है.
लेकिन जैसे चुनावी विश्लेषक अधिकतर चेताते हैं, भारतीय मतदाता इतना भी लीक पर चलने वाला नहीं है. हाल ही में निचले असम, जो तटीय रेतीले स्थल हैं जहां अधिकतर बंगाली मुसलमान रहते हैं, से आने वाले एक युवा गायक ने मुझे बताया कि उनकी विधायक कांग्रेस की नंदिता दास पिछले 5 सालों में केवल एक बार ही 2020 में बाढ़ के दौरान उनके यहां आई थीं. वे अपने साथ एक-दो दर्जन पीने के पानी के बक्से उपहार स्वरूप बाढ़ पीड़ितों के लिए लाईं थीं. वह इस बार भी चुनाव लड़ रही हैं लेकिन गायक यह बताने को तैयार नहीं होते कि वोट कैसे पड़ेगा. यहां लोग जानते हैं कि वह किसे भी वोट करें, वे शायद ही कभी अपने वादों को पूरा करते हैं. फिर भी, उन्हें वोट करना चाहिए, क्योंकि यही उनकी नागरिकता का प्रमाण है.