अपने अभिभाषण में भी राष्ट्रपति यह कहते पाये जाते हैं कि ‘मेरी सरकार’ या ‘हमारी सरकार’ ने ये किया, वो किया… इससे कई नादान लोगों को खामख्वाह ये मुगालता हो जाता है कि राष्ट्रपति निरपेक्ष नहीं हैं.
फिलहाल प्रधानमंत्री ने जब यह कहा तो उसका मौलिक संदर्भ यह था कि देश में मानव अधिकारों के हनन की अब इतनी वारदातें हो चुकीं हैं कि घड़े में पाप जमा होकर उगलने की सी सूरत बन गयी है. चूंकि घड़ा लगातार वारदातों की खबरें उगल रहा है तो राह चलते लोगों का ध्यान उस पर जा रहा है. न केवल ध्यान जा रहा है बल्कि तेज़ी से ध्यान जा रहा है. इन्टरनेट की गति प्रकाश की गति से भी तेज़ हुई जा रही है. तो लोगों के ध्यान में ये सब आ रहा है. लोग हैं और संवेदनशील लोग हैं, तो इन बहती हुई वारदातों पर सरकार को आगाह कर दे रहे हैं कि भाई- अब मोटर बंद करो, पानी बह रहा है टाइप से, जैसे अक्सर पड़ोसी करते हैं.
प्रथम दृष्ट्या ये वाजिब बात है. कोई बहते हुए पानी को लेकर संवेदनशील है, चिंतित है तो इसमें बुरा क्या मनाना, लेकिन प्रधानमंत्री को लगता है कि ये अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप कहलाएगा. और इसलिए ‘जल ही जीवन है’, ‘पानी है तो कल है’ या ‘मानव अधिकारों से खिलवाड़ कब तक’? जैसी बातें जो राह चलते लोग बोल रहे हैं उन पर कान नहीं देना है, ये डिस्ट्रक्टिव आइडियॉलॉजी है जो विदेश से आ रही है.
लेकिन यह इस संदर्भ की तात्कालिक व्याख्या भर है. इसकी ऐतिहासिक व्याख्या और दीर्घकालीन व्याख्या यह है कि यदा यदा ही देश-दुनिया में पूंजीवाद अपनी ही बनायी भूलभुलैया में फंसता है और लोगों को दिखाये हसीन सपने डिलीवर करने में चूकने लगता है. शनै: शनै: लोगों का आकर्षण उससे हटने लगता है और मुनाफा नामक अंतिम उत्पाद के उत्पादन में बेतहाशा क्षरण होने लगता है. तब जर्मनी में पैदा हुई एक विचारधारा पूंजीवाद से सताये लोगों को सहारा देने खड़ी हो जाती है. वो किसानों के बीच, मजदूरों के बीच, कल-कारखानों में, दफ्तरों में, बैंकों में, परिवहन में, कालेजों में, विश्वविद्यालयों में जा बैठती है. लोगों की चिंताओं, सपनों को स्वर देने लगती है. मुक्ति की प्रार्थना गीत बनकर सताये लोगों का कंठहार बन जाती है. तब यह निज़ाम के लिए ज़रूरी हो जाता है कि ऐसी जुंबिशों को डिस्ट्रक्टिव बताया जाये.
यहां प्रधानमंत्री ने इस बात का भी ख्याल रखा है क्योंकि कोरोनाजनित ‘आपदा में अवसर’ तलाशते हुए इन्हीं मार्गों पर कंटक बिछाए गए हैं जहां से इस विचारधारा के फूल उगने तय हैं. यह युद्ध की तैयारी है.
प्रधानमंत्री तमाम टोना-पद्धतियों से लैस होने के बावजूद यहां भी दो अर्थों की गुंजाइश छोड़ गए, लेकिन उन्हें भरोसा है कि उन्होंने जिन्हें संबोधित किया है वे इस दूसरे अर्थ को कभी नहीं खोलेंगे या उनमें इतना हुनर नहीं है. वो अर्थ यह है कि अगर जर्मनी में पैदा और विकसित हुई विचारधारा से परहेज करना है तो क्या इटली में पैदा हुई और जर्मनी में भी एक दौर में अपनायी गयी विचारधारा को अंगीकार किया जाना है? संभव है उन्होंने इसी विचारधारा को डिस्ट्रक्टिव कहकर गुनाह की माफी मांगी हो, लेकिन उनका अंदाज़ ऐसा रहा कि लोगों ने उसे आत्म-स्वीकृति न समझकर आरोपण समझ लिया है? बात और बात के अंदाज़ से उनके अर्थ यहां- वहां हो जाने का खतरा बना रहता है जिसे लोग अपने अपने नज़रिये से ग्रहण करने के लिए स्वतंत्र होते हैं. कन्फ़्यूजन की इस स्थिति में आप दोनों अर्थों को कढ़ी बनाने में इस्तेमाल कर सकते हैं.
अब आते हैं प्रसंग पर- यहां भी फौरी और दीर्घकालीन मामला है. फौरी ये है कि पड़ोसी या राह चलते अंजान व्यक्ति को घर के मामले में तांक-झांक की इजाजत नहीं देना है और उनकी बातों पर ध्यान न देने की नसीहत दी गयी है क्योंकि इससे घर की बदनामी होती है. बदनामी के साथ एक बहुत सब्जेक्टिव सहूलियत ये है कि यह आपके मानने पर है. आप चाहें तो उस कृत्य को बदनामी मान सकते हैं जिसके कारण किसी को कुछ कहने का मौका मिला है. आप चाहें तो उस कहे हुए को बदनामी माने. प्रमं ने यहां दूसरी बात को बदनामी का सबब माना है. कृत्य को सही ठहराने के लिए यह ज़रूरी है कि उस पर हुई बदनामी को डिस्क्रेडिट कर दिया जाये.
प्रसंग में दीर्घकालीन मामला ये है कि इसी दुनिया में जर्मनी नामक एक देश में एक शासक ऐसा हुआ है जिसका अंदाज़-ए बयान, चाल-चलन, चरित्र आदि प्रमं से मिलता है और अनायास नहीं बल्कि बजाफ़्ता आयातित है. वो है उस शासक के नक्श-ए-कदम. तो जब वो शासक ऐसी ही परिस्थिति में फंसा तो उसने ऐसा ही रूपक रचा था. एक जमात को कुछ नाम दिया, उस जमात की विचारधारा, उसकी नस्ल, उसके रंग, रूप को निंदनीय बतलाया, समाज और देश के लिए खतरा बतलाया. इस तरह सोचने से हालांकि ‘शेष बची चौथाई रात’ की तसल्ली मिलती है. अपनी रेसिपी में आप प्रसंग के दूसरे हिस्से का ही उपयोग करें तो, जायका बनेगा.
अब आते हैं अंतिम बात पर और वो है व्याख्या, जिससे सब बचते हैं. बचते इसलिए हैं कि ऐसे आलम में जिसका प्रसंग एक ऐतिहासिक शासक की साम्यता पर टिका हो तब व्याख्या करने के खतरे बढ़ जाते हैं. फिर भी कढ़ी बनाना है तो उसके अवयवों को इकट्ठा तो करना पड़ेगा न, साधौ. तो व्याख्या बहुत सिंपल है. मानव अधिकारों पर राज्य प्रायोजित जो छोटी-बड़ी वारदातें की जा रही हैं और मानव कल्याण के तमाम दावे, वादे, खाली कनस्तर की आवाज़ें निकाल रहे हैं तब सिवाय भयंकर अराजकता फैलाने के कोई ऐसा मार्ग नहीं बचता है जिससे किले को अभेद्य रखा जा सके.
राज्य का गठन हिंसा के केन्द्रीय दमन की ज़रूरी यान्त्रिकी के तौर पर भी हुआ था और इसलिए उसमें दमन की तमाम केंद्रीय शक्तियाँ अंतर्निहित की गईं थीं. इन शक्तियों के बल पर ही यह कल्पना लोक रचा गया था कि इतनी शक्तियों से सम्पन्न राज्य नामक यह यान्त्रिकी लोगों का कल्याण कर सकेगी. हालात अब कल्याण की अवधारणा से ऊपर निकल चुके हैं और असंतोष की बाढ़ खतरे के निशान से ऊपर बह रही है तो इस शक्तिसम्पन्न राज्य के सामने वो परिस्थितियां पैदा किया जाना समय की मांग है ताकि राज्य और उसका विधान और उसे संचालित कर रही मौजूदा सरकार अपने होने की ज़रूरत को बनाए रख सकें. आपको क्या लगता है नक्श-ए-कदम से यह नहीं सीखा होगा?
तो ले लीजिए इस व्याख्या को भी और अब देगची में उबाल आने का इंतज़ार कीजिए. बीच-बीच में कलछी चलाते रहिएगा. कहीं कढ़ी देगची से चिपके न इसका ख्याल रखिए. जब कलछी चलाएं तो देखते रहिए त्रेता, द्वापर, मर्यादा और लीला के बीच आपको कहीं-कहीं विविधतता से परिपूर्ण लोकतंत्र का लदर-फदर टुकड़ा डोलते नज़र आएगा. उसकी परवाह नहीं करना है, वह जायके में प्रकट होगा.
फिलहाल प्रधानमंत्री ने जब यह कहा तो उसका मौलिक संदर्भ यह था कि देश में मानव अधिकारों के हनन की अब इतनी वारदातें हो चुकीं हैं कि घड़े में पाप जमा होकर उगलने की सी सूरत बन गयी है. चूंकि घड़ा लगातार वारदातों की खबरें उगल रहा है तो राह चलते लोगों का ध्यान उस पर जा रहा है. न केवल ध्यान जा रहा है बल्कि तेज़ी से ध्यान जा रहा है. इन्टरनेट की गति प्रकाश की गति से भी तेज़ हुई जा रही है. तो लोगों के ध्यान में ये सब आ रहा है. लोग हैं और संवेदनशील लोग हैं, तो इन बहती हुई वारदातों पर सरकार को आगाह कर दे रहे हैं कि भाई- अब मोटर बंद करो, पानी बह रहा है टाइप से, जैसे अक्सर पड़ोसी करते हैं.
प्रथम दृष्ट्या ये वाजिब बात है. कोई बहते हुए पानी को लेकर संवेदनशील है, चिंतित है तो इसमें बुरा क्या मनाना, लेकिन प्रधानमंत्री को लगता है कि ये अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप कहलाएगा. और इसलिए ‘जल ही जीवन है’, ‘पानी है तो कल है’ या ‘मानव अधिकारों से खिलवाड़ कब तक’? जैसी बातें जो राह चलते लोग बोल रहे हैं उन पर कान नहीं देना है, ये डिस्ट्रक्टिव आइडियॉलॉजी है जो विदेश से आ रही है.
लेकिन यह इस संदर्भ की तात्कालिक व्याख्या भर है. इसकी ऐतिहासिक व्याख्या और दीर्घकालीन व्याख्या यह है कि यदा यदा ही देश-दुनिया में पूंजीवाद अपनी ही बनायी भूलभुलैया में फंसता है और लोगों को दिखाये हसीन सपने डिलीवर करने में चूकने लगता है. शनै: शनै: लोगों का आकर्षण उससे हटने लगता है और मुनाफा नामक अंतिम उत्पाद के उत्पादन में बेतहाशा क्षरण होने लगता है. तब जर्मनी में पैदा हुई एक विचारधारा पूंजीवाद से सताये लोगों को सहारा देने खड़ी हो जाती है. वो किसानों के बीच, मजदूरों के बीच, कल-कारखानों में, दफ्तरों में, बैंकों में, परिवहन में, कालेजों में, विश्वविद्यालयों में जा बैठती है. लोगों की चिंताओं, सपनों को स्वर देने लगती है. मुक्ति की प्रार्थना गीत बनकर सताये लोगों का कंठहार बन जाती है. तब यह निज़ाम के लिए ज़रूरी हो जाता है कि ऐसी जुंबिशों को डिस्ट्रक्टिव बताया जाये.
यहां प्रधानमंत्री ने इस बात का भी ख्याल रखा है क्योंकि कोरोनाजनित ‘आपदा में अवसर’ तलाशते हुए इन्हीं मार्गों पर कंटक बिछाए गए हैं जहां से इस विचारधारा के फूल उगने तय हैं. यह युद्ध की तैयारी है.
प्रधानमंत्री तमाम टोना-पद्धतियों से लैस होने के बावजूद यहां भी दो अर्थों की गुंजाइश छोड़ गए, लेकिन उन्हें भरोसा है कि उन्होंने जिन्हें संबोधित किया है वे इस दूसरे अर्थ को कभी नहीं खोलेंगे या उनमें इतना हुनर नहीं है. वो अर्थ यह है कि अगर जर्मनी में पैदा और विकसित हुई विचारधारा से परहेज करना है तो क्या इटली में पैदा हुई और जर्मनी में भी एक दौर में अपनायी गयी विचारधारा को अंगीकार किया जाना है? संभव है उन्होंने इसी विचारधारा को डिस्ट्रक्टिव कहकर गुनाह की माफी मांगी हो, लेकिन उनका अंदाज़ ऐसा रहा कि लोगों ने उसे आत्म-स्वीकृति न समझकर आरोपण समझ लिया है? बात और बात के अंदाज़ से उनके अर्थ यहां- वहां हो जाने का खतरा बना रहता है जिसे लोग अपने अपने नज़रिये से ग्रहण करने के लिए स्वतंत्र होते हैं. कन्फ़्यूजन की इस स्थिति में आप दोनों अर्थों को कढ़ी बनाने में इस्तेमाल कर सकते हैं.
अब आते हैं प्रसंग पर- यहां भी फौरी और दीर्घकालीन मामला है. फौरी ये है कि पड़ोसी या राह चलते अंजान व्यक्ति को घर के मामले में तांक-झांक की इजाजत नहीं देना है और उनकी बातों पर ध्यान न देने की नसीहत दी गयी है क्योंकि इससे घर की बदनामी होती है. बदनामी के साथ एक बहुत सब्जेक्टिव सहूलियत ये है कि यह आपके मानने पर है. आप चाहें तो उस कृत्य को बदनामी मान सकते हैं जिसके कारण किसी को कुछ कहने का मौका मिला है. आप चाहें तो उस कहे हुए को बदनामी माने. प्रमं ने यहां दूसरी बात को बदनामी का सबब माना है. कृत्य को सही ठहराने के लिए यह ज़रूरी है कि उस पर हुई बदनामी को डिस्क्रेडिट कर दिया जाये.
प्रसंग में दीर्घकालीन मामला ये है कि इसी दुनिया में जर्मनी नामक एक देश में एक शासक ऐसा हुआ है जिसका अंदाज़-ए बयान, चाल-चलन, चरित्र आदि प्रमं से मिलता है और अनायास नहीं बल्कि बजाफ़्ता आयातित है. वो है उस शासक के नक्श-ए-कदम. तो जब वो शासक ऐसी ही परिस्थिति में फंसा तो उसने ऐसा ही रूपक रचा था. एक जमात को कुछ नाम दिया, उस जमात की विचारधारा, उसकी नस्ल, उसके रंग, रूप को निंदनीय बतलाया, समाज और देश के लिए खतरा बतलाया. इस तरह सोचने से हालांकि ‘शेष बची चौथाई रात’ की तसल्ली मिलती है. अपनी रेसिपी में आप प्रसंग के दूसरे हिस्से का ही उपयोग करें तो, जायका बनेगा.
अब आते हैं अंतिम बात पर और वो है व्याख्या, जिससे सब बचते हैं. बचते इसलिए हैं कि ऐसे आलम में जिसका प्रसंग एक ऐतिहासिक शासक की साम्यता पर टिका हो तब व्याख्या करने के खतरे बढ़ जाते हैं. फिर भी कढ़ी बनाना है तो उसके अवयवों को इकट्ठा तो करना पड़ेगा न, साधौ. तो व्याख्या बहुत सिंपल है. मानव अधिकारों पर राज्य प्रायोजित जो छोटी-बड़ी वारदातें की जा रही हैं और मानव कल्याण के तमाम दावे, वादे, खाली कनस्तर की आवाज़ें निकाल रहे हैं तब सिवाय भयंकर अराजकता फैलाने के कोई ऐसा मार्ग नहीं बचता है जिससे किले को अभेद्य रखा जा सके.
राज्य का गठन हिंसा के केन्द्रीय दमन की ज़रूरी यान्त्रिकी के तौर पर भी हुआ था और इसलिए उसमें दमन की तमाम केंद्रीय शक्तियाँ अंतर्निहित की गईं थीं. इन शक्तियों के बल पर ही यह कल्पना लोक रचा गया था कि इतनी शक्तियों से सम्पन्न राज्य नामक यह यान्त्रिकी लोगों का कल्याण कर सकेगी. हालात अब कल्याण की अवधारणा से ऊपर निकल चुके हैं और असंतोष की बाढ़ खतरे के निशान से ऊपर बह रही है तो इस शक्तिसम्पन्न राज्य के सामने वो परिस्थितियां पैदा किया जाना समय की मांग है ताकि राज्य और उसका विधान और उसे संचालित कर रही मौजूदा सरकार अपने होने की ज़रूरत को बनाए रख सकें. आपको क्या लगता है नक्श-ए-कदम से यह नहीं सीखा होगा?
तो ले लीजिए इस व्याख्या को भी और अब देगची में उबाल आने का इंतज़ार कीजिए. बीच-बीच में कलछी चलाते रहिएगा. कहीं कढ़ी देगची से चिपके न इसका ख्याल रखिए. जब कलछी चलाएं तो देखते रहिए त्रेता, द्वापर, मर्यादा और लीला के बीच आपको कहीं-कहीं विविधतता से परिपूर्ण लोकतंत्र का लदर-फदर टुकड़ा डोलते नज़र आएगा. उसकी परवाह नहीं करना है, वह जायके में प्रकट होगा.