मनरेगा ने बदल दी गांव की सूरत

मनरेगा से 15 साल में 30 करोड़ से अधिक जल परिसंपत्तियों का सृजन किया गया है.

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महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा को लागू हुए 15 साल हो गए हैं. 2006 में देश के सबसे गरीब 200 जिलों में इसकी शुरुआत हुई थी. बाद के वर्षों में पूरा देश इसके दायरे में आ गया. उम्मीद थी कि यह क्रांतिकारी कानून गांवों में फैली गरीबी को दूर करने में अहम भूमिका निभाएगा और ऐसी परिसंपत्तियों का निर्माण करेगा जो दीर्घकाल तक मददगार होंगी. तमाम विसंगतियों के बावजूद मनरेगा से 15 साल में 30 करोड़ से अधिक जल परिसंपत्तियों का सृजन किया गया है.

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) एक असामान्य कार्यक्रम इसलिए है, क्योंकि जिस काल में रोजगार और ढांचागत विकास कार्यों का बेतरतीब निजीकरण किया जा रहा था, उस काल में सामाजिक आंदोलनों और जनपक्षीय राजनीति के दबाव के कारण भारत सरकार ने सभी ग्रामीण परिवारों को 100 दिन के काम का वैधानिक अधिकार दिया. मनरेगा का सबसे महत्पूर्ण पहलू यह है कि व्यापक स्तर पर श्रमिकों के जरिए गांवों में परिसंपत्तियों का निर्माण कराया गया. इस कानून के तहत हुए कामों में 70 फीसदी काम जल संरक्षण के कार्य शामिल हैं. यही वजह है कि मनरेगा के पिछले 15 सालों में जिन कामों पर सबसे अधिक जोर दिया गया है, उनमें जल संरक्षण और संचयन के कार्य प्रमुखता से शामिल हैं.

दिल्ली स्थित शोध संस्थान इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ के डायरेक्टर मनोज पांडा के मुताबिक, जहां तक इस स्कीम के तहत कराए जाने वाले कामों की बात है, तो ये ग्रामीण इलाकों में प्राकृतिक संसाधनों के साथ ही जलस्रोतों के प्रबंधन पर केंद्रित रहा है. हाल के वर्षों में व्यक्तिगत परिसंपत्तियों के निर्माण पर भी खासा जोर दिया गया, मगर सामुदायिक परिसंपत्तियों का निर्माण प्राथमिकता में है.

मनरेगा के अस्तित्व में आने के साथ ही वाटरशेड विकास जैसे प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन पर काम करने की कोशिश की गई. हालांकि, साल 2009 में जारी गाइडलाइन में व्यक्तिगत जमीन पर परिसंपत्तियां विकसित करने को शामिल कर प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के दायरे को बढ़ाया गया. राजस्थान के मनरेगा आयुक्त पूर्णचंद्र किशन ने कहा कि शुरू में 12 तरह के कार्यों को इस कार्यक्रम में शामिल किया गया था, लेकिन अब 260 प्रकार के कार्य कराए जा सकते हैं. इसे मनरेगा की सफलता ही कहेंगे कि साल 2006 से अब तक 30.01 करोड़ पानी संबंधी परिसंपत्तियां बनाई जा चुकी हैं. इनमें जल संरक्षण/जल संचयन ढांचा, बाढ़ से बचाव, सिंचाई की नहर, बाढ़ नियंत्रण और परंपरागत जलाशयों का पुनरोद्धार शामिल है. इन पर कुल 1,43,285 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं. इन ढांचों के आकार को देखें, तो बड़े स्तर पर क्षमता का निर्माण किया गया है. एकदम शुरुआती चरणों के तहत हुए ढांचागत विकास से 189 लाख हेक्टेयर भूमि (भारत में 647 लाख हेक्टेयर सिंचित भूमि है) की सिंचाई की गई, 28,741 लाख क्यूबिक मीटर जलसंरक्षण ढांचा (जिनसे 14,870 लाख लोगों को प्रति व्यक्ति 55 लीटर के हिसाब से सालभर पानी मिल सकता है) और 33 किलोमीटर सिंचाई नहर (इंदिरा गांधी नहर की लंबाई 650 किलोमीटर है) का निर्माण किया गया है.

ये निश्चित तौर पर मिट्टी और भूगर्भ जल में सुधार लगाएगा और मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ेगी. मनरेगा के तहत व्यक्तिगत और सामूहिक परिसंपत्तियां बनाने से समाज और पर्यावरण पर कोई प्रभाव पड़ा है या नहीं ये पता लगाने के लिए कई शोध हुए हैं. उदाहरण के लिए कर्नाटक जैसे राज्य जहां कठोर चट्टानें फैली हैं, वहां वर्ष 2012-2013 की अवधि में न सिर्फ खेत-तालाबों से बल्कि छोटे रिसाव तालाब, एनिकट, विभिन्न तरह के बांध और तालाबों से 2,986 मिलियन क्यूबिक मीटर (एमसीएम) जल भंडारण क्षमता विकसित की गई. यह जल भंडारण क्षमता दिल्ली के सालाना घरेलू पानी की जरूरत का छह गुणा है. राजस्थान के पंचायती राज विभाग के आंकड़ों के मुताबिक तालाब, पोखर और अन्य जल संपत्तियों के निर्माण से प्रति जल परिसंपत्तियों ने 0.1 से 5 हेक्टेयर जमीन सिंचित करने की क्षमता विकसित की है.

इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ की तरफ से साल 2018 में किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि आजादी के बाद भारत में मनरेगा सबसे भरोसेमंद कार्यक्रम साबित हुआ है. यह अध्ययन 21 राज्यों के 30 जिलों और 14 अलग-अलग तरह के जलवायु क्षेत्र में हुए सर्वेक्षण पर आधारित है. अध्ययन के विश्लेषण के मुताबिक, महबूबनगर, नीमच और विजयानगरम में मनरेगा के सभी लाभार्थियों ने पाया कि यहां भूगर्भ जलस्तर में इजाफा हुआ है, लेकिन मुक्तसर जिले के किसी भी लाभार्थी ने भूगर्भ जलस्तर में किसी भी तरह का बदलाव नहीं पाया. बिहार के समस्तीपुर जिले के लाभार्थियों ने इससे पेयजल की उपलब्धता में किसी तरह के सुधार नहीं होने की बात कही, लेकिन इसके उलट कांचीपुरम, जालना, राजनंदगांव और उत्तर कन्नड़ जिले के लाभार्थियों ने पाया कि पेयजल की उपलब्धता में सुधार हुआ है.

14 जिलों- कांचीपुरम, सतारा, जालना, कोलार, राजनंदगांव, विजयानगरम, अनंतपुर, बीकानेर, बीरभूम, मंडी, पथानामथिता, देहरादून, सवाई माधोपुर और नागांव में इस कार्यक्रम से मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार हुआ. वहीं, 8 जिलों-कांचीपुरम, सतारा, उत्तर कन्नड़, बीरभूम, बोधगया, छिंदवाड़ा, सवाई माधोपुर और समस्तीपुर में सभी व्यक्तिगत परिसंपत्तियों के लाभार्थी भविष्य में लाभ लेने के लिए संपत्तियों की मरम्मत और रखरखाव करते पाए गए. अतः सामुदायिक परिसंपत्तियों के दो तिहाई लाभार्थियों को सिंचाई क्षमता में बढ़ोतरी और जमीन की गुणवत्ता में सुधार देखने को मिला.

सामुदायिक परिसंपत्तियों के कारण सिंचाई की क्षमता में काफी इजाफा हुआ और साथ ही मिट्टी और पानी संरक्षण में भी सुधार हुआ. अध्ययन में कहा गया है कि भूगर्भ जलस्तर में बढ़ोतरी होने से 78 प्रतिशत से अधिक परिवारों को फायदा हुआ और जमीन की गुणवत्ता में सुधार होने से 93 प्रतिशत परिवारों को लाभ मिला. अध्ययन पत्र (2018) के लेखक मनोज पांडा के मुताबिक, अध्ययन में शामिल 1,200 लाभार्थियों के सर्वेक्षण में हमने पाया कि ज्यादातर लोगों ने प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन (जल परिसंपत्तियां शामिल) के अंतर्गत संपत्तियों के निर्माण के चलते भूगर्भ जलस्तर में इजाफे को सबसे ज्यादा पारिस्थितिक तंत्र के लिए हितकारी माना.

पंजाब के मुक्तसर में चयनित लाभार्थियों में 30 प्रतिशत ने, तो मध्यप्रदेश के नीमच के 95 प्रतिशत लाभार्थियों ने यही प्रतिक्रिया दी. उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि मनरेगा ने ग्रामीण क्षेत्रों में जल की उपलब्धता में वृद्धि की है. जल संरक्षण कार्यों ने 15 सालों में ग्रामीणों के जीवन स्तर में कितना बदलाव किया है, यह जानने और समझने के लिए डाउन टू अर्थ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के उन जिलों में पहुंचा जहां 2005-06 में मनरेगा लागू किया गया था. इन जिलों के ऐसे गांवों को खोजा जहां मनरेगा के तहत हुए जल संरक्षण के कार्यों ने ग्रामीणों को गरीबी से बाहर निकालने व आय बढ़ाने में मदद की.

अधूरे कार्य बड़ी समस्या

मनरेगा की वेबसाइट में एमआईएस पर उपलब्ध कराए गए ताजा आंकड़ों के मुताबिक, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में वित्त वर्ष 2019-2020 में पानी से संबंधित दो कार्यों में सबसे ज्यादा काम अधूरे रहे, जो वित्तवर्ष 2020-2021 तक खिंच गए. आंध्र प्रदेश में ये दोनों कार्य लघु सिंचाई (55,439 अधूरे कार्य) और पारंपरिक जलस्रोतों का पुनरोद्धार (26,225 अधूरे कार्य) हैं. तेलंगाना में सूखा से बचाव (3,89,567) और जल संरक्षण तथा संचयन (1,11,321) कार्य अधूरे रहे. इसी वित्त वर्ष यानी साल 2019-20 में पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा कार्य जो अधूरे रहे, वे बाढ़ नियंत्रण और सुरक्षा (54,818) से जुड़े थे. तमिलनाडु में सबसे ज्यादा अधूरा कार्य ग्रामीण पेयजल (1,265) से जुड़ा था. वित्त वर्ष 2019-2020 में पानी से संबंधित 20 लाख संपत्तियों का काम अधूरा था, जो साल 2020-2021 तक जारी रहा.

1 अक्टूबर 2019 से अधूरे कार्यों में प्रगति के आंकड़ों से पता चलता है कि आंध्र प्रदेश ने जलस्रोतों के जीर्णोद्धार के तहत 28,623 कार्यों को पूरा किया. इसका सीधा अर्थ है कि लंबित कार्य पूरे हुए हैं. लेकिन, जल संरक्षण और जल संचयन के तहत कार्यों की बात करें, तो साल 2019-2020 में सबसे ज्यादा कार्य तेलंगाना में अधूरे थे. राज्य में 1 अक्टूबर 2019 से अब तक 36,737 कार्य ही पूरे हो पाए हैं. मनोज पांडा बताते हैं, “ग्रामीण इलाकों में जल संबंधी समस्याओं के समाधान में मनरेगा की क्षमता का दोहन करने के लिए ग्रामसभा को निर्णय लेने की प्रक्रिया में प्रभावी तरीके से शामिल करना चाहिए. वित्त आयोग से पंचायतों को मिले अनुदान में पानी फोकस एरिया है. योजना, कार्यान्वयन और जवाबदेही में आपसी तालमेल स्थापित करने के लिए इन दोनों खर्च को एक साथ मिलाने की गुंजाइश है.” पूर्णचंद्र किशन कहते हैं, “हर कार्य को टैग करने के लिए जीआईएस आधारित तकनीक इस्तेमाल करना चाहिए. ग्राम पंचायत को चाहिए कि वह निर्माण कार्य में लगी सामग्री और श्रमिकों की पूरी जानकारी रखे और इसी के अनुरूप पैसा खर्च करे. इससे कार्यक्रम रिसाव मुक्त और ज्यादा प्रभावी होगा.” उन्होंने बताया कि राजस्थान इसी तर्ज पर काम कर रहा है.

लेकिन क्या कार्यक्रम सही रास्ते पर है? विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री और योजना आयोग के पूर्व सदस्य मिहिर शाह के अनुसार, मनरेगा को लागू करने में सबसे कमजोर कड़ी इसे लागू करने वाली संस्था ग्राम पंचायत के पास अपेक्षित क्षमता की कमी है. शाह के मुताबिक, एक तरीका है जिससे इस कमजोरी को प्रभावी तरीके से दूर किया जा सकता है और वह है कलस्टर फैसिलिटेशन टीम (सीएफटी). इसे जहां भी आजमाया गया है, वहां सफल रहा है. शाह के मुताबिक, सीएफटी बहुविषयक पेशेवरों की टीम है, जो ग्राम पंचायतों के कलस्टरों को मांग के अनुरूप होने वाले कार्यक्रमों को प्रभावी तरीके से लागू करने, उच्च गुणवत्तापूर्ण संपत्तियों के निर्माण के प्रावधानों के बारे में जागरूक करने और सोशल ऑडिट करने में मदद करती है. मनरेगा सफलतापूर्वक लागू हो, ये सुनिश्चित करने के लिए सीएफटी को व्यापक स्तर पर ले जाने की जरूरत है और खासकर उन राज्यों में, जहां इसकी जरूरत है और जहां राज्य की क्षमता कमजोर है.

(डाउन टू अर्थ से साभार)

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