फिल्म एक ऐसा माध्यम है जिसमें तमाम व्यक्तियों और प्रतिभाओं का सहयोग होता है. यह ठीक है कि निर्देशक के विजन के अनुसार सारा काम होता है. फिल्म उसी विजन को साकार करती है.
‘सत्या’ का भीखू म्हात्रे एक ऐसा किरदार था, जो गैंगस्टर होने के बावजूद एक इंसान के तौर पर पर्दे पर आया. वह लोगों को इसलिए पसंद आया कि पहली बार कोई अपराधी एक व्यक्ति के तौर पर दिखा था. गैंगस्टर या अपराधी होने के बावजूद आप उसे एक अच्छे पति, पिता और दोस्त के रूप में पाते हैं. फिल्म शुरू होते ही हम देखते हैं वह अपनी स्वतंत्रता का उत्सव मना रहा है. वह भावुक है, भंगुर है, उसके साथ रहना, उसका प्यार हासिल करना भी खतरनाक है. ऐसे लोग नाराज हो जाते हैं तो उनसे बच पाना भी मुश्किल होता है. इस लिहाज और दृष्टिकोण से मैंने उस किरदार की रचना की थी. ‘पिंजर’ के बारे में सभी जानते हैं कि वह अमृता प्रीतम के लिखे उपन्यास पर आधारित है और निर्देशक डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने उसे बहुत वास्तविक और विश्वसनीय तरीके से बनाया था. रशीद जैसा किरदार मेरे ख्याल में फिल्मों में नहीं आया है. विभाजन की पृष्ठभूमि और लोगों की तकलीफ के अलावा पूरी फिल्म में रशीद प्रायश्चित कर रहा है अपनी एक गलती का. उस गलती के लिए उसे कभी माफी नहीं मिलती है. यह अजीब है, क्योंकि भारतीय समाज में कुछ लोग महीने में अनेक गलतियां करते हैं और उन्हें माफी मिल जाती है. रशीद को उस व्यक्ति से ही माफी नहीं मिली, जिसे वह सबसे ज्यादा चाहता है. रशीद में देने का जो माद्दा है, वह उसे बहुत बड़ा इंसान बना देती है. ‘भोंसले’ के गणपत के बारे में पहले ही बता चुका हूं.
निश्चित रूप से पुरस्कार किसी कलाकार की व्यक्तिगत प्रतिभा और योगदान का सम्मान होता है, लेकिन फिल्मों में किसी भूमिका को गढ़ने में फिल्म के निर्देशक के साथ यूनिट के तमाम तकनीकी सहयोगियों और कलाकारों का योगदान भी होता है. किसी कलाकार की प्रतिभा को उभारने और निखारने में उनकी क्या भूमिका होती है?
बहुत बड़ी भूमिका होती है. 'भोंसले' फिल्म का ही उदाहरण ले तो देवाशीष ने इस फिल्म के लिए 4 सालों में मेरे साथ जितनी मेहनत की... इतने सारे मेल हुए, हमने नोट शेयर किये, बैठकें की, मेरी मानसिक और शारीरिक तैयारी में उनकी मेहनत और बार-बार जरूरी मुद्दों के लिए आगाह करना. चेताना, सावधान और तारीफ करना. एक्टर को दृश्य के लिए सही तरीके से तैयार करना. ये सारी चीजें निर्देशक और तकनीकी टीम के सहयोग के बिना मुमकिन ही नहीं हैं. इस पुरस्कार के मिलने पर मैं देवाशीष मखीजा और पूरी तकनीकी टीम के प्रति शुक्रगुजार महसूस करता हूं. उनके त्याग के बगैर यह फिल्म नहीं बन सकती थी. मैं ‘भोंसले’ को संदीप कपूर और पीयूष सिंह के बिना देख ही नहीं पाता, जिन्होंने आगे बढ़कर हमारा हाथ थामा. लेखक, निर्देशक और निर्देशन-प्रोडक्शन टीम के सहायक दिन के 18-18 घंटे काम करते थे. फिल्म एक ऐसा माध्यम है जिसमें तमाम व्यक्तियों और प्रतिभाओं का सहयोग होता है. यह ठीक है कि निर्देशक के वीजन के अनुसार सारा काम होता है. फिल्म उसी विजन को साकार करती है.
ऐसी मेहनत और कोशिश तो हर फिल्म में होती होगी. कलाकार को पुरस्कार मिले या ना मिले... वह क्या बात होती है, जो किसी फिल्म में कोई प्रतिभा छिटक कर मुखर हो जाती है और पहचान पाती है? पुरस्कार भी मिलता है.
मेहनत और कोशिश हर फिल्म में होती है, लेकिन ‘भोंसले’ जैसी तकलीफ हर फिल्म को नहीं झेलनी पड़ती. इस फिल्म के सहयोगियों को हर दिन पैसे नहीं मिलते थे. हम लोगों से उन्हें वादे मिलते थे कि पैसे मिल जाएंगे. फिर भी उन्होंने काम में कोई ढिलाई नहीं की. उनका उत्साह कभी कम नहीं हुआ. ‘भोंसले’ के लिए मिले पुरस्कार को मैं उन लोगों के बिना कैसे देख सकता हूं? किरदारों की रचना और उनसे निभा रहे कलाकार की अंतरंगता ही मुखर होकर दर्शकों के बीच पहुंचती है.
आप को शुरू से देख रहा हूं. आप की उपलब्धियों से वाकिफ हूं. आप को जो पुरस्कार और सम्मान मिले, उनके बारे में दुनिया जानती है. जो पुरस्कतर और सम्मान नहीं मिले, मैं उनके बारे में भी जानता हूं. आपके अंदर जो क्षोभ, क्रोध और आंतरिक गुस्सा है...वह अपनी जगह. इन सभी के साथ एक आतंरिक ऊर्जा है...जो तमाम अवरोधों से टकराती और आगे बढ़ाती है आप को… बीच के कुछ सालों के ठहराव के बाद पुनरूज्जीवन लेकर आप लौटे … और अभी आप सक्रिय हैं। मैं उस आतंरिक ऊर्जा और इच्छाशक्ति के बारे में जानने को उत्सुक हूं?
वह और कुछ नहीं, सिर्फ और सिर्फ अभिनय के प्रति मेरा अथाह प्रेम है. यह अभिनय सिर्फ सिनेमा का नहीं है. उस अथाह प्रेम की गहराई मापनी है तो मेरे दिल्ली के दिनों को देखिए और समझिए. उन 10 सालों में मैंने शायद ही किसी महीने में दो हजार रुपए से ज्यादा कमाया हो. वह अभिनय ही था, जिसकी वजह से मैं दिल्ली में टिका रहा और मुंबई नहीं आया. अभिनय से उसी प्रेम की वजह से मैं सारे उथल-पुथल और अवरोधों के बावजूद अभी काम कर रहा हूं और मुंबई में टिका हुआ हूं. बीच में एक ऐसा समय आया, जब मैंने कुछ गलत फिल्में भी चुन ली और मेरी कुछ अच्छी फिल्मों को दर्शकों का सही रिस्पांस नहीं मिला. तब भी मेरे अंदर यह विश्वास था एक अच्छा रोल मुझे मिला तो मैं लौट आऊंगा. उन दिनों मीडिया समेत इंडस्ट्री के कुछ लोग जरूर यह सोच रहे थे कि मेरा कैरियर खत्म हो गया. मेरे अलावा हर व्यक्ति मान चुका था कि मैं खत्म हो गया. मैं लोगों के चेहरे के भाव पढ़ता था और अंदर ही अंदर मुस्काता था.
जब सभी मान चुके हो कि हम खत्म हो गए हैं और फिर आप लौट कर आते हैं तो एक अलग नजारा होता है. जिस समय मुझे प्रकाश झा की ‘राजनीति’ का रोल मिला, तब मेरे जहन में यह बात आ गई थी अब मैं वापस आ जाऊंगा. और वही हुआ भी. उन बुरे दिनों में भी हम और शबाना (पत्नी) मिल-बैठकर दूसरों की बुराई नहीं किया करते थे. अपनी संभावनाओं पर बात करते थे. पांच सालों तक द्वंद्व से गुजरा. उस दरमियान घर और किचन चलाने के लिए कुछ साधारण फ़िल्में कर लीं. एक तो मेरी जिद है. दूसरे, अभिनय से मोहब्बत है. लोगों की टिप्पणियों और आरोपों से मैं अपनी व्याख्या नहीं करता. लो टाइम में भी अपने को लो रख कर देख नहीं पाता था. उन दिनों में भी सुबह उठकर में वॉइस प्रैक्टिस करता था और कविता पाठ करता था. समाचारों से वाकिफ रहना और पेन-पेपर लेकर किसी भी काल्पनिक किरदार के बारे में सोचना और लिखना. मेरा अभ्यास जारी रहा.
तो फिल्म इंडस्ट्री के प्रति अभी भी गुस्सा है?
गुस्सा फिल्म इंडस्ट्री के प्रति नहीं है. उन लोगों पर क्रोध आता है जो मेरे पास आते तो हैं लेकिन मेरे लायक रोल लेकर नहीं आते हैं. पहले की बात है. अभी स्थिति-परिस्थिति बदल चुकी है. जब भीखू म्हात्रे और समर प्रताप सिंह जैसे किरदारों को निभाने के बाद भी मेरे लिए इंडस्ट्री के पास भूमिकायें नहीं थीं. तब गुस्सा आना जायज था, क्योंकि इंडस्ट्री मुझे एक खास कोने में बिठा देना चाहती थी. मैं ऐसा नहीं चाहता था. ऐसी सुरक्षा नहीं चाहता था. फिल्म इंडस्ट्री से मेरी नाराजगी और असुरक्षा ने ही मुझे यहां तक पहुंचाया. याद करें तो उन दिनों मैं अकेला ही था अपनी तरह का... अभी ढेर सारे कलाकार आ गए हैं. उनका सामूहिक जोश और प्रयास नए दरवाजे खोल रहा है. मेरी नाराजगी तो लोगों ने पढ़ ली, लेकिन मेरी बुद्धिमानी नहीं समझ पाए.
पिछले साल आउटसाइडर-इनसाइडर का मामला बहुत प्रखरता से उमरा. आप तो भुक्तभोगी रहे हैं. मैं खुद सालों से इस विषय पर लिखता रहा हूं. हिंदी प्रदेशों के मध्यवर्गीय समाज से आए कलाकारों के साथ फिल्म इंडस्ट्री के रवैए को लेकर मैं खुद लिखता और बताता रहा हूं. मुझे आज भी लगता है कि यह इंडस्ट्री लोकतांत्रिक तरीके से प्रतिभाओं का उपयोग नहीं करती है. फिल्म इंडस्ट्री के इनसाइडर उनके प्रति जानबूझकर दुत्कार और तिरस्कार का रवैया अपनाते हैं.
निश्चित ही फिल्म इंडस्ट्री लोकतांत्रिक तरीके से नहीं चलती है. मैंने बहुत सोचा कि यह इंडस्ट्री ऐसी क्यों है? आउटसाइडर और इनसाइडर का खेल बिल्कुल अलग किस्म का है. फिल्में ब्लॉकबस्टर होते ही हर आउटसाइडर इनसाइडर हो जाता है. जब तक इंडस्ट्री के सफल लोगों को मेरी जरूरत नहीं है या मेरे बगैर उनका काम चल सकता है, तब तक मैं आउटसाइडर ही बना रहूंगा. मैं आउटसाइडर ही भला... कुछ लोगों के साथ अपनी मर्जी के काम तो कर रहा हूं. वास्तव में देखें तो इनसाइडर सफल लोगों के पास आउटसाइडर कलाकारों के लिए कहानियां ही नहीं हैं. उनके पास किरदार भी नहीं हैं. इनसाइडर और आउटसाइडर का विवाद 21 साल पहले शुरू हुआ. उस समय कुछ लोगों को लगा कि आउटसाइडर कलाकार और प्रतिभाएं उनकी रोजी-रोटी पर हाथ डालेंगी. उन्होंने अपना एक समुदाय बनाया और उन्हीं लोगों के साथ काम किया.
आपने विशेषकर 21 साल पहले का हवाला दिया. कोई विशेष घटना या व्यक्ति उससे जुड़ा है क्या?
मैं इसके बारे में विस्तार से नहीं बताऊंगा. उसमें व्यक्ति विशेष का जिक्र आ जाएगा. मैं नाम नहीं लूंगा. यह आप लोगों की खोज का विषय है. कुछ इनसाइडर ने अपनी सुविधा और सुरक्षा की वजह से इसे शुरू किया. मेरे पास तो फर्स्ट हैंड एक्सपीरियंस है. पिछले साल सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद इस पर विशेष चर्चा हुई. लोगों ने अपना गुस्सा जाहिर किया. मुद्दा तो पहले से चला आ रहा है. बाहरी प्रतिभाएं इन्हें झेलती और जूझती आ रही हैं. मेरे हिसाब से अंतिम निष्कर्ष यही है कि जिस दिन यह फिल्म इंडस्ट्री लोकतांत्रिक होगी और प्रतिभा के आधार पर फिल्में देगी, तभी यह इंडस्ट्री अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना मुकाम बना पाएगी. इसके अलावा बॉक्स ऑफिस एक ऐसा विलन है, जो अभी तक जिंदा है. फिल्म पत्रकार और दर्शक भी फिल्मों की कमाई का उल्लेख करते हैं. वह अभी तक कलेक्शन से किसी फिल्म की गुणवत्ता मापते हैं.
क्या आपको नहीं लगता है कि अगर मुंबई फिल्म इंडस्ट्री का विकेंद्रीकरण हो तो यह समस्या अपने आप ढीली पड़ जाएगी या खत्म हो जाएगी? उत्तर भारत का प्रशासन और समाज इसमें रुचि लेता और फिल्म निर्माण की गतिविधियां उधर होती तो आज स्थिति अलग रहती.
विकेंद्रीकरण तभी संभव है जब डायरेक्टर और प्रोड्यूसर उत्तर भारत से आएंगे और उसे उत्तर भारत में फिल्मों की शूटिंग और प्रोडक्शन करेंगे. गौर करेंगे तो अघोषित रूप से यह प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है. कोरोना की वजह से लोग मुंबई से खिसक रहे हैं. ऐसा लगने लगा है कि बगैर मुंबई में रहे भी फिल्में बनाई जा सकती हैं. विकेंद्रीकरण होने से फिल्म इंडस्ट्री का लॉबी और फेवरिज्म का कल्चर भी खत्म होगा.
आपको मिला यह पुरस्कार नई प्रतिभाओं के लिए दीप स्तंभ की तरह काम करता है. फिल्मों में आने के लिए संघर्षशील कलाकारों को आप क्या संदेश और मंत्र देना चाहेंगे?
मैं तो हमेशा यही कहता हूं उत्तम काम करने के लिए आप की तैयारी भी उत्तम होनी चाहिए. अपने ऊपर काम करना, अपने व्यक्तित्व और अभिनय पर काम करना तो हमारी दिनचर्या का विषय होना चाहिए. आप जो कर रहे हैं, उसे हमेशा कम न मापें. लेकिन अधिक की तलाश में रहें. हाथ में लिए काम को अपना ‘मुगलेआजम’ ही मानें. जरूरी है कि खुद को ही जांचें. किसी और की जांच और माप की परवाह न करें. वेलिडेशन और अप्रूवल के लिए किसी और की तरफ मत देखिए. अपनी कमियों को समझ कर उसे दूर कीजिए. ना तो किसी की आलोचना और ना किसी की तारीफ की परवाह कीजिए. दोनों को सुन लीजिए और अगले दिन, अगली सुबह नई सोच और एनर्जी के साथ जुट जाइये.
मनोज बाजपेयी के अनुसार अभिनय का मूल मंत्र क्या हो सकता है?
मैं हमेशा कहता हूं कि एफटीआईआई, एनएसडी या व्हीसलिंगवुड्स की शिक्षा तब तक काम नहीं आएगी, जब तक आप खुद कुछ करना शुरू नहीं करेंगे. सभी जानते हैं कि एनएसडी में मेरा एडमिशन नहीं हो पाया था. उनका सिलेबस लेकर मैं बाहर में अभ्यास करता था. यह कभी मत सोचिए कि एक्टर पढ़ता नहीं है. खूब पढ़िए. किताब ना मिले तो अखबार के सारे पन्ने पढ़ जाइए. किसी कहानी का समाचार से किरदार बनाइए और फिर कुछ किरदार के बारे में दो पृष्ठों में लिखिए. कविता पढ़िए. सुबह में वॉइस एक्सरसाईज कीजिए. आज भी सुबह उठने के बाद कुछ घंटे मेरा काम सिर्फ इन अभ्यासों में बीतता है.
अपने समाज और राज्य से क्या प्रतिक्रियाएं मिली पुरस्कार पर?
मेरे पिताजी फूले नहीं समा रहे हैं. लगातार उनके इंटरव्यू चल रहे हैं. बहुत खुश हैं वे.