फिल्म लांड्री: मध्यवर्गीय लड़की का इंटरनेशनल सफ़र

इस पुस्तक में खुदपसंदी नहीं है. कई बार ऐसा लगता है कि वह प्रसंगों और घटनाओं की सपाटबयानी कर रही हैं. वह स्वयं के लिए विशेषण का इस्तेमाल नहीं करतीं और विवरणों में आत्मश्लाघा नहीं दिखती. हर अध्याय में चालकता आत्मविश्वास है.

Article image
  • Share this article on whatsapp

वह लिखती हैं, "मेरी भिन्नता ही मेरी ताकत है." अगर प्रियंका चोपड़ा उनके विस्तार में जाती तो और भी भेद खुल सकते थे. अपने कैरियर के आरंभ में ही उन्हें सुनने को मिल गया था कि ‘लड़कियां आसानी से बदली जा सकती हैं’. उनकी प्रतिभा, मेहनत और चरित्रों को आत्मसात कर पर्दे पर पेश करने की योग्यता पर ध्यान नहीं दिया जाता. दिखाया जाता है कि वह ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ लगती है कि नहीं? ‘देसी गर्ल’ अध्याय में प्रियंका ने अलग-अलग फिल्मों के लिए अलग- अलग कौशल (डॉन-थाई ची, द्रोण-गटका और घुड़सवारी, बाजीराव मस्तानी और कमीने के लिए मराठी’ सीखने और अभ्यास करने की बात की है.

कैरियर के आरंभ में ही उन्हें केप टाउन में ‘अंदाज’ फिल्म में ‘अल्लाह करे दिल न लगे’ गाने की शूटिंग में नृत्य नहीं आने से नृत्य निर्देशक राजू खान से मिलीं झिडकी और फिर कत्थक के अभ्यास से नृत्य की बारीकियों और मुद्राओं को सीख खुद को योग्य और सक्षम बनाए रखने की कोशिश उल्लेखनीय है. कैरियर की शुरुआत में उन्हें इस बात से परेशानी होती है कि वह सेट पर सुबह नौ बजे आ जाती हैं, जबकि फिल्म का हीरो साढ़े चार बजे दोपहर में आता है. वह मां और एक परिचित अभिनेता से इस तकलीफ को शेयर करती हैं तो अनुभवी अभिनेता उन्हें कहता है, इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम खाली बैठकर इंतजार करती हो. निर्माता ने तुम्हारी भागीदारी के तुम्हें पैसे दिए हैं. अब यह तुम्हारा दायित्व है. भले ही तुम इंतजार करते हुए वीडियो गेम खेलती रहो. ‘प्रियंका अपनी पहली तमिल फिल्म Thamizhan’ के नायक विजय की प्रशंसकों के सम्मान और मेलजोल को अपना लेती हैं और पोपुलर होने के बाद उसका पालन करती हैं.

प्रियंका चोपड़ा ने अपने पिता के सख्त निर्देश का जिक्र किया है, "रात में कोई मीटिंग नहीं होगी. सूर्यास्त के बाद तो बिलकुल नहीं. सारी मीटिंग दिन में होगी और उस मीटिंग में मैं या तुम्हारी मां रहेंगे". ऐसे निर्देश के कारण ही प्रियंका चोपड़ा संभावित कड़वे अनुभवों से बच गयीं. यूं उन्हें हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की पितृसत्तात्मक और पक्षपात की बातें सालती रहीं. इन सावधानियों के बावजूद उन्हें तकलीफदेह और हीनता के एहसास कराने वाले अनुभवों से गुजरना पड़ा. और फिर उनके कैरियर में पांच साल का लंबा ठहराव आता है, जब सारी फ़िल्में दर्शक नापसंद कर देते हैं. फिर वह मधुर भंडारकर की ‘फैशन’ चुनती हैं, जिसके लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का नेशनल अवार्ड मिलता है. इसी फिल्म के लिए कंगना रनौत को भी सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का अवार्ड मिला था.

इस पुस्तक को अगर उत्तर भारत की एक मध्यवर्गीय लड़की के सौंदर्य प्रतियोगिता और फिल्म इंडस्ट्री में प्रवेश करने के नजरिए से पढ़ें तो अनेक मेधावी और प्रेरक प्रसंग मिलते हैं. सामान्य मध्यवर्गीय परिवार की प्रियंका चोपड़ा ने आरंभ से ही स्वतंत्र और भिन्न व्यक्तित्व की लड़की रही हैं. उन्हें यह व्यक्तित्व अपने माता-पिता के सहयोग और संरक्षण से मिला. उत्तर भारत के परिवारों में आज भी फिल्मों के लिए उत्सुक युवक-युवतियों को अभिभावकों का पुख्ता समर्थन नहीं मिलता.

उन्हें कठिन संघर्षों और पारिवारिक विरोधों के बावजूद अपनी ख्वाहिशों और महत्वाकांक्षाओं को जागृत रखना पड़ता है. प्रियंका चोपड़ा और कंगना रनौत का सफर एक पारिवारिक सहयोग और विरोध के दो पुष्ट उदाहरण है. 2007 में आई ‘फैशन’ के लिए मिले इन अभिनेत्रियों को मिले नेशनल अवार्ड ने उत्तर भारत में उत्साह और संभावना की लहर ला दी थी. अगर उत्तर भारत से आई सक्रिय अभिनेत्रियों की पृष्ठभूमि, परिवेश और मनोरंजन जगत में प्रवेश पर शोध किया जाए तो उत्प्रेरक बनी प्रियंका और कंगना के साक्ष्य मिलेंगे.

‘अनफिनिश्ड : अ मेमॉयर’ पुस्तक को एक मध्यवर्गीय लड़की की इंटरनेशनल पहचान की कथा के रूप में पढ़ने की समझ और समझने की जरूरत है. अमेरिका तक की अपनी यात्रा को वह जिस आत्मविश्वास और पारिवारिक सहयोग से तय करती हैं, वह सराहनीय है. इस पुस्तक में निजी अवसाद और दुख भी है, जब वह अपने पिता की बीमारी (कैंसर) और उनकी मौत के बारे में बताती हैं. पिता से उनका खास लगाव था और मां भी उन्हें अपने सपनों के समर्थक के रूप में मिली थी. प्रियंका चोपड़ा के माता-पिता दोनों ने अपने कैरियर की परवाह नहीं की. बेटी की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए उन्होंने बहुत कुछ छोड़ा और हर कदम पर साथ खड़े रहे. जब पढ़ाई और फिल्म में एक के चुनाव की दुविधा आई तो पिता ने सलाह दी थी कि ‘तुम इसे चाहत से अधिक अवसर के रूप में देखो. एक साल के लिए एक्टिंग में कोशिश करो. यह अवसर है. अगर तुम इसमें बुरी साबित होती हो तो तुम कभी भी पढ़ाई में लौट सकती हो.‘ उत्तर भारत के मध्यवर्गीय पिता की ऐसी सलाह पर गौर करने की जरूरत है.

निक जोनस से प्रियंका चोपड़ा की भेंट और बाद की मुलाकातों में पनपे रोमांस का वर्णन रोचक और परिकथा की तरह है. पिता जैसे पति और अपने ही परिवार जैसे पारिवारिक ससुराल की कामना को पूरी होती देख प्रियंका चोपड़ा की खुशी शब्दों में उतर आई है. उम्र में 10 साल छोटे और टाइप वन डायबिटीज से ग्रस्त निक जोनस के साथ वह अमेरिका में सुविधा और सुख की जिंदगी जीते हुए अपनी सृजनात्मक योग्यता का भी भरपूर उपयोग कर रही हैं. प्रियंका चोपड़ा इस पुस्तक में भारतीय परिवार, परंपरा, मूल्य, फिल्म हिस्ट्री आदि की व्याख्या भी करती चलती हैं. स्पष्ट है कि उनकी पुस्तक इंटरनेशनल पाठकों और पश्चिमी समाज को ध्यान में रखकर लिखी गई है. इसी पुस्तक में वह संयुक्त परिवार और विस्तारित परिवार के सहयोग और समर्थन का गुणगान करती हैं. कैसे मौसी-मौसा, चाचा-चाची, मामा-मामी, चचेरे- ममेरे-मौसेरे भाई-बहन, माता-पिता सभी अपने और सगे-संबंधियों के बच्चों की परवरिश और पढ़ाई-लिखाई में आगे बढ़कर मदद करते हैं.

भारत के पाठकों के लिए यह आम बात है, क्योंकि यही होता है. पश्चिमी और अंतरराष्ट्रीय पाठकों को यह पुस्तक भारत की पारिवारिक संरचना, संस्कृति और मूल्यों को रेखांकित और परिभाषित करती है. पाठ देती है.

हां, पुस्तक की भाषा में लालित्य और कथन शैली की कमी है. यह उम्मीद रहेगी कि जब प्रियंका चोपड़ा इस संस्मरण को अगली पुस्तक में ‘फिनिश’ करेंगी तो इस तरफ भी ध्यान देंगी.

Also see
article imageफिल्म लांड्री: किसानों के जीवन पर थी भारत की पहली कलर फिल्म ‘किसान कन्या’
article imageफिल्म लॉन्ड्री: बिहार से दिल्ली आए एक मामूली युवक की कहानी है, प्रतीक वत्स की ‘ईब आले ऊ’
article imageफिल्म लांड्री: किसानों के जीवन पर थी भारत की पहली कलर फिल्म ‘किसान कन्या’
article imageफिल्म लॉन्ड्री: बिहार से दिल्ली आए एक मामूली युवक की कहानी है, प्रतीक वत्स की ‘ईब आले ऊ’

वह लिखती हैं, "मेरी भिन्नता ही मेरी ताकत है." अगर प्रियंका चोपड़ा उनके विस्तार में जाती तो और भी भेद खुल सकते थे. अपने कैरियर के आरंभ में ही उन्हें सुनने को मिल गया था कि ‘लड़कियां आसानी से बदली जा सकती हैं’. उनकी प्रतिभा, मेहनत और चरित्रों को आत्मसात कर पर्दे पर पेश करने की योग्यता पर ध्यान नहीं दिया जाता. दिखाया जाता है कि वह ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ लगती है कि नहीं? ‘देसी गर्ल’ अध्याय में प्रियंका ने अलग-अलग फिल्मों के लिए अलग- अलग कौशल (डॉन-थाई ची, द्रोण-गटका और घुड़सवारी, बाजीराव मस्तानी और कमीने के लिए मराठी’ सीखने और अभ्यास करने की बात की है.

कैरियर के आरंभ में ही उन्हें केप टाउन में ‘अंदाज’ फिल्म में ‘अल्लाह करे दिल न लगे’ गाने की शूटिंग में नृत्य नहीं आने से नृत्य निर्देशक राजू खान से मिलीं झिडकी और फिर कत्थक के अभ्यास से नृत्य की बारीकियों और मुद्राओं को सीख खुद को योग्य और सक्षम बनाए रखने की कोशिश उल्लेखनीय है. कैरियर की शुरुआत में उन्हें इस बात से परेशानी होती है कि वह सेट पर सुबह नौ बजे आ जाती हैं, जबकि फिल्म का हीरो साढ़े चार बजे दोपहर में आता है. वह मां और एक परिचित अभिनेता से इस तकलीफ को शेयर करती हैं तो अनुभवी अभिनेता उन्हें कहता है, इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम खाली बैठकर इंतजार करती हो. निर्माता ने तुम्हारी भागीदारी के तुम्हें पैसे दिए हैं. अब यह तुम्हारा दायित्व है. भले ही तुम इंतजार करते हुए वीडियो गेम खेलती रहो. ‘प्रियंका अपनी पहली तमिल फिल्म Thamizhan’ के नायक विजय की प्रशंसकों के सम्मान और मेलजोल को अपना लेती हैं और पोपुलर होने के बाद उसका पालन करती हैं.

प्रियंका चोपड़ा ने अपने पिता के सख्त निर्देश का जिक्र किया है, "रात में कोई मीटिंग नहीं होगी. सूर्यास्त के बाद तो बिलकुल नहीं. सारी मीटिंग दिन में होगी और उस मीटिंग में मैं या तुम्हारी मां रहेंगे". ऐसे निर्देश के कारण ही प्रियंका चोपड़ा संभावित कड़वे अनुभवों से बच गयीं. यूं उन्हें हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की पितृसत्तात्मक और पक्षपात की बातें सालती रहीं. इन सावधानियों के बावजूद उन्हें तकलीफदेह और हीनता के एहसास कराने वाले अनुभवों से गुजरना पड़ा. और फिर उनके कैरियर में पांच साल का लंबा ठहराव आता है, जब सारी फ़िल्में दर्शक नापसंद कर देते हैं. फिर वह मधुर भंडारकर की ‘फैशन’ चुनती हैं, जिसके लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का नेशनल अवार्ड मिलता है. इसी फिल्म के लिए कंगना रनौत को भी सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का अवार्ड मिला था.

इस पुस्तक को अगर उत्तर भारत की एक मध्यवर्गीय लड़की के सौंदर्य प्रतियोगिता और फिल्म इंडस्ट्री में प्रवेश करने के नजरिए से पढ़ें तो अनेक मेधावी और प्रेरक प्रसंग मिलते हैं. सामान्य मध्यवर्गीय परिवार की प्रियंका चोपड़ा ने आरंभ से ही स्वतंत्र और भिन्न व्यक्तित्व की लड़की रही हैं. उन्हें यह व्यक्तित्व अपने माता-पिता के सहयोग और संरक्षण से मिला. उत्तर भारत के परिवारों में आज भी फिल्मों के लिए उत्सुक युवक-युवतियों को अभिभावकों का पुख्ता समर्थन नहीं मिलता.

उन्हें कठिन संघर्षों और पारिवारिक विरोधों के बावजूद अपनी ख्वाहिशों और महत्वाकांक्षाओं को जागृत रखना पड़ता है. प्रियंका चोपड़ा और कंगना रनौत का सफर एक पारिवारिक सहयोग और विरोध के दो पुष्ट उदाहरण है. 2007 में आई ‘फैशन’ के लिए मिले इन अभिनेत्रियों को मिले नेशनल अवार्ड ने उत्तर भारत में उत्साह और संभावना की लहर ला दी थी. अगर उत्तर भारत से आई सक्रिय अभिनेत्रियों की पृष्ठभूमि, परिवेश और मनोरंजन जगत में प्रवेश पर शोध किया जाए तो उत्प्रेरक बनी प्रियंका और कंगना के साक्ष्य मिलेंगे.

‘अनफिनिश्ड : अ मेमॉयर’ पुस्तक को एक मध्यवर्गीय लड़की की इंटरनेशनल पहचान की कथा के रूप में पढ़ने की समझ और समझने की जरूरत है. अमेरिका तक की अपनी यात्रा को वह जिस आत्मविश्वास और पारिवारिक सहयोग से तय करती हैं, वह सराहनीय है. इस पुस्तक में निजी अवसाद और दुख भी है, जब वह अपने पिता की बीमारी (कैंसर) और उनकी मौत के बारे में बताती हैं. पिता से उनका खास लगाव था और मां भी उन्हें अपने सपनों के समर्थक के रूप में मिली थी. प्रियंका चोपड़ा के माता-पिता दोनों ने अपने कैरियर की परवाह नहीं की. बेटी की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए उन्होंने बहुत कुछ छोड़ा और हर कदम पर साथ खड़े रहे. जब पढ़ाई और फिल्म में एक के चुनाव की दुविधा आई तो पिता ने सलाह दी थी कि ‘तुम इसे चाहत से अधिक अवसर के रूप में देखो. एक साल के लिए एक्टिंग में कोशिश करो. यह अवसर है. अगर तुम इसमें बुरी साबित होती हो तो तुम कभी भी पढ़ाई में लौट सकती हो.‘ उत्तर भारत के मध्यवर्गीय पिता की ऐसी सलाह पर गौर करने की जरूरत है.

निक जोनस से प्रियंका चोपड़ा की भेंट और बाद की मुलाकातों में पनपे रोमांस का वर्णन रोचक और परिकथा की तरह है. पिता जैसे पति और अपने ही परिवार जैसे पारिवारिक ससुराल की कामना को पूरी होती देख प्रियंका चोपड़ा की खुशी शब्दों में उतर आई है. उम्र में 10 साल छोटे और टाइप वन डायबिटीज से ग्रस्त निक जोनस के साथ वह अमेरिका में सुविधा और सुख की जिंदगी जीते हुए अपनी सृजनात्मक योग्यता का भी भरपूर उपयोग कर रही हैं. प्रियंका चोपड़ा इस पुस्तक में भारतीय परिवार, परंपरा, मूल्य, फिल्म हिस्ट्री आदि की व्याख्या भी करती चलती हैं. स्पष्ट है कि उनकी पुस्तक इंटरनेशनल पाठकों और पश्चिमी समाज को ध्यान में रखकर लिखी गई है. इसी पुस्तक में वह संयुक्त परिवार और विस्तारित परिवार के सहयोग और समर्थन का गुणगान करती हैं. कैसे मौसी-मौसा, चाचा-चाची, मामा-मामी, चचेरे- ममेरे-मौसेरे भाई-बहन, माता-पिता सभी अपने और सगे-संबंधियों के बच्चों की परवरिश और पढ़ाई-लिखाई में आगे बढ़कर मदद करते हैं.

भारत के पाठकों के लिए यह आम बात है, क्योंकि यही होता है. पश्चिमी और अंतरराष्ट्रीय पाठकों को यह पुस्तक भारत की पारिवारिक संरचना, संस्कृति और मूल्यों को रेखांकित और परिभाषित करती है. पाठ देती है.

हां, पुस्तक की भाषा में लालित्य और कथन शैली की कमी है. यह उम्मीद रहेगी कि जब प्रियंका चोपड़ा इस संस्मरण को अगली पुस्तक में ‘फिनिश’ करेंगी तो इस तरफ भी ध्यान देंगी.

Also see
article imageफिल्म लांड्री: किसानों के जीवन पर थी भारत की पहली कलर फिल्म ‘किसान कन्या’
article imageफिल्म लॉन्ड्री: बिहार से दिल्ली आए एक मामूली युवक की कहानी है, प्रतीक वत्स की ‘ईब आले ऊ’
article imageफिल्म लांड्री: किसानों के जीवन पर थी भारत की पहली कलर फिल्म ‘किसान कन्या’
article imageफिल्म लॉन्ड्री: बिहार से दिल्ली आए एक मामूली युवक की कहानी है, प्रतीक वत्स की ‘ईब आले ऊ’
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like