ट्रैक्टर परेड की आड़ लेकर एंकर-एंकराओं ने फैलाया झूठ

दिन ब दिन की इंटरनेट बहसों और खबरिया चैनलों के रंगमंच पर संक्षिप्त टिप्पणी.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
Date:
   

लंबे समय बाद धृतराष्ट्र-संजय संवाद की वापसी हो रही है किसान आंदोलन के बहाने. इसके अलावा गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली में किसानों की ट्रैक्टर परेड से कुछ बेहद चिंता में डालने वाली तस्वीरें सामने आई. ऐसा लगा कि दो महीनों से शांति से चल रही किसानों का लोकतांत्रिक आंदोलन इस कारनामे की भेंट चढ़ जाएगा. दरअसल किसानों का एक गुट पूरी तरह से बेकाबू होकर तय रास्ते से अलग रास्ते पर निकल गया था.

इन्हें आप अराजक तत्व भी कह सकते हैं. इस हिंसा में कई पुलिस के जवान घायल हुए, कई किसान भी घायल हुए. किसान नेताओं ने अपने एक हिस्से द्वारा की गई इस धोखाधड़ी पर माफी मांगी है. लकिन यह सवाल तो खड़ा हो ही गया है कि किसान नेताओं का अपने लोगों पर पूरा, शत प्रतिशत नियंत्रण नहीं है.

दिल्ली में मची अफरा तफरी और खबरिया चैनलों द्वारा सनसनीखेज तरीके से की गई कवरेज इस पूरे घटनाक्रम को देखने का एकतरफा और इकहरा नजरिया है. जिस आंदोलन में लाखों की भीड़ हो, हजारों की संख्या में ट्रैक्टर हों उसमें से कुछ लोगों के बेकाबू हो जाने की सिर्फ एक व्याख्या नहीं हो सकती है. आप इस घटना को दूसरे नजरिए से समझने की कोशिश नहीं करेंगे तो इस वाकए को कभी समझ नहीं पाएंगे. किसान एक ऐसे कानून के खिलाफ लड़ रहे हैं जिसका संबंध सीधे उनकी जिंदगियों से है. ऐसा कानून जिसे सरकार ने चोर दरवाजे से, एक अध्यादेश के जरिए पास किया, जबरिया, अनैतिक तरीके से राज्यसभा में पास करवाया, इस कानून के संबंध में किसी तरह का कोई सलाह मशविरा न तो किसानों से किया ना ही विपक्षी दलों से कोई सामूहिक चर्चा हुई. लोकसभा में इसे संख्या की ताकत से पास करवाया गया. इस सबके बावजूद किसान दो महीने से वो बेहद संयम से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे रहे. इसे अगर आप उपलब्धि नही मानते या आपको लगता है की 26 जनवरी को पूरा का पूरा किसान आंदोलन हिंसक और अराजक है तो आपकी सोच में फंडामेंटल दिक्कत है.

करीब पांच हजार किसान लगभग तीन-चार सौ टैक्टरों के साथ लाल किले तक पहुंचे थे. इसके बरक्स इस आंदोलन में हिस्सा लेने वाले ट्रैक्टरों की संख्या अस्सी से नब्बे हजार थी. दो महीने से जो किसान दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर बैठे हैं उनकी संख्या डेढ़ से दो लाख के बीच है. अगर ये पूरा आंदोलन अराजक और हिंसक होता तो आप कल्पना नहीं कर सकते कि 26 जनवरी के दिन किस तरह के हालात बन सकते थे. टीवी वालों की गलाफाड़ स्पर्धा में फंसने से पहले अपने विवेक को तरजीह दीजिए. कुछ लोगों ने गलती की है, उन्हें इसकी सजा मिलनी चाहिए, लेकिन इसकी आड़ में आप पूरे आंदोलन को खारिज करने की जल्दबाजी मत कीजिए.

इस बार की टिप्पणी किसान आंदोलन से पैदा हुए हालात पर खबरिया चैनलों की गलतबयानी और गलत रिपोर्टिंग पर. देखें अपनी सलाह दें, वीडियो को लाइक करें, शेयर करें

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इन्हें आप अराजक तत्व भी कह सकते हैं. इस हिंसा में कई पुलिस के जवान घायल हुए, कई किसान भी घायल हुए. किसान नेताओं ने अपने एक हिस्से द्वारा की गई इस धोखाधड़ी पर माफी मांगी है. लकिन यह सवाल तो खड़ा हो ही गया है कि किसान नेताओं का अपने लोगों पर पूरा, शत प्रतिशत नियंत्रण नहीं है.

दिल्ली में मची अफरा तफरी और खबरिया चैनलों द्वारा सनसनीखेज तरीके से की गई कवरेज इस पूरे घटनाक्रम को देखने का एकतरफा और इकहरा नजरिया है. जिस आंदोलन में लाखों की भीड़ हो, हजारों की संख्या में ट्रैक्टर हों उसमें से कुछ लोगों के बेकाबू हो जाने की सिर्फ एक व्याख्या नहीं हो सकती है. आप इस घटना को दूसरे नजरिए से समझने की कोशिश नहीं करेंगे तो इस वाकए को कभी समझ नहीं पाएंगे. किसान एक ऐसे कानून के खिलाफ लड़ रहे हैं जिसका संबंध सीधे उनकी जिंदगियों से है. ऐसा कानून जिसे सरकार ने चोर दरवाजे से, एक अध्यादेश के जरिए पास किया, जबरिया, अनैतिक तरीके से राज्यसभा में पास करवाया, इस कानून के संबंध में किसी तरह का कोई सलाह मशविरा न तो किसानों से किया ना ही विपक्षी दलों से कोई सामूहिक चर्चा हुई. लोकसभा में इसे संख्या की ताकत से पास करवाया गया. इस सबके बावजूद किसान दो महीने से वो बेहद संयम से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे रहे. इसे अगर आप उपलब्धि नही मानते या आपको लगता है की 26 जनवरी को पूरा का पूरा किसान आंदोलन हिंसक और अराजक है तो आपकी सोच में फंडामेंटल दिक्कत है.

करीब पांच हजार किसान लगभग तीन-चार सौ टैक्टरों के साथ लाल किले तक पहुंचे थे. इसके बरक्स इस आंदोलन में हिस्सा लेने वाले ट्रैक्टरों की संख्या अस्सी से नब्बे हजार थी. दो महीने से जो किसान दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर बैठे हैं उनकी संख्या डेढ़ से दो लाख के बीच है. अगर ये पूरा आंदोलन अराजक और हिंसक होता तो आप कल्पना नहीं कर सकते कि 26 जनवरी के दिन किस तरह के हालात बन सकते थे. टीवी वालों की गलाफाड़ स्पर्धा में फंसने से पहले अपने विवेक को तरजीह दीजिए. कुछ लोगों ने गलती की है, उन्हें इसकी सजा मिलनी चाहिए, लेकिन इसकी आड़ में आप पूरे आंदोलन को खारिज करने की जल्दबाजी मत कीजिए.

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