दुनिया के किसी भी सामजिक कार्यकर्ता या आंदोलन से जुड़े समूहों की मानें तो आजकल किसी भी आंदोलन या प्रदर्शनों में ऐसे मैसेज लोगों तक पहुंचाए जाने लगे हैं.
जब ग्रेटा द्वारा शेयर किये टूलकिट पर थोड़ी जानकारी जोड़ने की ज़हमत उन्होंने की, तब शायद उन्हें लग रहा होगा कि उन्होंने किसानों की मदद ही की है, जैसा दिल्ली के पटियाला कोर्ट में मजिस्ट्रेट के सामने उन्होंने रोते हुए कहा. उन्हें शायद अंदाज़ा नहीं था कि पुलिस देश के खिलाफ साजिश के आरोप में उन्हें पकड़ लेगी. अगर रिपब्लिक चैनल की ही मानें, तो लीक हुए व्हाट्सएप बता रहे हैं कि उन्हें डर है कि शायद अब यूएपीए के तहत उनपर दंडात्मक कार्यवाही ना कर दी जाये.
दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने पहले ही गूगल कंपनी से टूलकिट बनाने वालों की जानकारी निकली थी, जिससे दिशा रवि, निकिता जेकब और शांतनु की पहचान करके उनके घरों पर पुलिस के छापे पड़ चुके हैं और गैर ज़मानती वारंट के साथ पुलिस इन्हें अब अगले साजिशकर्ता के रूप में जेल में डालने वाली है.
जिनको इसके पीछे की कहानी नहीं पता उनके लिए ये बताना ज़रूरी है कि कुछ साल पहले ग्रेटा ने दुनिया के बड़े देशों और उनके प्रधानों को गुस्से से आंखें लाल करके कहा था उन्होंने हम बच्चों का भविष्य खराब कर दिया है. ग्रेटा 14 वर्ष की उम्र में ही पर्यावरण की तबाही, उसके पीछे अंधाधुन तरीके से बड़ी कम्पनियों को मुनाफे पहुचाने की कवायद, और गैर-बराबरी भरी दुनिया में युवाओं की आवाज़ बन कर उभरी. उनके आगे-पीछे दुनिया भर में युवाओं ने इस बात पर अपना समर्थन किया और अपने बड़ों से जवाबदेही मांगी.
खेती-किसानी से सम्बंधित तीन कानूनों को लेकर सरकार का रवैया शुरू से आक्रामक है. हर बार ही अपने तरीके को सही बताते हुए सरकार ने किसानों पर देश-हित का चाबुक चलाया है, चाहे कोई कुछ भी कहता रहे. शायद सच ही झूठ है, और झूठ ही सच. संविधान के मूल्यों की अवहेलना देश-हित और देशभक्ति है, जिसका दावा सरकार और उसके समर्थक करते रहते हैं, और जिसकी दुहाई सरकार के विरोधी देते रहते हैं.
इस पूरे मामले में ट्विटर को सरकार ने अच्छे से घेरा है, जिसके कारण अब कंपनी के बड़े अफ़सर सरकार के साथ बेहतर संवाद करेंगे. 31 जनवरी को आईटी अधिनियम की धारा 69 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए, इलेक्ट्रोनिकी और सूचना प्रोद्योगिकी (आईटी) मंत्रालय ने एक आपातकालीन आदेश पारित किया था, जिसमें ट्विटर को 257 खातों को ब्लॉक करने के लिए कहा गया था. मंत्रालय ने अपने नोटिस में कहा था कि ये हैंडल किसानों के विरोध के बारे में "गलत सूचना फैला रहे हैं, जिसके कारण "देश में सार्वजनिक व्यवस्था की स्थिति को प्रभावित करने वाली आसन्न हिंसा" की संभावना थी.
ट्विटर ने बाद में कुछ समय के लिए खातों और उनकी पहुंच को रोक दिया था, लेकिन कुछ लोगों ने इसका हवाला देते हुए कहा कि इन खातों ने बोलने की आज़ादी की अपनी नीति का उल्लंघन नहीं किया है. 4 फरवरी को आईटी मंत्रालय ने एक ताज़ा नोटिस जारी किया था, जिसमें लगभग 1200 खातों को बंद करने की मांग की गई थी, ताकि इसे भारत में निलंबित या बंद करने के लिए कहा जा सके.
बुधवार को एक ब्लॉगपोस्ट में ट्विटर ने अपना रुख दोहराया था कि जिन खातों को उसने बंद नहीं किया था वे 31 जनवरी को या 4 फरवरी के नोटिस के बाद "अभिव्यक्ती की स्वतंत्रता पर उनकी नीतियों के अनुरूप" थे. ट्विटर ने आईटी मंत्रालय के नोटिस पर की गई कार्रवाई को बताते हुए कहा था कि उसने "500 से अधिक खातों को निलंबित कर दिया था" और इसमें मीडिया, पत्रकारों, एक्टिविस्ट और नेताओं के बने खातों पर कोई कार्रवाई नहीं की क्योंकि यह "भारतीय कानून के तहत स्वतंत्र अभिव्यक्ति के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा".
सरकार के अफसरों ने ट्विटर द्वारा आदेशों का पालन नहीं करने पर नाराजगी जताई है. उनके दृष्टिकोण से सबसे "आपत्तिजनक" शब्द "नरसंहार" का खूब इस्तेमाल है. उन्होनें कहा है की सरकार द्वारा किसान आंदोलन से निपटने के तरीके को लोगों ने ‘नरसंहार’ कहा है.
"एक शब्द नरसंहार लापरवाही से चारों ओर नहीं फेंका जा सकता है. ट्विटर पर हमने (31 जनवरी को) अधिकांश मैसेज में उत्तेजक छवियों के साथ इस शब्द का उल्लेख था, जिसका भारत से कोई लेना-देना नहीं था. सरकार का मानना है कि ट्विटर भारतीय कानूनों की अपनी व्याख्या के बारे में जज, ज्यूरी और जल्लाद नहीं हो सकता है." ये जानकारी आईटी मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दी है.
26 जनवरी की ट्रेक्टर रैली के अंत में संघर्ष और लोगों की समस्याओं पर मीडिया ने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया. सारे चैनल मिलकर लालकिले पर देश के झंडे का अपमान, और उपद्रवी तत्वों द्वारा पुलिस की बात नहीं मानना, या तोड़-फोड़ की बात करते रह गए. उसके तुरंत बाद सरकार ने मौका पाकर आंदोलनों की जगह घेराबंदी मज़बूत कर दी, कीलें लगवा दी, और दो दिन के भीतर ही फिर से अंजान लोग वहां आये और आंदोलन से जुड़े किसानों पर पत्थरबाजी की. कहने को वो बॉर्डर के आसपास के रहने वाले लोग थे जो अब आन्दोलन से त्रस्त थे. करीब 200 लोगों की उस भीड़ पर सरकार ने कोई जानकारी नहीं दी, ना ही पुलिस के अधिकारीयों ने उसपर कोई वक्तव्य दिया. हालांकि इसी प्रसंग में पत्रकार मंदीप पुनिया को ज़रूर हिरासत में लिया गया. तीन दिन तक तिहाड़ जेल में रहने के बाद वो बेल पर रिहा है और बाहर आकर जेल में बंद बेगुनाह आंदोलनकारियों की कहानी कही.
विरोध करने के संवैधानिक अधिकारों को बचाने के लिए ही ग्रेटा या अन्य लोगों ने समर्थन में कुछ ट्वीट किये थे, जिससे सरकार और निजी चैनलों ने मज़बूती से देश के खिलाफ बड़ी साजिश के रूप में प्रस्तुत किया. सारा तंत्र लोकतांत्रिक विरोध को सिरे से ख़ारिज करने की कहानी गढ़ने में लगा है और फिर से देशभक्ति और राष्ट्र के अपमान की बात ही मुख्या मुद्दा रह गया है. सीधे तौर पर आंदोलनों को बेमतलब और साजिश से भरा बताया जाने लगा है. सारे आंदोलनकारी गुमराह हैं, और चूंकि लाखों लोगों को जेल में डालना संभव नहीं, तो ऐसे साजिशों का पैदा होना लाजिम ही है.
भारत देश की आज़ादी की लडाई में भी उस समय की सरकार आंदोलनकारियों पर देशद्रोह और आपराधिक साजिश के मुक़दमे लगाती थी. जहां मारपीट और हिंसा से बात नहीं बनती तो पूरा तंत्र उन्हें भटका हुआ या बेमतलब बताती थी. बाहर बात ना फैले इसलिए अखबार और मीडिया पर अपना पूरा नियंत्रण रखती थी. झुकती थी तो तब जब आमलोग इसके पीछे के कारण समझ जाते थे और न्यायप्रिय आंदोलनों में खुद को झोंक देते थे. महात्मा गांधी के आवाह्न पर डांडी मार्च, स्वदेशी आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन हमारी विरासत का हिस्सा हैं. बाबासाहेब अम्बेडकर के आवाह्न पर मंदिर प्रवेश के आन्दोलन के साथ ही 1927 के महाड सत्याग्रह में लाखों लोगों ने जाती व्यवस्था की बंदिशों को तोड़ने के लिए सामूहिक तालाब से पानी लिया था. इसी साल 25 दिसम्बर के दिन सार्वजनिक तौर पर मनुस्मृति का दहन किया था. भगत सिंह ने फासीवादी सरकार के खिलाफ युवाओं और आम लोगों के आंदोलन का नेतृत्व किया था. उनमें से कोई भी परजीवी नहीं था। सारे लोग जो इन आंदोलनों में भागीदार थे, वो आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे थी.
आज भारत के नागरिक उस आज़ादी के मतलब को पहचान रहे हैं. सड़क के साथ ही ट्वीट सहित सोशल मीडिया पर भी सही को सही, और गलत को गलत कह पा रहे हैं. युवा आंदोलनों की रचनात्मक भूमिका को पहचान रहे हैं, और मिलकर साथ आ रहे हैं. सत्ता से सवाल कर रहे हैं, जवाब मांग रहे हैं.
असल साजिश का पर्दाफाश पुलिस या न्याय तंत्र नहीं, इस बार आम लोग कर रहे हैं. आखिर में संविधान, और न्याय को जीतना होगा. हम सबको जीतना होगा.
जब ग्रेटा द्वारा शेयर किये टूलकिट पर थोड़ी जानकारी जोड़ने की ज़हमत उन्होंने की, तब शायद उन्हें लग रहा होगा कि उन्होंने किसानों की मदद ही की है, जैसा दिल्ली के पटियाला कोर्ट में मजिस्ट्रेट के सामने उन्होंने रोते हुए कहा. उन्हें शायद अंदाज़ा नहीं था कि पुलिस देश के खिलाफ साजिश के आरोप में उन्हें पकड़ लेगी. अगर रिपब्लिक चैनल की ही मानें, तो लीक हुए व्हाट्सएप बता रहे हैं कि उन्हें डर है कि शायद अब यूएपीए के तहत उनपर दंडात्मक कार्यवाही ना कर दी जाये.
दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने पहले ही गूगल कंपनी से टूलकिट बनाने वालों की जानकारी निकली थी, जिससे दिशा रवि, निकिता जेकब और शांतनु की पहचान करके उनके घरों पर पुलिस के छापे पड़ चुके हैं और गैर ज़मानती वारंट के साथ पुलिस इन्हें अब अगले साजिशकर्ता के रूप में जेल में डालने वाली है.
जिनको इसके पीछे की कहानी नहीं पता उनके लिए ये बताना ज़रूरी है कि कुछ साल पहले ग्रेटा ने दुनिया के बड़े देशों और उनके प्रधानों को गुस्से से आंखें लाल करके कहा था उन्होंने हम बच्चों का भविष्य खराब कर दिया है. ग्रेटा 14 वर्ष की उम्र में ही पर्यावरण की तबाही, उसके पीछे अंधाधुन तरीके से बड़ी कम्पनियों को मुनाफे पहुचाने की कवायद, और गैर-बराबरी भरी दुनिया में युवाओं की आवाज़ बन कर उभरी. उनके आगे-पीछे दुनिया भर में युवाओं ने इस बात पर अपना समर्थन किया और अपने बड़ों से जवाबदेही मांगी.
खेती-किसानी से सम्बंधित तीन कानूनों को लेकर सरकार का रवैया शुरू से आक्रामक है. हर बार ही अपने तरीके को सही बताते हुए सरकार ने किसानों पर देश-हित का चाबुक चलाया है, चाहे कोई कुछ भी कहता रहे. शायद सच ही झूठ है, और झूठ ही सच. संविधान के मूल्यों की अवहेलना देश-हित और देशभक्ति है, जिसका दावा सरकार और उसके समर्थक करते रहते हैं, और जिसकी दुहाई सरकार के विरोधी देते रहते हैं.
इस पूरे मामले में ट्विटर को सरकार ने अच्छे से घेरा है, जिसके कारण अब कंपनी के बड़े अफ़सर सरकार के साथ बेहतर संवाद करेंगे. 31 जनवरी को आईटी अधिनियम की धारा 69 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए, इलेक्ट्रोनिकी और सूचना प्रोद्योगिकी (आईटी) मंत्रालय ने एक आपातकालीन आदेश पारित किया था, जिसमें ट्विटर को 257 खातों को ब्लॉक करने के लिए कहा गया था. मंत्रालय ने अपने नोटिस में कहा था कि ये हैंडल किसानों के विरोध के बारे में "गलत सूचना फैला रहे हैं, जिसके कारण "देश में सार्वजनिक व्यवस्था की स्थिति को प्रभावित करने वाली आसन्न हिंसा" की संभावना थी.
ट्विटर ने बाद में कुछ समय के लिए खातों और उनकी पहुंच को रोक दिया था, लेकिन कुछ लोगों ने इसका हवाला देते हुए कहा कि इन खातों ने बोलने की आज़ादी की अपनी नीति का उल्लंघन नहीं किया है. 4 फरवरी को आईटी मंत्रालय ने एक ताज़ा नोटिस जारी किया था, जिसमें लगभग 1200 खातों को बंद करने की मांग की गई थी, ताकि इसे भारत में निलंबित या बंद करने के लिए कहा जा सके.
बुधवार को एक ब्लॉगपोस्ट में ट्विटर ने अपना रुख दोहराया था कि जिन खातों को उसने बंद नहीं किया था वे 31 जनवरी को या 4 फरवरी के नोटिस के बाद "अभिव्यक्ती की स्वतंत्रता पर उनकी नीतियों के अनुरूप" थे. ट्विटर ने आईटी मंत्रालय के नोटिस पर की गई कार्रवाई को बताते हुए कहा था कि उसने "500 से अधिक खातों को निलंबित कर दिया था" और इसमें मीडिया, पत्रकारों, एक्टिविस्ट और नेताओं के बने खातों पर कोई कार्रवाई नहीं की क्योंकि यह "भारतीय कानून के तहत स्वतंत्र अभिव्यक्ति के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा".
सरकार के अफसरों ने ट्विटर द्वारा आदेशों का पालन नहीं करने पर नाराजगी जताई है. उनके दृष्टिकोण से सबसे "आपत्तिजनक" शब्द "नरसंहार" का खूब इस्तेमाल है. उन्होनें कहा है की सरकार द्वारा किसान आंदोलन से निपटने के तरीके को लोगों ने ‘नरसंहार’ कहा है.
"एक शब्द नरसंहार लापरवाही से चारों ओर नहीं फेंका जा सकता है. ट्विटर पर हमने (31 जनवरी को) अधिकांश मैसेज में उत्तेजक छवियों के साथ इस शब्द का उल्लेख था, जिसका भारत से कोई लेना-देना नहीं था. सरकार का मानना है कि ट्विटर भारतीय कानूनों की अपनी व्याख्या के बारे में जज, ज्यूरी और जल्लाद नहीं हो सकता है." ये जानकारी आईटी मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दी है.
26 जनवरी की ट्रेक्टर रैली के अंत में संघर्ष और लोगों की समस्याओं पर मीडिया ने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया. सारे चैनल मिलकर लालकिले पर देश के झंडे का अपमान, और उपद्रवी तत्वों द्वारा पुलिस की बात नहीं मानना, या तोड़-फोड़ की बात करते रह गए. उसके तुरंत बाद सरकार ने मौका पाकर आंदोलनों की जगह घेराबंदी मज़बूत कर दी, कीलें लगवा दी, और दो दिन के भीतर ही फिर से अंजान लोग वहां आये और आंदोलन से जुड़े किसानों पर पत्थरबाजी की. कहने को वो बॉर्डर के आसपास के रहने वाले लोग थे जो अब आन्दोलन से त्रस्त थे. करीब 200 लोगों की उस भीड़ पर सरकार ने कोई जानकारी नहीं दी, ना ही पुलिस के अधिकारीयों ने उसपर कोई वक्तव्य दिया. हालांकि इसी प्रसंग में पत्रकार मंदीप पुनिया को ज़रूर हिरासत में लिया गया. तीन दिन तक तिहाड़ जेल में रहने के बाद वो बेल पर रिहा है और बाहर आकर जेल में बंद बेगुनाह आंदोलनकारियों की कहानी कही.
विरोध करने के संवैधानिक अधिकारों को बचाने के लिए ही ग्रेटा या अन्य लोगों ने समर्थन में कुछ ट्वीट किये थे, जिससे सरकार और निजी चैनलों ने मज़बूती से देश के खिलाफ बड़ी साजिश के रूप में प्रस्तुत किया. सारा तंत्र लोकतांत्रिक विरोध को सिरे से ख़ारिज करने की कहानी गढ़ने में लगा है और फिर से देशभक्ति और राष्ट्र के अपमान की बात ही मुख्या मुद्दा रह गया है. सीधे तौर पर आंदोलनों को बेमतलब और साजिश से भरा बताया जाने लगा है. सारे आंदोलनकारी गुमराह हैं, और चूंकि लाखों लोगों को जेल में डालना संभव नहीं, तो ऐसे साजिशों का पैदा होना लाजिम ही है.
भारत देश की आज़ादी की लडाई में भी उस समय की सरकार आंदोलनकारियों पर देशद्रोह और आपराधिक साजिश के मुक़दमे लगाती थी. जहां मारपीट और हिंसा से बात नहीं बनती तो पूरा तंत्र उन्हें भटका हुआ या बेमतलब बताती थी. बाहर बात ना फैले इसलिए अखबार और मीडिया पर अपना पूरा नियंत्रण रखती थी. झुकती थी तो तब जब आमलोग इसके पीछे के कारण समझ जाते थे और न्यायप्रिय आंदोलनों में खुद को झोंक देते थे. महात्मा गांधी के आवाह्न पर डांडी मार्च, स्वदेशी आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन हमारी विरासत का हिस्सा हैं. बाबासाहेब अम्बेडकर के आवाह्न पर मंदिर प्रवेश के आन्दोलन के साथ ही 1927 के महाड सत्याग्रह में लाखों लोगों ने जाती व्यवस्था की बंदिशों को तोड़ने के लिए सामूहिक तालाब से पानी लिया था. इसी साल 25 दिसम्बर के दिन सार्वजनिक तौर पर मनुस्मृति का दहन किया था. भगत सिंह ने फासीवादी सरकार के खिलाफ युवाओं और आम लोगों के आंदोलन का नेतृत्व किया था. उनमें से कोई भी परजीवी नहीं था। सारे लोग जो इन आंदोलनों में भागीदार थे, वो आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे थी.
आज भारत के नागरिक उस आज़ादी के मतलब को पहचान रहे हैं. सड़क के साथ ही ट्वीट सहित सोशल मीडिया पर भी सही को सही, और गलत को गलत कह पा रहे हैं. युवा आंदोलनों की रचनात्मक भूमिका को पहचान रहे हैं, और मिलकर साथ आ रहे हैं. सत्ता से सवाल कर रहे हैं, जवाब मांग रहे हैं.
असल साजिश का पर्दाफाश पुलिस या न्याय तंत्र नहीं, इस बार आम लोग कर रहे हैं. आखिर में संविधान, और न्याय को जीतना होगा. हम सबको जीतना होगा.