शांत जीवन के आम अवसाद अधिकतर इन हिंसा की घटनाओं के पीछे होते हैं.
राष्ट्रीय मीडिया के राजनैतिक कारणों या उद्देश्यों से जुड़ी हिंसा को ज्यादा महत्व देने का एक परिणाम यह भी है कि वो दूसरे प्रकार के अपराधों को नजरअंदाज कर देता है. इसका हाल ही में सबसे अच्छा उदाहरण भीड़ द्वारा की गई सामूहिक हत्याओं के आसपास बुना परिवेश है जो इस तरह की हत्याओं के पीछे केवल सांप्रदायिक मुद्दों की बात करता है. जबकि भारत में भीड़ के द्वारा की गई इस प्रकार की हत्याओं के पीछे तुरंत न्याय और बदले की भावना जैसे कई कारण कहीं ज्यादा होते हैं, जो अपने आप को घटनाओं में अलग-अलग तरह से प्रदर्शित करते हैं.
उदाहरण के तौर पर बिहार पुलिस के द्वारा 2019 में पंजीकृत की गई इस प्रकार के सामूहिक हत्याओं को देखें. मैंने उस समय लिखा था-
"केवल ढाई महीने में 39 सामूहिक हिंसा की घटनाएं हुईं जिनमें 14 लोग मारे गए. इन घटनाओं के पीछे का सबसे आम कारण बच्चा चोरी था. मीडिया के कुछ धड़ों के द्वारा ऐसी ही एक घटना को सांप्रदायिक जामा पहनाने का प्रयास औंधे मुंह गिरा, जब यह दिखाकर इन घटनाओं में पीड़ित लोग समाज के सभी हिस्सों से आते थे. इस सब ने बिहार पुलिस को बच्चा चोरी और उससे होने वाली हिंसा के प्रति एक संवेदनशील अभियान चलाने के लिए प्रेरित किया. जिलाधिकारी और पुलिस अधिकारियों के द्वारा लाउडस्पीकर से, पोस्टर और होर्डिंग लगाकर, सोशल मीडिया पर अभियान चलाकर और शिविर लगाकर जनता को इस प्रकार की अफवाहों को फैलाने और विश्वास करने के खतरों के बारे में जागरूक करने के प्रयास किए गए."
यह साफ है कि इन अफवाहों की "भयावह सच्चाई", जिसे हम अब फेक न्यूज़ कहते हैं, के कई शिविर हैं. यहां तक की बागपत जिले के बड़ौत में हुई हिंसा में शामिल अधेड़ उम्र के दुकानदार की भी शिकायत यही थी कि उसके प्रतियोगी अफवाह उड़ा रहे थे कि उसकी चाट बासी है.
इसका एक पहलू यह भी है कि भले ही झगड़ा करने वाले चाट विक्रेताओं की प्रसिद्धि और बिक्री के बारे में हमें ज्यादा न पता हो, लेकिन ग्राहकों को आकर्षित करने के पीछे का विचलित एकाकीपन भी इस घटना से परिभाषित होता है. भारत में सड़कों पर सम्मान और सेवाएं बेचने वाले की ऊर्जा और अवसाद से भरे चेहरे आम हैं, जो कई बार अति उत्साहित भी हो जाया करते हैं. एक खाली बैठे दुकानदार को सड़क की तरफ ताकते देखने या अपने सामान या काम की न होने वाली बिक्री पर हथियार डाल देने से ज्यादा उदासी भरे दृश्य शायद ही देखने को मिलें.
यह आमतौर पर भदवासी में भी एक प्रक्रिया बना लेने के रूप में परिभाषित होता है, जैसे कि सवारियों के लिए चलने वाले ऑटो रिक्शा भारतीय शहरों में खुद ही लाइन लगाने लगते हैं. लेकिन इस प्रकार के सामाजिक अनकहे अनुबंध अपने साथ कई प्रकार के झगड़े साथ लाते हैं. इस प्रकार के झगड़ों के पीछे आम सहमति को न मानना, कहे अनकहे नियमों का उल्लंघन करना या उन्हें ताक पर रख देने की शिकायतें होती हैं. सभी लोग एक साथ काम करके अपनी महत्ता बनाए रखें, इसके लिए बन जाने वाले यह कहे अनकहे नियम, एक व्यक्ति के अंदर कम आमदनी या लाइन में लगने की वजह से होने वाली देरी और उससे होने वाला आभासी नुकसान के डर को खत्म नहीं कर सकती, जिसकी वजह से लोग इनका उल्लंघन करते हैं.
कई अर्थों में, बड़ौत में हुआ झगड़ा अपने पीछे के साधारण कारणों और सड़क पर होने वाले झगड़ों की छाप ही दिखाता है. भले ही इस घटना के पीछे रोचक या हास्यास्पद किरदार हों जिसकी वजह से यह सब के मज़े और आनंद का स्रोत बन गया, लेकिन इससे हमें यह भी पता चलता है कि सड़क पर सामान बेचने वालों के मन में छुपा अवसाद और ग्राहक ढूंढने के लिए होने वाले गंभीर इलाकाई झगड़े भी हमारे समाज की सच्चाई हैं.
राष्ट्रीय मीडिया के राजनैतिक कारणों या उद्देश्यों से जुड़ी हिंसा को ज्यादा महत्व देने का एक परिणाम यह भी है कि वो दूसरे प्रकार के अपराधों को नजरअंदाज कर देता है. इसका हाल ही में सबसे अच्छा उदाहरण भीड़ द्वारा की गई सामूहिक हत्याओं के आसपास बुना परिवेश है जो इस तरह की हत्याओं के पीछे केवल सांप्रदायिक मुद्दों की बात करता है. जबकि भारत में भीड़ के द्वारा की गई इस प्रकार की हत्याओं के पीछे तुरंत न्याय और बदले की भावना जैसे कई कारण कहीं ज्यादा होते हैं, जो अपने आप को घटनाओं में अलग-अलग तरह से प्रदर्शित करते हैं.
उदाहरण के तौर पर बिहार पुलिस के द्वारा 2019 में पंजीकृत की गई इस प्रकार के सामूहिक हत्याओं को देखें. मैंने उस समय लिखा था-
"केवल ढाई महीने में 39 सामूहिक हिंसा की घटनाएं हुईं जिनमें 14 लोग मारे गए. इन घटनाओं के पीछे का सबसे आम कारण बच्चा चोरी था. मीडिया के कुछ धड़ों के द्वारा ऐसी ही एक घटना को सांप्रदायिक जामा पहनाने का प्रयास औंधे मुंह गिरा, जब यह दिखाकर इन घटनाओं में पीड़ित लोग समाज के सभी हिस्सों से आते थे. इस सब ने बिहार पुलिस को बच्चा चोरी और उससे होने वाली हिंसा के प्रति एक संवेदनशील अभियान चलाने के लिए प्रेरित किया. जिलाधिकारी और पुलिस अधिकारियों के द्वारा लाउडस्पीकर से, पोस्टर और होर्डिंग लगाकर, सोशल मीडिया पर अभियान चलाकर और शिविर लगाकर जनता को इस प्रकार की अफवाहों को फैलाने और विश्वास करने के खतरों के बारे में जागरूक करने के प्रयास किए गए."
यह साफ है कि इन अफवाहों की "भयावह सच्चाई", जिसे हम अब फेक न्यूज़ कहते हैं, के कई शिविर हैं. यहां तक की बागपत जिले के बड़ौत में हुई हिंसा में शामिल अधेड़ उम्र के दुकानदार की भी शिकायत यही थी कि उसके प्रतियोगी अफवाह उड़ा रहे थे कि उसकी चाट बासी है.
इसका एक पहलू यह भी है कि भले ही झगड़ा करने वाले चाट विक्रेताओं की प्रसिद्धि और बिक्री के बारे में हमें ज्यादा न पता हो, लेकिन ग्राहकों को आकर्षित करने के पीछे का विचलित एकाकीपन भी इस घटना से परिभाषित होता है. भारत में सड़कों पर सम्मान और सेवाएं बेचने वाले की ऊर्जा और अवसाद से भरे चेहरे आम हैं, जो कई बार अति उत्साहित भी हो जाया करते हैं. एक खाली बैठे दुकानदार को सड़क की तरफ ताकते देखने या अपने सामान या काम की न होने वाली बिक्री पर हथियार डाल देने से ज्यादा उदासी भरे दृश्य शायद ही देखने को मिलें.
यह आमतौर पर भदवासी में भी एक प्रक्रिया बना लेने के रूप में परिभाषित होता है, जैसे कि सवारियों के लिए चलने वाले ऑटो रिक्शा भारतीय शहरों में खुद ही लाइन लगाने लगते हैं. लेकिन इस प्रकार के सामाजिक अनकहे अनुबंध अपने साथ कई प्रकार के झगड़े साथ लाते हैं. इस प्रकार के झगड़ों के पीछे आम सहमति को न मानना, कहे अनकहे नियमों का उल्लंघन करना या उन्हें ताक पर रख देने की शिकायतें होती हैं. सभी लोग एक साथ काम करके अपनी महत्ता बनाए रखें, इसके लिए बन जाने वाले यह कहे अनकहे नियम, एक व्यक्ति के अंदर कम आमदनी या लाइन में लगने की वजह से होने वाली देरी और उससे होने वाला आभासी नुकसान के डर को खत्म नहीं कर सकती, जिसकी वजह से लोग इनका उल्लंघन करते हैं.
कई अर्थों में, बड़ौत में हुआ झगड़ा अपने पीछे के साधारण कारणों और सड़क पर होने वाले झगड़ों की छाप ही दिखाता है. भले ही इस घटना के पीछे रोचक या हास्यास्पद किरदार हों जिसकी वजह से यह सब के मज़े और आनंद का स्रोत बन गया, लेकिन इससे हमें यह भी पता चलता है कि सड़क पर सामान बेचने वालों के मन में छुपा अवसाद और ग्राहक ढूंढने के लिए होने वाले गंभीर इलाकाई झगड़े भी हमारे समाज की सच्चाई हैं.
General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.
Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?