मनसुख हिरेन की मौत के ऊपर क्राइम ब्रांच से हटाए जाने के बाद भी, वाझे के ऊपर 2003 में हिरासत में हुई एक मृत्यु का मुकदमा अभी भी चल रहा है.
वाझे ने अपने को दोबारा से बहाल करने की कई अपीलों के खारिज होने के बाद नवंबर 2007 में पुलिस बल से इस्तीफा दे दिया. 2008 में उन्होंने शिवसेना की सदस्यता ली और 2020 में अपनी दोबारा बहाली होने से पहले तक वह शिवसेना के एक निष्क्रिय सदस्य ही रहे. लेकिन टाइम्स नाउ के अनुसार मुख्यमंत्री ने कहा कि वाझे शिवसेना के सदस्य 2008 तक ही थे और उसके बाद उन्होंने अपनी सदस्यता का नवीनीकरण नहीं किया.
मुंबई पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह की अध्यक्षता में बनी एक समीक्षा कमेटी से मिली मंजूरी के बाद 6 जून 2020 को, यूनुस की हत्या के करीब 17 साल बाद, वाझे, तिवारी, देसाई और निकम को पुलिस में दोबारा बहाल कर दिया गया. मुंबई के ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर नवल बजाज के द्वारा मुंबई उच्च न्यायालय में दाखिल शपथ पत्र में बताया गया कि यह फैसला कोविड महामारी में पुलिस बल की कमी को देखते हुए लिया गया.
शपथ पत्र के अनुसार, "इन चारों पुलिसकर्मियों को विशिष्ट परिस्थितियां के चलते दोबारा नौकरी शुरू करने के लिए कहा गया है."
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, आसिया बेगम उच्च न्यायालय गईं और उन्होंने 2004 में अदालत के चारों पुलिसकर्मियों को निलंबित करने और उनकी जांच करने के आदेश के हवाले से, पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह और दूसरे अधिकारियों पर अदालत की अवमानना का मामला चलाने की मांग की. मुंबई पुलिस ने इसके उत्तर में अदालत से कहा कि अदालत के आदेश में दोबारा बहाली को लेकर कोई बात नहीं कही गई थी.
इस प्रकार वाझे, देसाई और तिवारी पुलिस की स्थानीय सशस्त्र यूनिट में बहाल हुए और निगम की बहाली मोटर गाड़ी विभाग में हुई. एक हफ्ते बाद सचिन वाझे को क्राइम इंटेलिजेंस टुकड़ी में भेज दिया गया. यहां पर उन्हें कई उच्च स्तरीय मामले सौंपे गए जिनमें टीआर पर घोटाले की जांच और इंटीरियर डिजाइनर अन्वय नायक की मृत्यु की जांच भी शामिल थी. नायक की मृत्यु के बाद अर्णब गोस्वामी को उनके घर से गिरफ्तार करने गई टुकड़ी का नेतृत्व भी वाझे ही कर रहे थे.
वाझे की पुलिस में नौकरी कई पड़ाव से गुजरी है. 1990 में वह महाराष्ट्र पुलिस के सदस्य बने और 1992 में थाने स्थानांतरण होने से पहले वह गडचिरोली में कार्यरत थे. जल्दी ही वह मुंबई पुलिस के कुख्यात "एनकाउंटर टुकड़ी" के सदस्य बन गए.
न्याय नहीं हुआ है
आसिया, जो अब परभणी में रहती हैं, ने न्यूजलॉन्ड्री को बताया कि वाझे की दोबारा बहाली एक "अन्याय" था.
वे कहती हैं, "सचिन वाझे मेरे बेटे का कातिल है, और उन्होंने उसे दोबारा बहाल ही नहीं किया बल्कि तरक्की भी दी. उसके और औरों के खिलाफ अदालत में मामला अभी चल रहा है. अगर उसने सरकार में से किसी के बेटे की हत्या की होती तब भी क्या उसे ऐसे ही बहाल कर दिया जाता?"
वे आगे कहती हैं, "18 साल हो गए हमें अपने बेटे के लिए न्याय की लड़ाई लड़ते हुए लेकिन सरकार उसके बजाय मेरे बेटे के कातिलों पर ही एहसान कर रही है. हमने अपनी चीजें बेचकर केस लड़ने के लिए लोन लिए पर फिर भी हमें अभी तक न्याय नहीं दिया गया."
आसिया मानती हैं कि सरकार ने वाझे की बहाली "अपने प्रतिद्वंद्वियों से हिसाब बराबर करने के लिए की." वे उन 17 लोगों की बात भी करती हैं जिन्हें यूनुस के साथ बम विस्फोट के मामले में गिरफ्तार किया गया था. फर्स्टपोस्ट की एक रिपोर्ट कहती है कि उसके बाद से, इनमें से 9 लोगों को कोई सबूत न मिलने की वजह से छोड़ा गया और 8 को बरी कर दिया गया है. आसिया कहती हैं, "उसके साथ जो और लड़के गिरफ्तार किए गए थे अब जिंदगी अच्छे से जी रहे हैं. अगर मेरा बेटा जिंदा होता तो वह भी अच्छे से जिंदगी बिता रहा होता."
आशिया अब 75 साल की हो चुकी हैं. उनका कहना है कि वह अपने बेटे के लिए मरते दम तक लड़ती रहेंगी.
वे कहती हैं, "मैं उसके लिए न्याय पाने के लिए उच्चतम न्यायालय भी जाऊंगी. मैंने अपने बेटे के बारे में अखबार में छपे लेखों को इकट्ठा किया है. एक दिन अखबार की वह कटिंग भी होगी जिसमें उसके हत्यारों को सजा मिलने की बात छपी होगी."
यूनुस के भाई हुसैन न्यूजलॉन्ड्री से कहते हैं कि उनकी मां आसिया, अदालत में होने वाली हर सुनवाई में कई बीमारियों से ग्रस्त होने के बावजूद भी जाती हैं. वे बताते हैं, "उन्हें उम्मीद है कि एक दिन हमें न्याय जरूर मिलेगा. मेरे पिता दुख से गुजर गए लेकिन उन्होंने भी लड़ाई इस उम्मीद से लड़ी कि हमें न्याय मिलेगा. हमें अभी भी न्यायपालिका पर भरोसा है लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने जो किया वह आश्चर्यचकित करने वाला था."
न्यूजलॉन्ड्री ने परमबीर सिंह और अनिल देशमुख से उनके वक्तव्य पाने के लिए संपर्क किया. उनकी तरफ से कोई भी जवाब आने पर इस रिपोर्ट में जोड़ दिया जाएगा.
वाझे ने अपने को दोबारा से बहाल करने की कई अपीलों के खारिज होने के बाद नवंबर 2007 में पुलिस बल से इस्तीफा दे दिया. 2008 में उन्होंने शिवसेना की सदस्यता ली और 2020 में अपनी दोबारा बहाली होने से पहले तक वह शिवसेना के एक निष्क्रिय सदस्य ही रहे. लेकिन टाइम्स नाउ के अनुसार मुख्यमंत्री ने कहा कि वाझे शिवसेना के सदस्य 2008 तक ही थे और उसके बाद उन्होंने अपनी सदस्यता का नवीनीकरण नहीं किया.
मुंबई पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह की अध्यक्षता में बनी एक समीक्षा कमेटी से मिली मंजूरी के बाद 6 जून 2020 को, यूनुस की हत्या के करीब 17 साल बाद, वाझे, तिवारी, देसाई और निकम को पुलिस में दोबारा बहाल कर दिया गया. मुंबई के ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर नवल बजाज के द्वारा मुंबई उच्च न्यायालय में दाखिल शपथ पत्र में बताया गया कि यह फैसला कोविड महामारी में पुलिस बल की कमी को देखते हुए लिया गया.
शपथ पत्र के अनुसार, "इन चारों पुलिसकर्मियों को विशिष्ट परिस्थितियां के चलते दोबारा नौकरी शुरू करने के लिए कहा गया है."
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, आसिया बेगम उच्च न्यायालय गईं और उन्होंने 2004 में अदालत के चारों पुलिसकर्मियों को निलंबित करने और उनकी जांच करने के आदेश के हवाले से, पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह और दूसरे अधिकारियों पर अदालत की अवमानना का मामला चलाने की मांग की. मुंबई पुलिस ने इसके उत्तर में अदालत से कहा कि अदालत के आदेश में दोबारा बहाली को लेकर कोई बात नहीं कही गई थी.
इस प्रकार वाझे, देसाई और तिवारी पुलिस की स्थानीय सशस्त्र यूनिट में बहाल हुए और निगम की बहाली मोटर गाड़ी विभाग में हुई. एक हफ्ते बाद सचिन वाझे को क्राइम इंटेलिजेंस टुकड़ी में भेज दिया गया. यहां पर उन्हें कई उच्च स्तरीय मामले सौंपे गए जिनमें टीआर पर घोटाले की जांच और इंटीरियर डिजाइनर अन्वय नायक की मृत्यु की जांच भी शामिल थी. नायक की मृत्यु के बाद अर्णब गोस्वामी को उनके घर से गिरफ्तार करने गई टुकड़ी का नेतृत्व भी वाझे ही कर रहे थे.
वाझे की पुलिस में नौकरी कई पड़ाव से गुजरी है. 1990 में वह महाराष्ट्र पुलिस के सदस्य बने और 1992 में थाने स्थानांतरण होने से पहले वह गडचिरोली में कार्यरत थे. जल्दी ही वह मुंबई पुलिस के कुख्यात "एनकाउंटर टुकड़ी" के सदस्य बन गए.
न्याय नहीं हुआ है
आसिया, जो अब परभणी में रहती हैं, ने न्यूजलॉन्ड्री को बताया कि वाझे की दोबारा बहाली एक "अन्याय" था.
वे कहती हैं, "सचिन वाझे मेरे बेटे का कातिल है, और उन्होंने उसे दोबारा बहाल ही नहीं किया बल्कि तरक्की भी दी. उसके और औरों के खिलाफ अदालत में मामला अभी चल रहा है. अगर उसने सरकार में से किसी के बेटे की हत्या की होती तब भी क्या उसे ऐसे ही बहाल कर दिया जाता?"
वे आगे कहती हैं, "18 साल हो गए हमें अपने बेटे के लिए न्याय की लड़ाई लड़ते हुए लेकिन सरकार उसके बजाय मेरे बेटे के कातिलों पर ही एहसान कर रही है. हमने अपनी चीजें बेचकर केस लड़ने के लिए लोन लिए पर फिर भी हमें अभी तक न्याय नहीं दिया गया."
आसिया मानती हैं कि सरकार ने वाझे की बहाली "अपने प्रतिद्वंद्वियों से हिसाब बराबर करने के लिए की." वे उन 17 लोगों की बात भी करती हैं जिन्हें यूनुस के साथ बम विस्फोट के मामले में गिरफ्तार किया गया था. फर्स्टपोस्ट की एक रिपोर्ट कहती है कि उसके बाद से, इनमें से 9 लोगों को कोई सबूत न मिलने की वजह से छोड़ा गया और 8 को बरी कर दिया गया है. आसिया कहती हैं, "उसके साथ जो और लड़के गिरफ्तार किए गए थे अब जिंदगी अच्छे से जी रहे हैं. अगर मेरा बेटा जिंदा होता तो वह भी अच्छे से जिंदगी बिता रहा होता."
आशिया अब 75 साल की हो चुकी हैं. उनका कहना है कि वह अपने बेटे के लिए मरते दम तक लड़ती रहेंगी.
वे कहती हैं, "मैं उसके लिए न्याय पाने के लिए उच्चतम न्यायालय भी जाऊंगी. मैंने अपने बेटे के बारे में अखबार में छपे लेखों को इकट्ठा किया है. एक दिन अखबार की वह कटिंग भी होगी जिसमें उसके हत्यारों को सजा मिलने की बात छपी होगी."
यूनुस के भाई हुसैन न्यूजलॉन्ड्री से कहते हैं कि उनकी मां आसिया, अदालत में होने वाली हर सुनवाई में कई बीमारियों से ग्रस्त होने के बावजूद भी जाती हैं. वे बताते हैं, "उन्हें उम्मीद है कि एक दिन हमें न्याय जरूर मिलेगा. मेरे पिता दुख से गुजर गए लेकिन उन्होंने भी लड़ाई इस उम्मीद से लड़ी कि हमें न्याय मिलेगा. हमें अभी भी न्यायपालिका पर भरोसा है लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने जो किया वह आश्चर्यचकित करने वाला था."
न्यूजलॉन्ड्री ने परमबीर सिंह और अनिल देशमुख से उनके वक्तव्य पाने के लिए संपर्क किया. उनकी तरफ से कोई भी जवाब आने पर इस रिपोर्ट में जोड़ दिया जाएगा.