फिल्मों के निर्माण में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन आम धारणा के विपरीत अभी समानता के लिए महिलाओं को लंबी यात्रा तय करनी है.
दरअसल, दशकों से चली आ रही परंपरा और पुरुष प्रधानता की वजह से सभी विभागों पर पुरुषों का ही दबदबा रहा है. सभी विभागों में सहायक के तौर पर महिलाओं का प्रतिशत पहले की तुलना में अवश्य बढ़ा है, लेकिन उन्हें विभाग संभालने की स्वतंत्र जिम्मेदारी सौंपने में निर्माता और निर्देशक हिचकते हैं. सबसे पहले उन्हें भरोसा नहीं रहता कि महिलाएं नेतृत्व कर सकती हैं. शंका रहती है कि उनके पुरुष सहायक उनका कहा मानेंगे कि नहीं? व्यवहारिक स्तर पर देखा गया है कि महिला अधिकारी के आदेश और निर्देश मानने में पुरुष मातहत बहुत हद तक अड़ियल रुख अख्तियार करते हैं, जबकि महिला सहायकों को पुरुषों का आदेश-निर्देश मानने में कोई दिक्कत नहीं होती.
भारतीय समाज की संरचना ऐसी रही है कि कामकाज में फैसले के अधिकार पुरुषों ने अपने पास रखे हैं. उनका वही रवैया फिल्म इंडस्ट्री में भी नजर आता है. फराह खान, जोया अख्तर और मेघना गुलजार जैसी कुछ महिला निर्देशकों को छोड़ दें तो निर्माता-निर्देशक युवा महिला निर्देशकों पर यकीन नहीं करते कि वे सही समय पर सभी जरूरतों का ख्याल रखते हुए फिल्में पूरी कर लेंगी. इन तीन महिला निर्देशकों के निर्माताओं पर गौर करें तो पाएंगे कि शाह रुख खान, फरहान अख्तर और करण जौहर आदि उनके करीबी समर्थक और पुराने सहयोगी रहे हैं. निर्देशन के क्षेत्र में अभी महिलाओं को चुनौतियों भरा कठिन सफर तय करना है.
पिछले कुछ सालों में अभिनेत्रियों के पारिश्रमिक का मसला उड़ता रहा है. अनेक अभिनेत्रियों ने इस मुद्दे को उठाया है और कुछ ने अपने पारिश्रमिक बढ़वाने में सफलता हासिल की है. ‘ओ वुमनिया’ सर्वेक्षण में फिल्मकार अंजलि मेनन ने सही कहा है कि फिल्म निर्माण और निर्देशन का एक पैटर्न बन चुका है महिला निर्देशकों में निर्माता और निवेशक धन नहीं लगाना चाहते. अभिनेत्रियों के पारिश्रमिक बढ़ाने पर भी यह पूर्वाग्रह उभर कर आता है. फिल्मों की कामयाबी के बाद अभिनेता पारिश्रमिक बढ़ाए तो इसे उसकी सफलता से जोड़ा जाता है. वही कोई अभिनेत्री अपना पारिश्रमिक बढ़ाए तो कहा जाता है कि वह महत्वाकांक्षी हो गई है. उसके साथ काम करना मुश्किल है, क्योंकि वह अधिक पारिश्रमिक की मांग करती हैं. स्थिति यह है कि अगर अभिनेत्री टॉप 3 में हो तो भी उसे टॉप 20 के अभिनेताओं से कम पारिश्रमिक मिलता है. तापसी पन्नू तो स्पष्ट कहती हैं कि इन दिनों लोकप्रिय अभिनेताओं को मिल रहे पारिश्रमिक के बराबर रकम में तो अभिनेत्रियों की मुख्य भूमिका की फिल्में बन जाती हैं.
ओर्मेक्स मीडिया और फिल्म कम्पैनियन के इस सर्वेक्षण और अध्ययन से कई धारणाएं टूटती हैं. फिल्मों में महिलाओं की वस्तुस्थिति और प्रतिनिधित्व का सही आंकड़ा सामने आता है. हजारों करोड़ की फिल्म इंडस्ट्री में फिलहाल महिलाओं की स्थिति चिंतनीय और विचारणीय है. उन्हें बराबर तो दूर उल्लेखनीय परतिनिधित्व भी नहीं मिलता.
दरअसल, दशकों से चली आ रही परंपरा और पुरुष प्रधानता की वजह से सभी विभागों पर पुरुषों का ही दबदबा रहा है. सभी विभागों में सहायक के तौर पर महिलाओं का प्रतिशत पहले की तुलना में अवश्य बढ़ा है, लेकिन उन्हें विभाग संभालने की स्वतंत्र जिम्मेदारी सौंपने में निर्माता और निर्देशक हिचकते हैं. सबसे पहले उन्हें भरोसा नहीं रहता कि महिलाएं नेतृत्व कर सकती हैं. शंका रहती है कि उनके पुरुष सहायक उनका कहा मानेंगे कि नहीं? व्यवहारिक स्तर पर देखा गया है कि महिला अधिकारी के आदेश और निर्देश मानने में पुरुष मातहत बहुत हद तक अड़ियल रुख अख्तियार करते हैं, जबकि महिला सहायकों को पुरुषों का आदेश-निर्देश मानने में कोई दिक्कत नहीं होती.
भारतीय समाज की संरचना ऐसी रही है कि कामकाज में फैसले के अधिकार पुरुषों ने अपने पास रखे हैं. उनका वही रवैया फिल्म इंडस्ट्री में भी नजर आता है. फराह खान, जोया अख्तर और मेघना गुलजार जैसी कुछ महिला निर्देशकों को छोड़ दें तो निर्माता-निर्देशक युवा महिला निर्देशकों पर यकीन नहीं करते कि वे सही समय पर सभी जरूरतों का ख्याल रखते हुए फिल्में पूरी कर लेंगी. इन तीन महिला निर्देशकों के निर्माताओं पर गौर करें तो पाएंगे कि शाह रुख खान, फरहान अख्तर और करण जौहर आदि उनके करीबी समर्थक और पुराने सहयोगी रहे हैं. निर्देशन के क्षेत्र में अभी महिलाओं को चुनौतियों भरा कठिन सफर तय करना है.
पिछले कुछ सालों में अभिनेत्रियों के पारिश्रमिक का मसला उड़ता रहा है. अनेक अभिनेत्रियों ने इस मुद्दे को उठाया है और कुछ ने अपने पारिश्रमिक बढ़वाने में सफलता हासिल की है. ‘ओ वुमनिया’ सर्वेक्षण में फिल्मकार अंजलि मेनन ने सही कहा है कि फिल्म निर्माण और निर्देशन का एक पैटर्न बन चुका है महिला निर्देशकों में निर्माता और निवेशक धन नहीं लगाना चाहते. अभिनेत्रियों के पारिश्रमिक बढ़ाने पर भी यह पूर्वाग्रह उभर कर आता है. फिल्मों की कामयाबी के बाद अभिनेता पारिश्रमिक बढ़ाए तो इसे उसकी सफलता से जोड़ा जाता है. वही कोई अभिनेत्री अपना पारिश्रमिक बढ़ाए तो कहा जाता है कि वह महत्वाकांक्षी हो गई है. उसके साथ काम करना मुश्किल है, क्योंकि वह अधिक पारिश्रमिक की मांग करती हैं. स्थिति यह है कि अगर अभिनेत्री टॉप 3 में हो तो भी उसे टॉप 20 के अभिनेताओं से कम पारिश्रमिक मिलता है. तापसी पन्नू तो स्पष्ट कहती हैं कि इन दिनों लोकप्रिय अभिनेताओं को मिल रहे पारिश्रमिक के बराबर रकम में तो अभिनेत्रियों की मुख्य भूमिका की फिल्में बन जाती हैं.
ओर्मेक्स मीडिया और फिल्म कम्पैनियन के इस सर्वेक्षण और अध्ययन से कई धारणाएं टूटती हैं. फिल्मों में महिलाओं की वस्तुस्थिति और प्रतिनिधित्व का सही आंकड़ा सामने आता है. हजारों करोड़ की फिल्म इंडस्ट्री में फिलहाल महिलाओं की स्थिति चिंतनीय और विचारणीय है. उन्हें बराबर तो दूर उल्लेखनीय परतिनिधित्व भी नहीं मिलता.
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