जनता की भाषा में जनता की कहानी कहती ‘ऑफ द स्क्रीन’

लेखक ने अपनी किताब में कई घटनाओं का जिक्र करते हुए टीवी रिपोर्टिंग की कहानियों को बताने की कोशिश की है.

WrittenBy:अवधेश कुमार
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किताब ऑफ द स्क्रीन में शुरू से ही एक रिपोर्टर के संघर्ष को दिखाया गया है. इस किताब में उन्होंने 75 कहानियां लिखी हैं, जो कि बहुत ही सरल और आसानी से समझ में आने वाली भाषा में लिखी गईं हैं. इन किस्सों को पढ़कर आपको समझ आएगा कि एक रिपोर्टर की जिंदगी कैसी होती है. रिपोर्टर के लिए ना दिन दिन है ना रात रात. यहां छुट्टी वाले दिन भी बुला लिया जाता है. कई दिन तक लगातार काम करने के बाद भी आपको फिर से कोई स्टोरी पकड़ा दी जाती है. यहां तक की आपकी सलामती की खबर भी परिवार को टीवी के माध्यम से ही पता चलती है.

ब्रजेश ने कहानियों के माध्यम से टीवी रिपोर्टिंग के पीछे की असली कहानियों को बयां किया है. जैसे किसी हादसे के पीछे रिपोर्टर की तैयारी. उत्तराखंड की बाढ, एक आईपीएस की कहानी, ट्रेन हादसे की खबर, किसान आंदोलन जैसी चुनावी कवरेज की कहानियां वास्तविकता को दिखाती हैं.

ब्रजेश ने बिना तामझाम या भाषायी आडंबर के इस किताब के जरिए सच्चाई को पन्नों पर उतारा है. इन पन्नों को पढ़ने में ज्यादा वक्त भी नहीं लगेगा. अगर आप पढ़ने बैठें तो यह नहीं है कि ज्यादातर किताबों की तरह कहानी चलती ही रहती है. यहां हर चार से सात मिनट में कहानी कंपलीट हो रही है. उन्होंने बताने की कोशिश की है कि एक रिपोर्टर कैसे काम करता है. कैसे वह अपनी जान जोखिम में डालकर घर पर आराम फरमा रहे लोगों के लिए रिपोर्टिंग करता है.

इन कहानियों में देखने को मिलता है कि रिपोर्टर और नेताओं के बीच की दोस्ती कितनी अच्छी है. बड़े-बड़े नेताओं के फोन में ब्रिजेश का नंबर सेव है जो यूं ही कभी भी फोन उठा लेते हैं. तो कई बार नेता खुद ही फोन करके जानकारी दे देते हैं. मुख्यमंत्री भी हंसकर बात करते हैं और चाय पीने को कहते हैं. उत्तराखंड में आई बाढ़ की कहानी में एक विधायक खुद ही ब्रजेश को फोन कर कहते हैं कि हेलिकॉप्टर भोपाल में खड़ा है, थोड़ी देर में उड़ान भरेगा आपको चलना है तो आइए. वहीं एक अन्य कहानी में पुलिस के एक बड़े अधिकारी ब्रजेश को सुबह साढ़े चार बजे फोन कर खबर बता रहे हैं. ये बताता है कि एक पत्रकार के राजनेताओं और अधिकारियों के साथ कितने मधुर संबंध हैं. कहानियों में ऐसा बिल्कुल भी देखने को नहीं मिलता है कि कहीं भी उन्हें रिपोर्टर का डर है या फिर उनके किसी गलत काम को रिपोर्टर द्वारा चुनौती दी जा रही हो. जैसे- भ्रष्टाचार, आपराध, राज्य की स्वास्थ्य सेवाएं या फिर कोई ऐसा सवाल जिसमें कोई नेता या अधिकारी इनकी रिपोर्ट के चलते फंसता नजर आया हो. यहां सबकुछ बहुत कूल है.

हालांकि ब्रजेश अपनी आखिरी कहानी में खुद कहते हैं कि पत्रकारिता का एक सिद्धांत है कि जितना आप न्यूज सोर्स के करीब रहेंगे, उतनी सही और सटीक आपकी रिपोर्टिंग होगी.

ब्रजेश राजपूत ने डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर से बीएससी करने के बाद एमए की पढ़ाई की. वह टीवी न्यूज चैनल्स के कंटेंट एनालिसिस पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल से पीएचडी भी कर चुके हैं. वह लंबे समय से पत्रकारिता कर रहे हैं अभी वह एबीपी न्यूज भोपाल में वरिष्ठ विशेष संवाददाता हैं.

किताब ऑफ द स्क्रीन में शुरू से ही एक रिपोर्टर के संघर्ष को दिखाया गया है. इस किताब में उन्होंने 75 कहानियां लिखी हैं, जो कि बहुत ही सरल और आसानी से समझ में आने वाली भाषा में लिखी गईं हैं. इन किस्सों को पढ़कर आपको समझ आएगा कि एक रिपोर्टर की जिंदगी कैसी होती है. रिपोर्टर के लिए ना दिन दिन है ना रात रात. यहां छुट्टी वाले दिन भी बुला लिया जाता है. कई दिन तक लगातार काम करने के बाद भी आपको फिर से कोई स्टोरी पकड़ा दी जाती है. यहां तक की आपकी सलामती की खबर भी परिवार को टीवी के माध्यम से ही पता चलती है.

ब्रजेश ने कहानियों के माध्यम से टीवी रिपोर्टिंग के पीछे की असली कहानियों को बयां किया है. जैसे किसी हादसे के पीछे रिपोर्टर की तैयारी. उत्तराखंड की बाढ, एक आईपीएस की कहानी, ट्रेन हादसे की खबर, किसान आंदोलन जैसी चुनावी कवरेज की कहानियां वास्तविकता को दिखाती हैं.

ब्रजेश ने बिना तामझाम या भाषायी आडंबर के इस किताब के जरिए सच्चाई को पन्नों पर उतारा है. इन पन्नों को पढ़ने में ज्यादा वक्त भी नहीं लगेगा. अगर आप पढ़ने बैठें तो यह नहीं है कि ज्यादातर किताबों की तरह कहानी चलती ही रहती है. यहां हर चार से सात मिनट में कहानी कंपलीट हो रही है. उन्होंने बताने की कोशिश की है कि एक रिपोर्टर कैसे काम करता है. कैसे वह अपनी जान जोखिम में डालकर घर पर आराम फरमा रहे लोगों के लिए रिपोर्टिंग करता है.

इन कहानियों में देखने को मिलता है कि रिपोर्टर और नेताओं के बीच की दोस्ती कितनी अच्छी है. बड़े-बड़े नेताओं के फोन में ब्रिजेश का नंबर सेव है जो यूं ही कभी भी फोन उठा लेते हैं. तो कई बार नेता खुद ही फोन करके जानकारी दे देते हैं. मुख्यमंत्री भी हंसकर बात करते हैं और चाय पीने को कहते हैं. उत्तराखंड में आई बाढ़ की कहानी में एक विधायक खुद ही ब्रजेश को फोन कर कहते हैं कि हेलिकॉप्टर भोपाल में खड़ा है, थोड़ी देर में उड़ान भरेगा आपको चलना है तो आइए. वहीं एक अन्य कहानी में पुलिस के एक बड़े अधिकारी ब्रजेश को सुबह साढ़े चार बजे फोन कर खबर बता रहे हैं. ये बताता है कि एक पत्रकार के राजनेताओं और अधिकारियों के साथ कितने मधुर संबंध हैं. कहानियों में ऐसा बिल्कुल भी देखने को नहीं मिलता है कि कहीं भी उन्हें रिपोर्टर का डर है या फिर उनके किसी गलत काम को रिपोर्टर द्वारा चुनौती दी जा रही हो. जैसे- भ्रष्टाचार, आपराध, राज्य की स्वास्थ्य सेवाएं या फिर कोई ऐसा सवाल जिसमें कोई नेता या अधिकारी इनकी रिपोर्ट के चलते फंसता नजर आया हो. यहां सबकुछ बहुत कूल है.

हालांकि ब्रजेश अपनी आखिरी कहानी में खुद कहते हैं कि पत्रकारिता का एक सिद्धांत है कि जितना आप न्यूज सोर्स के करीब रहेंगे, उतनी सही और सटीक आपकी रिपोर्टिंग होगी.

ब्रजेश राजपूत ने डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर से बीएससी करने के बाद एमए की पढ़ाई की. वह टीवी न्यूज चैनल्स के कंटेंट एनालिसिस पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल से पीएचडी भी कर चुके हैं. वह लंबे समय से पत्रकारिता कर रहे हैं अभी वह एबीपी न्यूज भोपाल में वरिष्ठ विशेष संवाददाता हैं.

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