आधे डिप्रेशन में चले गए हैं
न्यूजलॉन्ड्री ने डिमोट कर दिए गए एक और कर्मचारी विनोद कुमार वर्मा से भी बात की. वह फोन रिसीव करते ही कहते हैं, "हम कल के बाद इस मामले पर बात करेंगे आज लखनऊ हाईकोर्ट में हमारा मामला पेश हुआ है. कल उसमें सुनवाई है."
आप सभी ने मिलकर कोर्ट का रुख किया है या आप अकेले ही पहुंचे हैं, इस पर वह कहते हैं, "मैं अकेला ही लखनऊ हाईकोर्ट पहुंचा हूं. कल इस मामले पर सुनवाई है जो भी कोर्ट का फैसला आएगा मैं उस पर आपसे बात करूंगा और बातऊंगा कि किया हुआ. कल आपके सभी सवालों का जवाब दूंगा.”
वह आगे कहते हैं, "इन्होंने कोर्ट के आदेश को मानकर हमें डिमोट कर दिया है जबकि कोर्ट ने तो ऐसा कोई आदेश ही नहीं दिया था. एक व्यक्ति ने अपने प्रमोशन के लिए लिखा था, इस पर हाईकोर्ट ने कह दिया कि इन पर भी विचार किया जाए. उनके तथ्यों पर विचार करने की बजाय हमें ही डिमोट कर दिया गया. यह तो इन्होंने गलत किया ना. कोई भी कर्मचारी अपनी मांग तो रखेगा ही उसने रख दी. अब कल देखते हैं इसमें क्या होता है उसके बाद हम आप से बात करेंगे."
उन्होंने बताया, "एक साल बाद मेरा रिटायरमेंट है. 37 साल नौकरी की है. लेकन इन 37 सालों में एक भी बार उनका प्रमोशन नहीं किया गया है. जबकि हाईकोर्ट का खुद ही नियम है कि कम से कम आदमी को उसकी सर्विस में तीन प्रमोशन मिलने चाहिए. पूरी सर्विस में कोई प्रमोशन नहीं हुआ जो एक हुआ भी उसे भी इन्होंने रिवर्ट कर दिया."
वह कहते हैं कि आधे डिप्रेशन में चले गए हैं. जो हुआ है, गलत हुआ है.
इस बारे में न्यूज़लॉन्ड्री ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सूचना सलाहकार शलभमणि त्रिपाठी से भी बात की. इस पर वह कहते हैं. "ऐसे बहुत से लोग डिमोट किए गए हैं. पिछले दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एसडीएम रैंक के एक अधिकारी को भी डिमोट कर तहसीलदार बना दिया गया था. इसके दो-तीन क्राइटेरिया हैं जिसके तहत ऐसा होता है. एक तो जिनकी परफॉर्मेंस बहुत खराब रहती है, दूसरा जिनकी फाइलें भ्रष्टाचार से जुड़ी हुई हैं. ऐसे भी बहुत सारे लोगों को डिमोट किया गया है जिन्होंने गलत तरीके से या जुगाड़ लगाकर प्रमोशन करा लिए थे जबकि वो उस प्रमोशन के हकदार नहीं थे."
लेकिन इन चारों के मामले में तो ऐसा नहीं है, इनका कहना है कि इन्हें तो अच्छे काम के लिए कई बार सम्मानित भी किया गया है. फिर इन्हें क्यों अपर जिला सूचना अधिकारी से चपरासी और चौकीदार बना दिया गया है? इस सवाल पर शलभ कहते हैं, "इस बारे में हमें थोड़ा जानना पड़ेगा. इस केस की मुझे ठीक से जानकारी नहीं है कि इनका क्या मामला था, लेकिन जो भी लोग 2017 के बाद से उत्तर प्रदेश में डिमोट हुए हैं उनका यही कारण है जो मैंने बताया है."
इस बारे में न्यूज़लॉन्ड्री ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकील और बार एसोसिएशन के कोषाध्यक्ष विन्देश्वरी प्रसाद गुप्ता से भी बात की. इन चारों लोगों का प्रमोशन एक प्रोसेस के तहत हुआ था. जिसमें वैकेंसी निकाली गईं. आईएस अधिकारियों ने एक कमेटी का गठन किया. जिसमें अधिकारियों ने इनके डॉक्यूमेंट देखने और साक्षात्कार के बाद प्रमोशन किया, फिर इनके साथ ऐसा क्यों हुआ? इस सवाल पर गुप्ता कहते हैं, "यह पैनल ने गलत किया है. यह इस कमेटी को बताना पड़ेगा कि किस कानून के तहत इनका प्रमोशन किया गया था. जब एक प्रोसेस के तहत इनका प्रमोशन हुआ है तो फिर इन्हें नहीं हटाना चाहिए था."
वह कहते हैं, "अगर लॉ के अनुसार कोई विज्ञप्ति निकाली गई है और उसका एडवरटाइजमेंट हुआ है तो अगर विज्ञप्ति के अनुसार लोगों ने अप्लाई किया और वह क्वालीफाई कर गए तो उन्हें हटाया नहीं जा सकता है. हटाया तभी जा सकता है जब विज्ञप्ति में कोई कमी रही होगी. जैसे आपने किसी लोकल अखबार में जिसका सर्कुलेशन ज्यादा न हो. उसमें विज्ञापन निकाला और आठ दिन बाद आपने परीक्षा रख दी तो यह गलत है. विज्ञप्ति ऐसे अखबार में निकाली जाती है जिसका ठीक ठाक सर्कुलेशन हो, लोग पढ़ते हों इसके बाद कम से कम एक महीने का समय देना होता है. अगर इन अधिकारियों ने गलत किया है तो फिर उन्हें सजा भी होनी चाहिए."
इलाहाबाद हाईकोर्ट का वह आदेश जिसके बाद यूपी सरकार ने अधिकारियों को किया था डिमोट
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दिया योगी सरकार के फैसले पर स्टे
यह कितनी हैरानी वाली बात है कि जिस खबर को यह कहकर चलाया गया कि हाईकोर्ट के फैसले के बाद सरकार ने चार अपर जिला सूचना अधिकारियों को बनाया चपरासी और चौकीदार. अब कोर्ट ने ही उस पर स्टे दे दिया है. ऐसा लग रहा है जैसे कोर्ट ने अपने फैसले पर ही स्टे दे दिया हो.
अपर जिला सूचना अधिकारी से चौकीदार बनाए गए दयाशंकर कहते हैं, "अब यह मामला कोर्ट में चल रहा है. कोर्ट ने हमें स्टे दे दिया है. फिलहाल हम उसी पोस्ट पर काम कर रहे हैं. यह स्टे कोर्ट ने 19 जनवरी को दिया है."
वह कहते हैं, "सरकार के फैसले का कोई आधार और नियम ही नहीं था. क्योंकि इसमें कुछ उल्लेख नहीं किया. सरकार ने अपने ऑर्डर में कहा था कि इनका प्रमोशन नियम विरूद्ध है. अब क्या नियम विरूद्ध है इसका तो कारण बताना चाहिए था. सरकार ने हवा में ही यह ऑर्डर पास कर दिया था. इसमें कोई जांच भी नहीं की गई. एक अधिकारी को सरकार कैसे चपरासी बना सकती है. यह तो एक तरह से पनिशमेंट हो गया. और पनिशमेंट तब मिलता है जब कोई अपराध किया हो. अपराध सिद्ध करने के लिए जांच कमेटियां बैठती हैं, सरकार ने कोई अपराध तक नहीं खोला कि हमारा क्या अपराध था जो डिमोट कर दिया गया था."
वहीं इस मामले पर जिला सूचना अधिकारी से सिनेमा ऑपरेटर कम प्रचार सहायक बनाए गए विनोद शर्मा कहते हैं, "अब हमें इस माममे में स्टे मिल गया है. सरकार को अपना पक्ष रखने के लिए कोर्ट में बुलाया गया है. अब देखते हैं कि सरकार कोर्ट में अपना क्या पक्ष रखती है. हम फिलहाल अभी चारों दोबारा से उसी पोस्ट (अपर जिला सूचना अधिकारी) पर तैनात हैं. उम्मीद है जल्दी ही यह आदेश ही खारिज कर दिया जाएगा जबकि सरकार चाहती है कि हम जो स्टे लेकर आए हैं वह कैंसिल हो जाए. इसलिए अब यह दोनों की अपनी लड़ाई है. लेकिन अब यह हाईकोर्ट के उपर है कि क्या करेगा. फिलहाल हमें अगली सुनवाई तक स्टे मिल गया है."
आधे डिप्रेशन में चले गए हैं
न्यूजलॉन्ड्री ने डिमोट कर दिए गए एक और कर्मचारी विनोद कुमार वर्मा से भी बात की. वह फोन रिसीव करते ही कहते हैं, "हम कल के बाद इस मामले पर बात करेंगे आज लखनऊ हाईकोर्ट में हमारा मामला पेश हुआ है. कल उसमें सुनवाई है."
आप सभी ने मिलकर कोर्ट का रुख किया है या आप अकेले ही पहुंचे हैं, इस पर वह कहते हैं, "मैं अकेला ही लखनऊ हाईकोर्ट पहुंचा हूं. कल इस मामले पर सुनवाई है जो भी कोर्ट का फैसला आएगा मैं उस पर आपसे बात करूंगा और बातऊंगा कि किया हुआ. कल आपके सभी सवालों का जवाब दूंगा.”
वह आगे कहते हैं, "इन्होंने कोर्ट के आदेश को मानकर हमें डिमोट कर दिया है जबकि कोर्ट ने तो ऐसा कोई आदेश ही नहीं दिया था. एक व्यक्ति ने अपने प्रमोशन के लिए लिखा था, इस पर हाईकोर्ट ने कह दिया कि इन पर भी विचार किया जाए. उनके तथ्यों पर विचार करने की बजाय हमें ही डिमोट कर दिया गया. यह तो इन्होंने गलत किया ना. कोई भी कर्मचारी अपनी मांग तो रखेगा ही उसने रख दी. अब कल देखते हैं इसमें क्या होता है उसके बाद हम आप से बात करेंगे."
उन्होंने बताया, "एक साल बाद मेरा रिटायरमेंट है. 37 साल नौकरी की है. लेकन इन 37 सालों में एक भी बार उनका प्रमोशन नहीं किया गया है. जबकि हाईकोर्ट का खुद ही नियम है कि कम से कम आदमी को उसकी सर्विस में तीन प्रमोशन मिलने चाहिए. पूरी सर्विस में कोई प्रमोशन नहीं हुआ जो एक हुआ भी उसे भी इन्होंने रिवर्ट कर दिया."
वह कहते हैं कि आधे डिप्रेशन में चले गए हैं. जो हुआ है, गलत हुआ है.
इस बारे में न्यूज़लॉन्ड्री ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सूचना सलाहकार शलभमणि त्रिपाठी से भी बात की. इस पर वह कहते हैं. "ऐसे बहुत से लोग डिमोट किए गए हैं. पिछले दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एसडीएम रैंक के एक अधिकारी को भी डिमोट कर तहसीलदार बना दिया गया था. इसके दो-तीन क्राइटेरिया हैं जिसके तहत ऐसा होता है. एक तो जिनकी परफॉर्मेंस बहुत खराब रहती है, दूसरा जिनकी फाइलें भ्रष्टाचार से जुड़ी हुई हैं. ऐसे भी बहुत सारे लोगों को डिमोट किया गया है जिन्होंने गलत तरीके से या जुगाड़ लगाकर प्रमोशन करा लिए थे जबकि वो उस प्रमोशन के हकदार नहीं थे."
लेकिन इन चारों के मामले में तो ऐसा नहीं है, इनका कहना है कि इन्हें तो अच्छे काम के लिए कई बार सम्मानित भी किया गया है. फिर इन्हें क्यों अपर जिला सूचना अधिकारी से चपरासी और चौकीदार बना दिया गया है? इस सवाल पर शलभ कहते हैं, "इस बारे में हमें थोड़ा जानना पड़ेगा. इस केस की मुझे ठीक से जानकारी नहीं है कि इनका क्या मामला था, लेकिन जो भी लोग 2017 के बाद से उत्तर प्रदेश में डिमोट हुए हैं उनका यही कारण है जो मैंने बताया है."
इस बारे में न्यूज़लॉन्ड्री ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकील और बार एसोसिएशन के कोषाध्यक्ष विन्देश्वरी प्रसाद गुप्ता से भी बात की. इन चारों लोगों का प्रमोशन एक प्रोसेस के तहत हुआ था. जिसमें वैकेंसी निकाली गईं. आईएस अधिकारियों ने एक कमेटी का गठन किया. जिसमें अधिकारियों ने इनके डॉक्यूमेंट देखने और साक्षात्कार के बाद प्रमोशन किया, फिर इनके साथ ऐसा क्यों हुआ? इस सवाल पर गुप्ता कहते हैं, "यह पैनल ने गलत किया है. यह इस कमेटी को बताना पड़ेगा कि किस कानून के तहत इनका प्रमोशन किया गया था. जब एक प्रोसेस के तहत इनका प्रमोशन हुआ है तो फिर इन्हें नहीं हटाना चाहिए था."
वह कहते हैं, "अगर लॉ के अनुसार कोई विज्ञप्ति निकाली गई है और उसका एडवरटाइजमेंट हुआ है तो अगर विज्ञप्ति के अनुसार लोगों ने अप्लाई किया और वह क्वालीफाई कर गए तो उन्हें हटाया नहीं जा सकता है. हटाया तभी जा सकता है जब विज्ञप्ति में कोई कमी रही होगी. जैसे आपने किसी लोकल अखबार में जिसका सर्कुलेशन ज्यादा न हो. उसमें विज्ञापन निकाला और आठ दिन बाद आपने परीक्षा रख दी तो यह गलत है. विज्ञप्ति ऐसे अखबार में निकाली जाती है जिसका ठीक ठाक सर्कुलेशन हो, लोग पढ़ते हों इसके बाद कम से कम एक महीने का समय देना होता है. अगर इन अधिकारियों ने गलत किया है तो फिर उन्हें सजा भी होनी चाहिए."
इलाहाबाद हाईकोर्ट का वह आदेश जिसके बाद यूपी सरकार ने अधिकारियों को किया था डिमोट
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दिया योगी सरकार के फैसले पर स्टे
यह कितनी हैरानी वाली बात है कि जिस खबर को यह कहकर चलाया गया कि हाईकोर्ट के फैसले के बाद सरकार ने चार अपर जिला सूचना अधिकारियों को बनाया चपरासी और चौकीदार. अब कोर्ट ने ही उस पर स्टे दे दिया है. ऐसा लग रहा है जैसे कोर्ट ने अपने फैसले पर ही स्टे दे दिया हो.
अपर जिला सूचना अधिकारी से चौकीदार बनाए गए दयाशंकर कहते हैं, "अब यह मामला कोर्ट में चल रहा है. कोर्ट ने हमें स्टे दे दिया है. फिलहाल हम उसी पोस्ट पर काम कर रहे हैं. यह स्टे कोर्ट ने 19 जनवरी को दिया है."
वह कहते हैं, "सरकार के फैसले का कोई आधार और नियम ही नहीं था. क्योंकि इसमें कुछ उल्लेख नहीं किया. सरकार ने अपने ऑर्डर में कहा था कि इनका प्रमोशन नियम विरूद्ध है. अब क्या नियम विरूद्ध है इसका तो कारण बताना चाहिए था. सरकार ने हवा में ही यह ऑर्डर पास कर दिया था. इसमें कोई जांच भी नहीं की गई. एक अधिकारी को सरकार कैसे चपरासी बना सकती है. यह तो एक तरह से पनिशमेंट हो गया. और पनिशमेंट तब मिलता है जब कोई अपराध किया हो. अपराध सिद्ध करने के लिए जांच कमेटियां बैठती हैं, सरकार ने कोई अपराध तक नहीं खोला कि हमारा क्या अपराध था जो डिमोट कर दिया गया था."
वहीं इस मामले पर जिला सूचना अधिकारी से सिनेमा ऑपरेटर कम प्रचार सहायक बनाए गए विनोद शर्मा कहते हैं, "अब हमें इस माममे में स्टे मिल गया है. सरकार को अपना पक्ष रखने के लिए कोर्ट में बुलाया गया है. अब देखते हैं कि सरकार कोर्ट में अपना क्या पक्ष रखती है. हम फिलहाल अभी चारों दोबारा से उसी पोस्ट (अपर जिला सूचना अधिकारी) पर तैनात हैं. उम्मीद है जल्दी ही यह आदेश ही खारिज कर दिया जाएगा जबकि सरकार चाहती है कि हम जो स्टे लेकर आए हैं वह कैंसिल हो जाए. इसलिए अब यह दोनों की अपनी लड़ाई है. लेकिन अब यह हाईकोर्ट के उपर है कि क्या करेगा. फिलहाल हमें अगली सुनवाई तक स्टे मिल गया है."