अब तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि इस तबाही के पीछे का कारण क्या था. क्या ग्लेशियर पिघला था? या फिर बेमौसम बर्फबारी जिम्मेदार थी? या फिर दोनों साथ-साथ?
जलविद्युत संयंत्रों के निर्माण में हर प्रकार के लोगों ने रुचि दिखाई. ऊर्जा उद्योग और निर्माण से लेकर नेताओं तक ने इन संयंत्रों को अपने क्षेत्र के विकास अवसरों के तौर पर देखा. लेकिन अब जब परियोजनाओं की सूची सबके सामने थी (जिनमें से 6,000 मेगावाट से अधिक का निर्माण बाकी था) तब सवाल यह उठा कि इसे उचित कैसे ठहराया जाए. मैंने कहा कि परियोजनाओं को दोबारा डिजाइन किए जाने की आवश्यकता थी ताकि नदी का पारिस्थितिक प्रवाह अधिक पानी वाले मौसम का 30 प्रतिशत और कम पानी वाले मौसम का 50 प्रतिशत हो. मेरा तर्क यह था कि परियोजनाओं को नदी के प्रवाह की नकल करनी चाहिए थी न कि इसके उलट.
मैंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर की गई व्यापक गणनाओं के आधार पर यह दिखाया कि दोबारा डिजाइन किए जाने पर भी परियोजनाओं की उत्पादन क्षमता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा. लेकिन इसका मतलब था कि हमें परियोजनाओं की संख्या में भारी कटौती करने की आवश्यकता होगी. यह स्वीकार्य नहीं था. मैंने तब लिखा था कि कैसे रुड़की स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के जलविद्युत शोधकर्ताओं ने 8 महीने के लिए पारिस्थितिक प्रभाव के 25 प्रतिशत और कम प्रवाह वाले मौसम में 30 प्रतिशत तक के बहाव को सही ठहराया था. ये परियोजनाएं मिलकर गंगा को सुखा देंगी और हमारे राष्ट्र की सामूहिक चेतना की प्रतीक यह नदी एक कृत्रिम नाले में तब्दील होकर रह जाएगी. किसी को इससे कोई समस्या नहीं थी.
मेरी असहमति नोट कर ली गई और साथ ही साथ रिपोर्ट को भी मंजूरी मिल गई, जैसा हमेशा होता है. 2013 के बाद से गंगा में बहुत पानी बह चुका है और अदालतों से लेकर सरकारों तक ने इन परियोजनाओं पर लगाम लगाने की बात की है. लेकिन इन बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद जमीनी स्तर पर आज तक कुछ नहीं किया गया है. वर्तमान में इस नाजुक क्षेत्र में 7,000 मेगावाट की परियोजनाएं या तो संचालित हो रही हैं या निर्माणाधीन हैं.
ये नदी के प्राकृतिक प्रवाह को ध्यान में रखे बिना एक के बाद एक लगातार बनाई जा रही हैं. असली मुद्दा जल विद्युत उत्पादन, ऊर्जा अथवा विकास की आवश्यकता नहीं है. असली मुद्दा है इस नाजुक क्षेत्र की वहन क्षमता जो जलवायु परिवर्तन के कारण और भी अधिक दबाव में है. इस परिस्थिति का आकलन किए जाने की आवश्यकता है लेकिन उसके लिए हमें नदी को पहले और अपनी आवश्यकताओं को बाद में रखने की जरूरत है. अगर ऐसा न हुआ तो नदी हमें इसी तरह कड़वे सबक सिखाती रहेगी. हम प्रकृति के प्रतिशोध एवं कोप के भागी बनेंगे और तब मानवता को अपनी तुच्छता का असली अहसास होगा.
(साभार- डाउन टू अर्थ)
जलविद्युत संयंत्रों के निर्माण में हर प्रकार के लोगों ने रुचि दिखाई. ऊर्जा उद्योग और निर्माण से लेकर नेताओं तक ने इन संयंत्रों को अपने क्षेत्र के विकास अवसरों के तौर पर देखा. लेकिन अब जब परियोजनाओं की सूची सबके सामने थी (जिनमें से 6,000 मेगावाट से अधिक का निर्माण बाकी था) तब सवाल यह उठा कि इसे उचित कैसे ठहराया जाए. मैंने कहा कि परियोजनाओं को दोबारा डिजाइन किए जाने की आवश्यकता थी ताकि नदी का पारिस्थितिक प्रवाह अधिक पानी वाले मौसम का 30 प्रतिशत और कम पानी वाले मौसम का 50 प्रतिशत हो. मेरा तर्क यह था कि परियोजनाओं को नदी के प्रवाह की नकल करनी चाहिए थी न कि इसके उलट.
मैंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर की गई व्यापक गणनाओं के आधार पर यह दिखाया कि दोबारा डिजाइन किए जाने पर भी परियोजनाओं की उत्पादन क्षमता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा. लेकिन इसका मतलब था कि हमें परियोजनाओं की संख्या में भारी कटौती करने की आवश्यकता होगी. यह स्वीकार्य नहीं था. मैंने तब लिखा था कि कैसे रुड़की स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के जलविद्युत शोधकर्ताओं ने 8 महीने के लिए पारिस्थितिक प्रभाव के 25 प्रतिशत और कम प्रवाह वाले मौसम में 30 प्रतिशत तक के बहाव को सही ठहराया था. ये परियोजनाएं मिलकर गंगा को सुखा देंगी और हमारे राष्ट्र की सामूहिक चेतना की प्रतीक यह नदी एक कृत्रिम नाले में तब्दील होकर रह जाएगी. किसी को इससे कोई समस्या नहीं थी.
मेरी असहमति नोट कर ली गई और साथ ही साथ रिपोर्ट को भी मंजूरी मिल गई, जैसा हमेशा होता है. 2013 के बाद से गंगा में बहुत पानी बह चुका है और अदालतों से लेकर सरकारों तक ने इन परियोजनाओं पर लगाम लगाने की बात की है. लेकिन इन बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद जमीनी स्तर पर आज तक कुछ नहीं किया गया है. वर्तमान में इस नाजुक क्षेत्र में 7,000 मेगावाट की परियोजनाएं या तो संचालित हो रही हैं या निर्माणाधीन हैं.
ये नदी के प्राकृतिक प्रवाह को ध्यान में रखे बिना एक के बाद एक लगातार बनाई जा रही हैं. असली मुद्दा जल विद्युत उत्पादन, ऊर्जा अथवा विकास की आवश्यकता नहीं है. असली मुद्दा है इस नाजुक क्षेत्र की वहन क्षमता जो जलवायु परिवर्तन के कारण और भी अधिक दबाव में है. इस परिस्थिति का आकलन किए जाने की आवश्यकता है लेकिन उसके लिए हमें नदी को पहले और अपनी आवश्यकताओं को बाद में रखने की जरूरत है. अगर ऐसा न हुआ तो नदी हमें इसी तरह कड़वे सबक सिखाती रहेगी. हम प्रकृति के प्रतिशोध एवं कोप के भागी बनेंगे और तब मानवता को अपनी तुच्छता का असली अहसास होगा.
(साभार- डाउन टू अर्थ)