इस पखवाड़े आम इंसान में उभरती आत्मनिर्भरता की कुछ छवियां हिंदी के अखबारों के आइने में देखिए. केवल इसलिए नहीं कि 2021-22 के बजट का मूलमंत्र आत्मनिर्भरता है. इसलिए भी क्योंकि काफी सोच-समझ कर ऑक्सफर्ड डिक्शनरी वालों ने 2020 का शब्द ‘आत्मनिर्भरता’ को चुना है.
दो खास खबरें
आत्मनिर्भरता के नाम पर अभियान तो वैसे हर भाजपा शासित राज्य में चल रहे हैं, लेकिन पिछले पखवाड़े छपी दो खबरों का जिक्र अलग से करना ज़रूरी लगता है. एक बिहार से है और दूसरी कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ से.
बिहार का दैनिक हिंदुस्तान खुशी-खुशी ऐलान करता है कि सरकारी स्कूलों से 40 लाख बच्चे कम हो गये हैं. अखबार लिखता है कि शिक्षा के प्रति सजगता और पैसे होने के कारण निम्न मध्यवर्ग के लोग भी अब अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेज रहे हैं. दूसरा कारण, सरकारी स्कूल 4 बजे तक होते हैं जबकि निजी स्कूलों में 2 बजे छुट्टी हो जाती है. तीसरा कारण डुप्लिकेसी का रुकना है. खबर देखिए:
खबर में दो प्रतिक्रियाएं हैं. दोनों ही सरकारी स्कूल में संख्या घटने को सकारात्मक बताती हैं. इनमें एक सज्जन प्रधान सचिव, शिक्षा विभाग, श्री संजय कुमार हैं. क्या ही विडम्बना है कि संजय कुमार खुद सरकारी नौकर हैं लेकिन इस बात से खुश हैं कि सरकारी स्कूल के ऊपर जनता की निर्भरता कम हो गयी है और लोग आत्मनिर्भर हो रहे हैं.
यहां खबर लेखन की कलाकारी तो साफ़ दिखती ही है लेकिन नीतिगत स्तर पर सार्वजनिक सेवाओं और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के लिए एक नफ़रत भी साफ़ झलकती है. ऐसा लगता है कि बिहार के शिक्षा विभाग ने ही अकेले प्रधानमंत्री के नारे का मर्म समझा है.
छत्तीसगढ़ में ये कहानी एक अलग ही आयाम ले लेती है क्योंकि वहां बच्चों की नहीं, किसानों की बात है जो दो महीने से ज्यादा वक्त से दिल्ली की सरहदों पर डेरा डाले हुए हैं. पहले खबर देखिए:
अब छत्तीसगढ़ के किसान खुद का कल्याण करेंगे, खबर का शीर्षक ये कहता है. 13 साल पहले किसानों के कल्याण के लिए एक परिषद बनायी गयी थी. खबर के अनुसार अब तक राज्य कृषक कल्याण परिषद किसानों का कुछ खास कल्याण नहीं कर पायी है. फिर अब क्या नया हो गया जो किसान खुद अपना कल्याण कर लेगा? खबर के मुताबिक भूपेश बघेल की सरकार ने इसका पुनर्गठन कर दिया है. गोया बस इसी की देरी थी, अब तो किसान आत्मनिर्भर हो ही जाएगा!
आत्मनिर्भर पत्रकार का क्या होगा?
किसानों के आत्मनिर्भर होने की हालांकि एक ही शर्त है: जैसे सरकार चाहेगी वैसे उसे आत्मनिर्भर होना पड़ेगा. अपने तरीके से आत्मनिर्भर हुए तो वही होगा जो दिल्ली में 26 जनवरी को हुआ और अखबारों को ऐसी आत्मनिर्भरता कतई पसंद नहीं आएगी. फिर वही छपेगा, जो सब अखबारों में 27 जनवरी की सुबह छपा. किसानों की आत्मनिर्भरता अखबारों के लेख आतंकवाद है, अराजकता है, गुंडई है. विश्वास न हो तो दैनिक जागरण के वरिष्ठ संपादक राजीव सचान का लेख देखिए- बाकायदे शीर्षक में गुंडागर्दी लिखा है. ये बात अलग है कि सचान खुद आत्मनिर्भर कभी नहीं रहे पत्रकारिता के मामले में, वे पूरी तरह अपने मालिकान पर ही निर्भर हैं.
कुछ पुराने वामपंथियों की आत्मा भी 26 की घटना पर चीत्कार कर गयी. पुलिसवाले से कुलपति बनकर रिटायर हुए विभूति नारायण राय ने तो जल्दबाजी में सीधे लिख मारा कि किसान आंदोलन का यही ‘’हश्र’’ होना था. बमुश्किल दस दिन हुआ है उन्हें यह ‘हश्र’ दिखाए. अब, जबकि यूपी से लेकर हरियाणा और मध्यप्रदेश तक महापंचायतें हो रही हैं, वे अपने शब्द वापस नहीं ले सकते क्योंकि एक बार छपा हुआ शब्द वापस नहीं होता. इसीलिए शायद नामवर जी कहते थे- बोलने से ज़बान नहीं कटती, लिखने से हाथ कट जाता है!
इस मामले में विशेष रूप से नवभारत टाइम्स का जि़क्र किया जाना होगा जो आंतरिक और बाहरी सेंसरशिप के इस ख़तरनाक दौर में अपने एडिट पेज पर इलाहाबाद के पुराने और जुझारू माले नेता लालबहादुर सिंह का उत्साहवर्द्धक लेख लीड पीस के रूप में छाप देता है. अब, अखबार भले कारोबार हो गये हों लेकिन पन्ना प्रभारी की छाप तो दिखती ही है पन्ने पर. पिछले दिनों अरब स्प्रिंग की विफलता पर इसी पन्ने पर चंद्रभूषण जी का लेख पठनीय रहा. वे नभाटा के संपादकीय प्रभारी हैं. इस किसान आंदोलन के दौरान उन्होंने नभाटा के संपादकीय पन्ने को जिस तरह संभाले रखा है, यह पत्रकारीय आत्मनिर्भरता की एक छोटी सही, लेकिन नोट करने लायक बात है.
पत्रकार का आत्मनिर्भर होना इस दौर में सबसे जोखिम भरी परिघटना है. कितने अफ़सोस की बात है कि 30 जनवरी की शाम दिल्ली के सिंघु बॉर्डर से मनदीप पुनिया और धर्मेंद्र सिंह की गिरफ्तारी को हिंदी के अखबारों ने कवर नहीं किया. धर्मेंद्र सिंह पूर्णत: आत्मनिर्भर हैं, अपना यूट्यूब चैनल चलाते हैं. आत्मनिर्भर मनदीप भी हैं, लेकिन उनकी अपनी दुकान नहीं है. वे 26 नवंबर के पहले से ही जनपथ डॉट कॉम के लिए किसान आंदोलन को नियमित कवर कर रहे थे और इस बीच उन्होंने अंग्रेजी की पत्रिका दि कारवां में दो स्टोरी लिखी थीं.
पत्रकारों के लिए आत्मनिर्भरता कितनी बुरी शै है, इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि जब अदालत में मनदीप से प्रेस कार्ड मांगा गया तो वे कुछ नहीं दिखा सके. जनपथ खुद ऐसा आत्मनिर्भर मंच है कि 10 साल से बेरोज़गार उसके संचालक के पास अपना खुद का प्रेस कार्ड नहीं है, तो वो मनदीप की ओनरशिप लेने क्या खाकर आते? फिर आनन-फानन में दि कारवां ने एक चिट्ठी जारी की कंट्रीब्यूटर की, जिसे अदालत में पूरी तरह कारगर नहीं माना गया. अंतत:, इंडिया टुडे ग्रुप से मनदीप को दो साल पहले मिला रिटेनरशिप वाला पुराना अस्थायी कार्ड खोजा गया. अस्तु, किसी तरह ज़मानत हुई.
अगर आपको लगता है कि मामला केवल एक अदद प्रेस कार्ड तक सीमित है तो न्यूज़लॉन्ड्री की रिपोर्टर निधि सुरेश के अनुभव आपके काम के हैं. उन्हें सिंघु बॉर्डर पर किसानों के बीच जाने से इसलिए रोका गया क्योंकि उनके पास ‘’राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त’’ प्रेस कार्ड नहीं था! अब ये “राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त” क्या बला है भला?
जैसा मैंने पहले कहा, सरकार को वैसे ही आत्मनिर्भर किसान पसंद हैं जो उसके तरीके से आत्मनिर्भर हों. इस लिहाज से राष्ट्रीय और मान्यता प्राप्त पत्रकार का सीधा मतलब है कि आप निर्भर पत्रकार हों या आत्मनिर्भर, दोनों ही स्थितियों में आपको सरकार के हिसाब से निर्भर या आत्मनिर्भर होना होगा. क्या समझे?
नरेंद्र मोदी का आत्मनिर्भर भारत अभियान अपने मूल में मोदी-निर्भर अभियान है जहां आत्मनिर्भरता को मोदी सरकार से मान्यता प्राप्त होना पड़ेगा. ऐसे ही नहीं इस देश में कोई भी आत्मनिर्भर हो जाएगा!
दो खास खबरें
आत्मनिर्भरता के नाम पर अभियान तो वैसे हर भाजपा शासित राज्य में चल रहे हैं, लेकिन पिछले पखवाड़े छपी दो खबरों का जिक्र अलग से करना ज़रूरी लगता है. एक बिहार से है और दूसरी कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ से.
बिहार का दैनिक हिंदुस्तान खुशी-खुशी ऐलान करता है कि सरकारी स्कूलों से 40 लाख बच्चे कम हो गये हैं. अखबार लिखता है कि शिक्षा के प्रति सजगता और पैसे होने के कारण निम्न मध्यवर्ग के लोग भी अब अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेज रहे हैं. दूसरा कारण, सरकारी स्कूल 4 बजे तक होते हैं जबकि निजी स्कूलों में 2 बजे छुट्टी हो जाती है. तीसरा कारण डुप्लिकेसी का रुकना है. खबर देखिए:
खबर में दो प्रतिक्रियाएं हैं. दोनों ही सरकारी स्कूल में संख्या घटने को सकारात्मक बताती हैं. इनमें एक सज्जन प्रधान सचिव, शिक्षा विभाग, श्री संजय कुमार हैं. क्या ही विडम्बना है कि संजय कुमार खुद सरकारी नौकर हैं लेकिन इस बात से खुश हैं कि सरकारी स्कूल के ऊपर जनता की निर्भरता कम हो गयी है और लोग आत्मनिर्भर हो रहे हैं.
यहां खबर लेखन की कलाकारी तो साफ़ दिखती ही है लेकिन नीतिगत स्तर पर सार्वजनिक सेवाओं और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के लिए एक नफ़रत भी साफ़ झलकती है. ऐसा लगता है कि बिहार के शिक्षा विभाग ने ही अकेले प्रधानमंत्री के नारे का मर्म समझा है.
छत्तीसगढ़ में ये कहानी एक अलग ही आयाम ले लेती है क्योंकि वहां बच्चों की नहीं, किसानों की बात है जो दो महीने से ज्यादा वक्त से दिल्ली की सरहदों पर डेरा डाले हुए हैं. पहले खबर देखिए:
अब छत्तीसगढ़ के किसान खुद का कल्याण करेंगे, खबर का शीर्षक ये कहता है. 13 साल पहले किसानों के कल्याण के लिए एक परिषद बनायी गयी थी. खबर के अनुसार अब तक राज्य कृषक कल्याण परिषद किसानों का कुछ खास कल्याण नहीं कर पायी है. फिर अब क्या नया हो गया जो किसान खुद अपना कल्याण कर लेगा? खबर के मुताबिक भूपेश बघेल की सरकार ने इसका पुनर्गठन कर दिया है. गोया बस इसी की देरी थी, अब तो किसान आत्मनिर्भर हो ही जाएगा!
आत्मनिर्भर पत्रकार का क्या होगा?
किसानों के आत्मनिर्भर होने की हालांकि एक ही शर्त है: जैसे सरकार चाहेगी वैसे उसे आत्मनिर्भर होना पड़ेगा. अपने तरीके से आत्मनिर्भर हुए तो वही होगा जो दिल्ली में 26 जनवरी को हुआ और अखबारों को ऐसी आत्मनिर्भरता कतई पसंद नहीं आएगी. फिर वही छपेगा, जो सब अखबारों में 27 जनवरी की सुबह छपा. किसानों की आत्मनिर्भरता अखबारों के लेख आतंकवाद है, अराजकता है, गुंडई है. विश्वास न हो तो दैनिक जागरण के वरिष्ठ संपादक राजीव सचान का लेख देखिए- बाकायदे शीर्षक में गुंडागर्दी लिखा है. ये बात अलग है कि सचान खुद आत्मनिर्भर कभी नहीं रहे पत्रकारिता के मामले में, वे पूरी तरह अपने मालिकान पर ही निर्भर हैं.
कुछ पुराने वामपंथियों की आत्मा भी 26 की घटना पर चीत्कार कर गयी. पुलिसवाले से कुलपति बनकर रिटायर हुए विभूति नारायण राय ने तो जल्दबाजी में सीधे लिख मारा कि किसान आंदोलन का यही ‘’हश्र’’ होना था. बमुश्किल दस दिन हुआ है उन्हें यह ‘हश्र’ दिखाए. अब, जबकि यूपी से लेकर हरियाणा और मध्यप्रदेश तक महापंचायतें हो रही हैं, वे अपने शब्द वापस नहीं ले सकते क्योंकि एक बार छपा हुआ शब्द वापस नहीं होता. इसीलिए शायद नामवर जी कहते थे- बोलने से ज़बान नहीं कटती, लिखने से हाथ कट जाता है!
इस मामले में विशेष रूप से नवभारत टाइम्स का जि़क्र किया जाना होगा जो आंतरिक और बाहरी सेंसरशिप के इस ख़तरनाक दौर में अपने एडिट पेज पर इलाहाबाद के पुराने और जुझारू माले नेता लालबहादुर सिंह का उत्साहवर्द्धक लेख लीड पीस के रूप में छाप देता है. अब, अखबार भले कारोबार हो गये हों लेकिन पन्ना प्रभारी की छाप तो दिखती ही है पन्ने पर. पिछले दिनों अरब स्प्रिंग की विफलता पर इसी पन्ने पर चंद्रभूषण जी का लेख पठनीय रहा. वे नभाटा के संपादकीय प्रभारी हैं. इस किसान आंदोलन के दौरान उन्होंने नभाटा के संपादकीय पन्ने को जिस तरह संभाले रखा है, यह पत्रकारीय आत्मनिर्भरता की एक छोटी सही, लेकिन नोट करने लायक बात है.
पत्रकार का आत्मनिर्भर होना इस दौर में सबसे जोखिम भरी परिघटना है. कितने अफ़सोस की बात है कि 30 जनवरी की शाम दिल्ली के सिंघु बॉर्डर से मनदीप पुनिया और धर्मेंद्र सिंह की गिरफ्तारी को हिंदी के अखबारों ने कवर नहीं किया. धर्मेंद्र सिंह पूर्णत: आत्मनिर्भर हैं, अपना यूट्यूब चैनल चलाते हैं. आत्मनिर्भर मनदीप भी हैं, लेकिन उनकी अपनी दुकान नहीं है. वे 26 नवंबर के पहले से ही जनपथ डॉट कॉम के लिए किसान आंदोलन को नियमित कवर कर रहे थे और इस बीच उन्होंने अंग्रेजी की पत्रिका दि कारवां में दो स्टोरी लिखी थीं.
पत्रकारों के लिए आत्मनिर्भरता कितनी बुरी शै है, इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि जब अदालत में मनदीप से प्रेस कार्ड मांगा गया तो वे कुछ नहीं दिखा सके. जनपथ खुद ऐसा आत्मनिर्भर मंच है कि 10 साल से बेरोज़गार उसके संचालक के पास अपना खुद का प्रेस कार्ड नहीं है, तो वो मनदीप की ओनरशिप लेने क्या खाकर आते? फिर आनन-फानन में दि कारवां ने एक चिट्ठी जारी की कंट्रीब्यूटर की, जिसे अदालत में पूरी तरह कारगर नहीं माना गया. अंतत:, इंडिया टुडे ग्रुप से मनदीप को दो साल पहले मिला रिटेनरशिप वाला पुराना अस्थायी कार्ड खोजा गया. अस्तु, किसी तरह ज़मानत हुई.
अगर आपको लगता है कि मामला केवल एक अदद प्रेस कार्ड तक सीमित है तो न्यूज़लॉन्ड्री की रिपोर्टर निधि सुरेश के अनुभव आपके काम के हैं. उन्हें सिंघु बॉर्डर पर किसानों के बीच जाने से इसलिए रोका गया क्योंकि उनके पास ‘’राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त’’ प्रेस कार्ड नहीं था! अब ये “राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त” क्या बला है भला?
जैसा मैंने पहले कहा, सरकार को वैसे ही आत्मनिर्भर किसान पसंद हैं जो उसके तरीके से आत्मनिर्भर हों. इस लिहाज से राष्ट्रीय और मान्यता प्राप्त पत्रकार का सीधा मतलब है कि आप निर्भर पत्रकार हों या आत्मनिर्भर, दोनों ही स्थितियों में आपको सरकार के हिसाब से निर्भर या आत्मनिर्भर होना होगा. क्या समझे?
नरेंद्र मोदी का आत्मनिर्भर भारत अभियान अपने मूल में मोदी-निर्भर अभियान है जहां आत्मनिर्भरता को मोदी सरकार से मान्यता प्राप्त होना पड़ेगा. ऐसे ही नहीं इस देश में कोई भी आत्मनिर्भर हो जाएगा!