गरीबी के कारण सामूहिक खुदकुशी कर रहे परिवारों में ‘बुराड़ी कांड’ क्‍यों खोजते हैं अखबार?

अलग-अलग कारणों से परिवारों द्वारा की जा रहीं सामूहिक आत्‍महत्‍याएं पारंपरिक भारतीय समाज की बुनियादी इकाई के कमजोर हो जाने का लक्षण हैं.

Article image

बिहार के सुपौल जिले के एक गांव में पांच सदस्‍यों के एक परिवार ने आत्‍महत्‍या कर ली. यह ख़बर न सिर्फ बिहार से निकलने वाले अखबारों में, बल्कि कुछ अखबारों के राष्‍ट्रीय और अन्‍यत्र संस्‍करणों में भी प्रमुखता से छपी है. अपने यहां के हिंदी अखबार दो तरह की आत्‍महत्‍याओं में दिलचस्‍पी लेते हैं. या तो किसी सेलिब्रिटी ने खुदकुशी की हो या फिर थोक भाव में लोग मरे हों, मने पांच, सात, ग्‍यारह. यह अकारण नहीं है कि दैनिक जागरण सहित कुछ और जगहों पर सुपौल की घटना को लगभग तीन साल पहले हुए दिल्‍ली के बुराड़ी कांड के साथ रखकर तौला जा रहा है. ऐसे मामलों में अखबारों के लेखन का तरीका तकरीबन एक जैसा होता है. आइए, सुपौल का ही उदाहरण देखते हैं.

कुछ बातें प्रथमदृष्‍टया साफ़ हैं, मसलन- मृतक परिवार के मुखिया मिश्रीलाल साहू आर्थिक तंगी से गुजर रहे थे; बेटी किसी से साथ प्रेम प्रसंग में चली गयी थी; भाइयों के साथ ज़मीन का विवाद चल रहा था; समाज में परिवार का उठना-बैठना बंद हो चुका था; सितम्‍बर से घर के बाहर दिखायी नहीं दिया था परिवार; परिवार को पालने के लिए साहू ने पहले ई-रिक्‍शा चलाया, फिर सेकेंड हैंड ऑटो रिक्‍शा खरीद कर चलाया, उसके बाद कोयला बेचा था; पिछले दो साल से अपने हिस्‍से की ज़मीन बेच कर परिवार का गुज़ारा हो रहा था. ये सभी बातें या तो पुलिस ने कही हैं या गांव वालों ने अखबारों के प्रतिनिधियों को बतायी हैं.

imageby :

इन सब के बाद भी अखबार पूरे आत्‍मविश्‍वास से दो बातें खबर के अंत में लिखते हैं: प्रथमदृष्‍टया मामला आत्‍महत्‍या का लगता है, और घटना के ठोस कारणों की जांच की जा रही है. गरीबी से होने वाली सामूहिक खुदकुशी की घटनाओं को रहस्‍य-रोमांच की खबरों में तब्‍दील करने से अखबारों को आखिर क्‍या हासिल होता है? वैसे, इससे भी पहले एक सवाल यह बनता है कि क्‍या कभी हिंदी पट्टी के अखबारों ने जानने-समझने की कोशिश की कि आजकल पूरे के पूरे परिवार एक साथ क्‍यों खुदकुशी कर रहे हैं? क्‍या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि यदि यह एक उभरती हुई परिघटना है, तो शहर से गांवों तक कैसे पहुंची और ग्रामीण समाज क्‍या उखाड़ता रहा किसी के मरने तक?

आइए, थोड़ा और भीतर चलते हैं एक खबर के सहारे जो कि टाइम्‍स ऑफ इंडिया में पटना डेटलाइन से छपी है लेकिन कायदे से उसे हिंदी अखबारों के पटना संस्‍करण में होना चाहिए था.

पूरब के गांवों में मौत की आंधी

खबर कहती है कि सुपौल की घटना इकलौती नहीं है क्‍योंकि राज्‍य में सामूहिक आत्‍महत्‍याएं उभार पर हैं. जनवरी में एक व्‍यक्ति ने अपने सहित सात सदस्‍यों के पूरे परिवार को मारने की कोशिश की थी. पिछले साल जमुई में एक महिला ने अपने दो बच्‍चों के साथ खुदकुशी की. नवादा में एक और महिला अपने दो बच्‍चों को लेकर तालाब में कूद गयी. रोहतास, वैशाली, मुजफ्फरपुर, सीवान, सारण से ऐसी ही खबरें हैं. लोग अब अकेले नहीं मर रहे, पूरे परिवार को लेकर डूब रहे हैं.

बीते दो हफ्तों की खबरों की एक परिक्रमा करें तो हम पाते हैं कि ऐसी घटनाओं से अखबार पटे पड़े हैं. पिछले हफ्ते यूपी के अमरोहा में एक परिवार का सबसे बडा बेटा मर जाता है और उसकी पत्‍नी भी खुदकुशी कर लेती है. ये व्‍यक्ति अकेले परिवार का खर्च चला रहा था. वजह थी आर्थिक तंगी. गुजरात के वडोदरा में 6 सदस्‍यों के एक परिवार ने आर्थिक तंगी के कारण ज़हर पी लिया जिसमें तीन तत्‍काल मर गये. राजस्‍थान के सीकर में एक परिवार के चार सदस्‍य फांसी से लटक गये. आंध्र प्रदेश के अनंतपुर में तीन सदस्‍यों के परिवार ने कीटनाशक पी कर जान दे दी. पंजाब के गुरदासपुर में भी तीन सदस्‍यों के परिवार ने खुदकुशी कर ली. हरियाणा और छत्‍तीसगढ़ से भी ऐसी ही खबरें हैं. ये सब बीते दो से तीन हफ्ते के दौरान हुआ.

imageby :
imageby :

एक विशिष्‍ट बात इन घटनाओं में हम यह पाते हैं कि मय परिवार सुसाइड का ट्रेंड अब दक्षिण और मध्‍य से उत्‍तर और पूरब की तरफ आ रहा है. वो भी गांवों में अब ऐसी घटनाएं देखने में आ रही हैं जहां का समाज परंपरागत रूप से सहकारिता पर आधारित रहा है और आज तक गांवों में हम मानते रहे हैं कि कोई भूखा नहीं मरता. यह बात बिहार और उत्‍तर प्रदेश के लिए विशिष्‍ट होनी चाहिए क्‍योंकि अब भी पूरब के इलाकों में खुदकुशी कोई ट्रेंड नहीं बनी थी. इसकी वजह यहां का सामाजिक ताना-बाना हुआ करता था.

सवाल उठता है कि क्‍या यूपी, बिहार, एमपी, छत्‍तीसगढ़, राजस्‍थान, पंजाब का विदर्भीकरण हो रहा है? सनद रहे कि यह शब्‍द विदर्भ को बदनाम करने के लिए नहीं है, केवल इसलिए है क्‍योंकि हम विदर्भ में गरीबी और कर्ज तले बरसों से खेतिहर परिवारों को लगातार मरता देख रहे हैं और अपेक्षाकृत पूर्वी राज्‍यों पर इस मामले में संतोष व्‍यक्‍त करते रहे हैं. खबरों को सपाट तरीके से रिपोर्ट करने के अलावा क्‍या अखबारों की कोई सामाजिक जिम्‍मेदारी बनती है ऐसी घटनाओं पर?

imageby :
imageby :
imageby :
imageby :

गरीबी, कर्ज, आर्थिक तंगी एक पहलू है. मौत की परछाइयां हर जगह इतनी साफ़ नहीं हैं. नोएडा में एक लड़का अपने सांवले रंग से परेशान था इसलिए उसने खुदकुशी कर ली. यह खबर पिछले हफ्ते की ही है. दिल्‍ली से सटे नोएडा में बीते एक साल में कोई 500 लोग खुदकुशी कर चुके हैं लेकिन अखबारों के लिए ये कोई प्रमुख खबर नहीं है. थोड़ा पीछे मुरादाबाद चलिए. यहां 28 फरवरी के अमर उजाला में एक खतरनाक खबर छपी थी कि अवसाद के कारण पिछले 11 महीने में 8 पुलिसवालों ने खुद को गोली मार ली. औरंगाबाद में एक व्‍यक्ति इलाज नहीं करवा सका तो उसने अपना स्‍थायी इलाज कर लिया. शाहजहांपुर में एक स्‍कूली छात्र फीस नहीं भर सका तो जान दे दिया. अहमदाबाद की आयशा का केस तो हम सब जानते ही हैं जिसे मीडिया ने भी काफी कवर किया था.

खुदकुशी की घटनाओं पर अखबारों और मीडिया का एक सामान्‍य रुख होता है कि मनोवैज्ञानिकों से बात कर ली जाय. आयशा के केस में तो बीबीसी हिंदी तक ने मनोवैज्ञानिकों से बात कर के लम्‍बी स्‍टोरी की थी. सुपौल कांड में भी मनोवैज्ञानिक घुस आए हैं. याद करिए जब मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान विदर्भ और मराठवाड़ा में किसानों की खुदकुशी की जांच के लिए मनोवैज्ञानिकों का एक दल भेजा गया था. आयशा की मौत के पीछे दहेज और प्रताड़ना है, किसानों की मौत के पीछे कर्ज का बोझ. इसमें मनोवैज्ञानिक क्‍या करेंगे? वही, जो उन्‍होंने महाराष्‍ट्र में किया- दौरे से लौटने के बाद रिपोर्ट में लिखा कि किसानों की खुदकुशी के पीछे शराबखोरी की आदत है. अखबारों ने उसे खूब छापा था. मनोवैज्ञानिकों ने सम्‍पादकों को गरीबी और कर्ज का सीधे नाम लेने से बचा लिया था. इस रास्‍ते जाने कितनों की नौकरी बच गयी होगी.

मोहन डेलकर से भयभीत अखबार

आत्‍महत्‍याओं के पीछे हिंदी के अखबारों को सीधे गरीबी, बेरोजगारी, तंगी, कर्ज, आदि का नाम लेने में डर लगता है. उन्‍हें एक बहाना चाहिए होता है. इसीलिए बुराड़ी जैसी घटनाएं बड़ी बन जाती हैं और सुपौल जैसी घटनाएं मामूली. बुराड़ी में अंधविश्‍वास एक सेफ ग्राउंड था खेलने के लिए. गरीबी, बेरोजगारी पर कौन खेले? नौकरी जो बचानी है. सरकार के खिलाफ नहीं बोल सकते. बिलकुल यही रवैया उन हाइ प्रोफाइल मौतों में काम करता है जहां मरने वाला सरकार की तरफ उंगली उठाकर गया होता है. ताजा केस दादरा और नगर हवेली के सांसद रहे मोहन डेलकर का है जिनकी प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठियां खुलेआम घूम रही हैं लेकिन हिंदी के अखबार कांग्रेस पार्टी के मुंह से ‘आरोप’ की ज़बान में बोल रहे हैं.

imageby :

मोहन डेलकर पहले कांग्रेस में होते थे, फिर कांग्रेस छोड़कर स्‍वतंत्र रूप से 2019 का लोकसभा चुनाव लड़े और जीते. उसके बाद जदयू में चले गए. कोई पहली बार वे सांसद नहीं बने थे, सात बार से सांसद थे, इसी से उनकी खुदकुशी की अहमियत का अंदाजा लग जाना चाहिए था. मुंबई के एक होटल में 22 फरवरी को खुदकुशी करने वाले डेलकर ने ‘’इंसाफ’’ की गुहार करते हुए प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और लोकसभा के स्‍पीकर ओम बिड़ला को एक नहीं, कई पत्र लिखे थे. किसी का जवाब उन्‍हें नहीं मिला, तो वे निकल लिए.

उनकी चिट्ठियां पढ़कर समझ में आता है कि इस देश में सांसद होने पर भी आप निस्‍सहाय हो सकते हैं. वे जिस क्षेत्र से सात बार के लोकप्रिय सांसद थे, उसी केंद्र शासित प्रदेश का प्रशासन उनका अपमान करता था और उन्‍हें कार्यक्रमों में जाने पर रोक लगाता था. उनकी चिट्ठियां पढ़कर समझ में आता है कि यदि आप सत्‍ताधारी दल से नहीं हैं, तो सांसद होते हुए भी आपकी कोई औकात नहीं है. जीते जी डेलकर के पत्रों पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने कोई सुनवाई नहीं की, मरने के बाद हिंदी के अखबारों ने उनकी कोई सुध नहीं ली. अब कांग्रेस आरोप लगा रही है, तो अखबार खानापूर्ति कर रहे हैं.

imageby :

एक पत्र में वे गुजरात भाजपा के नेता प्रफुल्‍ल खेड़ा द्वारा प्रताड़ना की शिकायत करते हुए लिखते हैं, ‘’या तो मैं सांसद पद से इस्‍तीफा दे दूं या फिर जान दे दूं.‘’ मुंबई पुलिस ने खेड़ा और आठ अन्‍य के खिलाफ एफआइआर दर्ज कर ली है. 12 फरवरी को संसद की प्रिविलेज कमेटी ने इस मामले की सुनवाई भी की, लेकिन डेलकर अब नहीं हैं इसलिए इन सब से कोई फर्क नहीं पड़ता.

imageby :

याद कीजिए अरुणाचल के मुख्‍यमंत्री रहे कलिखो पुल की खुदकुशी जिसे अबकी 9 अगस्‍त को पांच साल पूरे हो जाएंगे. मरने से पहले पुल ने 60 पन्‍ने का एक सुसाइड नोट लिखा था जिसमें उन्‍होंने संवैधानिक पद पर बैठे कई लोगों पर आरोप लगाए थे. इस नोट को किसी हिंदी अखबार ने नहीं छुआ, द वायर ने इसे पूरा छापा था जिसे बाद में अंग्रेजी के कुछ अखबारों और पोर्टलों ने फॉलो किया.

अभी महीने भर पहले कलिखो पुल के बेटे का शव लंदन के ससेक्‍स स्थित एक अपार्टमेंट में रहस्‍यमय परिस्थितियों में पाया गया. यह खबर दबी ही रह गयी. अमर उजाला आदि ने छापा भी तो उसमें न कोई संदर्भ था न कोई फॉलो अप. केवल सूचना थी मौत की.

बुराड़ी अकेले नहीं, फिल्‍में और भी हैं...

कोरोना महामारी के कारण अचानक लगाए गए लॉकडाउन को एक वर्ष होने को आ रहा है. इस बीच कोरोना के खाते में गयी मौतों से इतर दूसरे कारणों से हुई मौतों को देखें तो उनमें खुदकुशी सबसे ज्‍यादा मौतों का कारण रही है. अमन, तेजेश, कनिका और कृष्‍णा नाम के बंगलुरु स्थित चार रिसर्चर लॉकडाउन के बाद से ही कोविड और नॉन-कोविड मौतों के आंकड़े पर काम कर रहे थे. उनका पूरा अध्‍ययन यहां देखा जा सकता है. खुदकुशी के अलावा भुखमरी और सड़क हादसे दो ऐसे कारण हैं जिनके खाते में सबसे ज्‍यादा मौतें आयी हैं.

imageby :

पूरे के पूरे परिवार की आत्‍महत्‍या के ट्रेंड पर अब भी कोई गंभीर और व्‍यवस्थित काम नहीं हुआ है, लेकिन लॉकडाउन ने जिस तरीके से लोगों का रोजगार छीना और उन्‍हें सड़क पर ला दिया, उसका असर अब स्‍थानीय अखबारों के पन्‍नों पर साफ़ दिख रहा है. लॉकडाउन की पहली बरसी पर यह जानना और समझना दिलचस्‍प होगा कि बीते पांच साल से सरकार द्वारा एक-एक कर के दिए जा रहे झटकों के बाद मार्च 2020 में अचानक लागू की गयी घरबंदी ने लोगों को भीतर से तोड़ दिया और परिवारों को पंगु बना दिया. हिंदी के अखबारों के स्‍थानीय संस्‍करण ऐसे मामलों में सूचना का प्रथम स्रोत हो सकते हैं क्‍योंकि अब भी वहां एक-एक मौत को दर्ज तो किया ही जाता है.

तीन साल पहले दिल्‍ली के बुराड़ी में एक ही परिवार के 11 लोगों की रहस्‍यमय मौत पर नेटफ्लिक्‍स पर एक सीरीज़ जल्‍द ही आने वाली है. जाहिर है, अंधविश्‍वास और तंत्र-मंत्र जैसी रहस्‍यमय चीजें फिल्‍मों के लिए अच्‍छा मसाला देती हैं लेकिन बाकी देश में भी मसाला कम नहीं है. अलग-अलग कारणों से परिवारों द्वारा की जा रहीं सामूहिक आत्‍महत्‍याएं पारंपरिक भारतीय समाज की बुनियादी इकाई के कमजोर हो जाने का लक्षण हैं. इन पर भी कोई बात करे, कोई फिल्‍म बनाए, तब बात आगे बढ़े.

Also see
article imageपत्रकारों से मारपीट के मामले में अखिलेश यादव पर एफआईआर दर्ज
article imageआप अखबार पढ़ते रहिए, उधर डिजिटल हो चुकी आपकी खसरा-खतौनी लुटने वाली है

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like