बांग्लादेश की आजादी का जश्न और बला की ऐतिहासिक निरक्षरता का प्रदर्शन

अब न जयप्रकाश हैं, न शेख मुजीब, न इंदिराजी. वह बांग्लादेश भी नहीं हैं जिसे जयप्रकाश ने एक संभावना के रूप में देखा था.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
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जयप्रकाश देख रहे थे कि उनके अपने भारत में भी तंत्र की जड़ता बनी हुई थी. वह बांग्लादेश की मदद कर तो रहा था लेकिन ऐसी निर्णायक लड़ाई में जैसी खुली मदद जरूरी थी, वह मुक्ति वाहिनी को नहीं मिल पा रही थी. जयप्रकाश अपने प्रभाव से हर तरह से मदद जुटाने में लगे थे और सरकार को भी सुझाव दे रहे थे कि वह खुली सैनिक मदद दे. इंदिराजी ने 4 दिसंबर 1971 को जयप्रकाश का दबाव झटकते हुए कहा कि हमें आदेश देना बंद करें लोग; और दो दिन बाद, 6 दिसंबर को बांग्लादेश को मान्यता दे दी.

सत्ता इसी तरह हमेशा अपना हाथ ऊंचा दिखाने में लगी रहती है. उसके बाद का इतिहास यहां दोहराने का प्रयोजन नहीं है. सोवियत संघ को साथ ले कर इंदिराजी ने कूटनीतिक बारीकियों के मोर्चे पर भी और युद्ध में भी पाकिस्तान को पराजित किया. यह प्रकारांतर से अमेरिका की कूटनीतिक पराजय भी थी. इंदिराजी का यश आसमान पर था. जयप्रकाश ने भी उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की.

लेकिन यह तथ्य भी ध्यान में रखना चाहिए कि पाकिस्तान के फौजी शासन की भोंडी कूटनीति और पश्चिम की खोखली हेंकड़ी के कारण अटक-अटक कर चलने वाली इंदिरा गांधी को सफलता मिल तो गई लेकिन यह बाजी उल्टी भी पड़ सकती थी और बांग्लादेश का जन उभार कुचला जा सकता था. जयप्रकाश ने देश-विदेश में जैसी हवा बनाई, उससे इस विफलता से बचने में बहुत मदद मिली.

शेख मुजीब ने जयप्रकाश की इस भूमिका को पहचाना और जब वे अपनी अज्ञात कैद से निकल कर, ढाका जाने के लिए लंदन पहुंचे तो विश्व को अपने पहले संबोधन में उन्होंने जयप्रकाश का अलग से जिक्र किया. इंदिराजी ने इसे पसंद नहीं किया. अपने तरीकों से उन्होंने जयप्रकाश से दूरी बनाए रखने की हिदायत भी शेख मुजीब तक पहुंचा दी. ढाका जाने के लिए लंदन से मुजीब दिल्ली पहुंचे तो भी उन्होंने जयप्रकाश को याद किया. ढाका की अपनी विजय-सभा में मुजीब चाहते थे कि जयप्रकाश भी मौजूद रहें लेकिन दिल्ली ने इसे भी हतोत्साहित किया. संघर्ष के दिनों में अवामी लीग के जिन शीर्ष नेताओं से लगातार विचार-विमर्श चलता था, वे अब जयप्रकाश के पास आने से हिचकने लगे. आगे का इतिहास बताता है कि बांग्लादेश बनने के साथ ही इंदिराजी का भी और बंगबंधु का काम भी पूरा हो गया. लेकिन बांग्लादेश बन जाने और शेख साहब के प्रधानमंत्री बन जाने से जयप्रकाश का काम पूरा नहीं हुआ.

इतिहास के पन्नों में जयप्रकाश का वह पत्र दबा मिलता है हमें जो पटना से लिखा गया है और जिस पर 31 जनवरी 1972 की तारीख पड़ी है. यह पत्र बांग्लादेश के प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान को लिखा गया है. पत्र भावुकता से शुरू होता है और फिर शेख मुजीब को उनकी गहरी भूमिका समझाता है. शुरू में जयप्रकाश लिखते हैं, “अपनी इस उम्र और स्वास्थ्य के कारण मुझ जैसे आदमी के मन में अब इसके अलावा कोई लालसा बची नहीं है कि बगैर किसी लोभ-लालच-आकांक्षा के, शांत व खुश मन से अपने सिरजनहार से मिल सकूं. लेकिन जिस दिन आप लंदन से दिल्ली आए, उस दिन के ऐतिहासिक अवसर पर वहां हाजिर रहने की जबरदस्त इच्छा ने मुझे विवश-सा कर दिया था.

आपके दर्शन करने, आपको फूलों की माला पहनाने और पल भर के लिए आपको अपनी पूरी ताकत से गले लगा लेने के लिए मेरा मन मचल उठा था…” फिर पत्र का भाव बदलता है, “ईश्वर आपको लंबी उम्र व बढ़िया तंदुरुस्ती दे ताकि आप न केवल अपने व अपने साढ़े सात करोड़ बंधुओं के सपनों का सोनार बांग्ला साकार कर सकें बल्कि इस अभागे उपमहाद्वीप को स्वतंत्र, स्वायत्त राष्ट्रों का सुसभ्य, सुबुद्ध, सहयोगी और समृद्ध समुदाय बनाने के ऐतिहासिक कार्य में मददगार हो सकें… विनोबाजी, जवाहरलालजी, राममनोहर लोहिया और मेरे सहित इस देश के कई लोगों का सपना रहा है कि केवल भारतीय उपमहाद्वीप का नहीं बल्कि समूचे दक्षिण एशिया का भविष्य इसमें ही निहित है कि इस क्षेत्र के सभी देश किसी-न-किसी प्रकार के संघ अथवा भाईचारे से बंधे-जुड़े रहें. ऐसा लगता है मानो नियति ने राजनीतिक, आर्थिक और अन्य हितों का एक भाईचारा खड़ा करने के लिए इस क्षेत्र की रचना की है.

इस सपने में आपको साझीदार बनाने का कारण यह है कि मेरे विचार में इस सपने को साकार करने के लिए आवश्यक नैतिक और राजनीतिक व्यक्तित्व आपके पास है. इसके अलावा 51 साल की आपकी उम्र आपको इस ऐतिहासिक, चुनौती भरे काम को अंजाम तक पहुंचाने का भरपूर समय भी देती है. आपने लंदन में खुद को गांधी परंपरा का व्यक्ति बताया था, तो मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूं कि आजकल चलते-फिरते जिस समाजवाद की बात करना फैशन हो गया है उससे गांधीजी का समाजवाद भिन्न था. वे उसे सर्वोदय कहना पसंद करते थे और उनका समाजवाद या सर्वोदय ‘अंत्योदय’ से शुरू होता था.

बांग्लादेश की परिस्थितियों के कारण राज्य की सर्वोच्च सत्ता अपने हाथ में लेना आपके लिए अनिवार्य बन गया था लेकिन गांधीजी की रीति इससे भिन्न थी. इसके बावजूद मैं यह उम्मीद रखता हूं कि जिस तरह अपने लड़खड़ाते स्वास्थ्य और प्रशासन पर अपनी पकड़ ढीली होते जाने के बावजूद जवाहरलालजी सत्ता में बने ही रहे, आप वैसा नहीं करेंगे.”

वे मुजीब साहब को सावधान करते हैं कि वे भारत की गलतियां न दोहराएं और नौकरशाही को समाजवाद का आधार न बनाएं. “मैं अपनी तरफ से यह उत्कट आशा रखता हूं कि आपके नेतृत्व में बांग्लादेश को समाजवाद की अपनी खामियों और भूलों को समझने में हमारी तरह चौथाई सदी के बराबर समय नहीं लगेगा. आपको इस तरह लिखने का मुझे कोई अधिकार नहीं है. मेरे समान एक साधारण नागरिक एक महान राष्ट्र के आपके जैसे निर्विवाद महान नेता को सलाह देने की धृष्टता भला कैसे करे! लेकिन गांधीजनों के एक अदना प्रतिनिधि के रूप में आपके और आपकी बहादुर व धैर्यवान जनता के प्रति अपनी स्नेह-भावना के वशीभूत होकर मैंने यह सब आपको लिखा है.”

जयप्रकाश यह लिख सके, बंगबंधु कोई जवाब नहीं दे सके. इतिहास ने शेख साहब के कंधों पर संभावनाओं की जो गठरी डाल दी थी, वे उससे कहीं छोटे साबित हुए. 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में जो कुछ हुआ उसे दूसरों से एकदम भिन्न धरातल पर जयप्रकाश ने पहचाना था और उसे साकार करने में अपना पूरा बल लगा दिया था. लेकिन मुजीब न वह दिशा समझ सके और न वैसी हैसियत ही बना सके. सत्ता की सबसे बड़ी गद्दी पर पहुंच कर वे खो गये. वे न दूरदर्शी राजनेता साबित हुए, न कुशल प्रशासक.

सत्ता की ताकत से देश को मुट्ठी में रखने की कोशिश में वे सारे अधिकार अपने हाथों में समेटते गये और अंतत: 1975 में खुद को प्रधानमंत्री से राष्ट्रपति बना लिया और एक तानाशाह की भूमिका में आ गये. लेकिन उनका अंत बहुत करीब था. 15 जनवरी 1975 को फौजी व राजनीतिक बगावत में वे सपरिवार मार डाले गये. तब जयप्रकाश अपने देश की दिशा मोड़ने के अपने अंतिम अभियान के संचालन के ‘अपराध’ में चंडीगढ़ के अस्पताल में नजरबंद थे. वे नजरबंद तो थे लेकिन उनकी नजर बंद नहीं थी. देश-दुनिया की हलचलों के प्रति वे सावधान थे. चंडीगढ़ की नजरबंदी के दरम्यान वे डायरी लिखते थे.

अपनी उस जेल डायरी में, 16 अगस्त 1975 को वे लिखते हैं, “बांग्लादेश से अत्यंत पीड़ादायक खबर है- अविश्वसनीय की हद तक! लेकिन जिस तरह मुजीब ने अपनी निजी व दलीय तानाशाही वहां स्थापित कर रखी थी, यह उसका ही नतीजा है. दिल्ली में उन दिनों यह अफवाह गाढ़ी हो चली थी कि मुजीब ने जो किया है उसकी योजना, उनके भरोसे के लोगों के साथ मिल कर दिल्ली में ही बनाई गई थी. उस वक्त अपने एकाधिकार का औचित्य बताने के लिए मुजीब ने भी वैसे ही कारण दिए थे जैसे अब श्रीमती गांधी दे रही हैं. तब यह बात भी हवा में थी कि यदि श्रीमती गांधी की चली तो वे भी बांग्लादेश के रास्ते ही जाएंगी.”

अगले दिन की डायरी में वे फिर बांग्लादेश का सवाल उठाते हैं और मुजीब व बांग्लादेश के प्रति अपनी पुरानी भावनाओं का जिक्र करते हुए लिखते हैं, “लेकिन जब उन्होंने रंग बदला और एकदलीय शासन की स्थापना कर ली, उनके प्रति मेरे कोमल भाव हवा हो गये. मैं उनकी दिक्कतें समझ रहा था. लेकिन यदि उनमें योग्यता होती तो अपनी जनता पर उनका जैसा गहरा असर और अधिकार था, बहुत कुछ जवाहरलाल जैसा, उसके सहारे वे लोकतंत्र को दफनाए बिना भी परिस्थिति पर काबू कर सकते थे. लेकिन उन्होंने मूर्खता की और विफल हुए. कल जब मैंने उनकी हत्या की खबर पढ़ी तो मैं उदास जरूर हुआ लेकिन मुझे कोई धक्का नहीं लगा, न मेरे दिल में उनके लिए कोई गहरा संताप ही जागा.”

22 अगस्त 1975 की डायरी फिर बांग्लादेश का जिक्र करती है, “बांग्लादेश की खबरें अधिकाधिक भयावह होती जा रही हैं. बगावत के दिन मुजीब के साथ-साथ उनकी पत्नी, उनके तीन बेटों, दो बहुओं, दो भतीजों जैसे मुजीब के निकटस्थ 18 रिश्तेदारों की हत्या हुई. ऐसी क्रूरता को समझ पाना भी कठिन है. मुजीब को मार कर सारी सत्ता हथिया लेने के बाद अब खोंडकर मुश्ताक अहमद लोकतंत्र की बात कर रहे हैं. मैं यह खेल समझता हूं. सारे तानाशाह ऐसी ही बातें करते हैं. हमारे पास भी तो अपनी श्रीमती गांधी हैं! लेकिन मुजीब के सारे परिवार को क्यों नष्ट कर दिया? जो भी हो, हाल-फिलहाल के इतिहास का यह सबसे काला कारनामा है.”

अब न जयप्रकाश हैं, न शेख मुजीब, न इंदिराजी. वह बांग्लादेश भी नहीं हैं जिसे जयप्रकाश ने एक संभावना के रूप में देखा था. आज तमाम देशों की भीड़ में बांग्लादेश भी शरीक हैं और तमाम भेंड़ियाधसान शासकों की भीड़ में उसकी भी अपनी जगह है. लेकिन आज बांग्लादेश किसी संभावना का नाम नहीं है. वह संभावना क्या थी, कैसे बनी और क्यों खो गई, यह जानना जरूरी इसलिए हो जाता है कि इतिहास इसी तरह वर्तमान को रचता है. यह लेख इसलिए ही लिखा गया. इसलिए नहीं कि जयप्रकाश की भूमिका का गुणगान किया जाए, न इसलिए कि यह खतरा है कि हम जयप्रकाश को भूल जाएं. खतरा यह है कि हम अपना इतिहास ही न भूल जाएं! बांग्लादेश को भी और हमें भी अपना इतिहास बार-बार पढ़ने की और उसे साफ-साफ समझने की जरूरत है. जो अपना इतिहास भूल जाते हैं वे वर्तमान को न समझ पाते हैं, न बना पाते हैं. हम सब इसी त्रासदी से गुजर रहे हैं.

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