एल्गार परिषद 2021 में अरुंधति रॉय का हिंदी में दिया गया भाषण.
हम पर लॉकडाउन एंबुश भी हुआ. हम 1 अरब 30 करोड़ लोगों को चार घंटे के नोटिस के साथ तालाबंद कर दिया गया. लाखों शहरी मजदूर हजारों किलोमीटर पैदल चल कर घर लौटने को मजबूर हुए, जबकि रास्ते में उनको अपराधियों की तरह पीटा गया. एक तरफ महामारी तबाही मचा रही थी, दूसरी तरफ विवादास्पद जम्मू-कश्मीर राज्य के बदले हुए दर्जे को देखते हुए चीन ने लद्दाख में भारतीय इलाकों पर कब्जा कर लिया. हमारी बेचारी सरकार यह दिखावा करने पर मजबूर हो गई कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं. चाहे जंग हो या नहीं हो, एक सिकुड़ती जा रही अर्थव्यवस्था को अब पैसा बहाना होगा ताकि हजारों फौजियों के पास साज-सामान हो और वे हमेशा-हमेशा जंग के लिए तैयार रहें. ज़ीरो डिग्री से नीचे तापमान में महज मौसम के चलते अनेक सैनिकों की जान चली जा सकती है.
पैदा की गई तबाहियों की इस सूची में अब सबसे ऊपर ये तीन कृषि विधेयक हैं, जो भारतीय खेती की कमर तोड़ देंगे, इसका नियंत्रण कॉरपोरेट कंपनियों के हाथ में दे देंगे और किसानों के संवैधानिक अधिकारों तक की अनदेखी करते हुए खुलेआम उन्हें उनके कानूनी सहारे से वंचित कर देंगे. यह ऐसा है मानो हमारी आंखों के सामने किसी चलती हुई गाड़ी के पुर्जे-पुर्जे किए जा रहे हैं, इसके इंजन को बिगाड़ा जा रहा है, इसके पहिए निकाले जा रहे हैं, इसकी सीटें फाड़ी जा रही हैं, इसका टूटा-फूटा ढांचा हाईवे पर छोड़ दिया गया है, जबकि दूसरी कारें फर्राटे से गुज़र रही हैं, जिन्हें ऐसे लोग चला रहे हैं जिन्होंने हिरण के सींग और फर नहीं पहन रखे हैं.
इसीलिए हमें इस एलगार की अपनी नाराज़गी की इस लगातार, सामूहिक और बेबाक अभिव्यक्ति की बेतहाशा जरूरत है. ब्राह्मणवाद के खिलाफ, पूंजीवाद के खिलाफ, इस्लाम को लेकर मन में बिठाई जा रही नफरत के खिलाफ और पितृसत्ता के खिलाफ. इन सबकी जड़ में है पितृसत्ता, क्योंकि मर्द जानते हैं कि अगर औरतों पर उनका नियंत्रण नहीं रहे तो किसी चीज पर उनका नियंत्रण नहीं रहेगा.
ऐसे वक्त में जबकि महामारी तबाही मचा रही है, जबकि किसान सड़कों पर हैं, भाजपा की हुकूमत वाले राज्यों में जल्दी-जल्दी धर्मांतरण विरोधी अध्यादेश लागू किए जा रहे हैं. मैं थोड़ी देर इनके बारे में बोलना चाहूंगी क्योंकि जाति के बारे में, मर्दानगी के बारे में, मुसलमानों और ईसाइयों के बारे में, प्यार, औरतों, आबादी और इतिहास के बारे में इस हुकूमत के मन में जो बेचैनियां हैं, उनकी झलक आप इन अध्यादेशों में देख सकते हैं.
उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश 2020 (The UP Prohibition of Unlawful Conversion of Religion Ordinance 2020, जिसे लव जिहाद विरोधी अध्यादेश भी कहा जा रहा है) को बस एकाध महीना ही गुजरा है. लेकिन कई शादियों में रुकावटें डाली जा चुकी हैं, परिवारों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हो चुके हैं, और दर्जनों मुसलमान जेल में हैं. तो अब, उस गोमांस के लिए जो उन्होंने नहीं खाया, उन गायों के लिए जो उन्होंने नहीं मारीं, उन अपराधों के लिए जो उन्होंने कभी नहीं किए (हालांकि धीरे-धीरे यह नजरिया बनता जा रहा है कि मुसलमानों का कत्ल हो जाना भी उन्हीं का अपराध है) पीट कर मार दिए जाने के साथ-साथ, उन चुटकुलों के लिए जो उन्होंने नहीं बनाए हैं, जेल जाने के साथ-साथ (जैसे कि नौजवान कॉमेडियन मुनव्वर फारूक़ी के मामले में हुआ), मुसलमान अब प्यार में पड़ने और शादी करने के अपराधों के लिए जेल जा सकते हैं. इस अध्यादेश को पढ़ते हुए कुछ बुनियादी सवाल सामने आए, जिनको मैं नहीं उठा रही हूं, जैसे कि आप “धर्म” की व्याख्या कैसे करते हैं? एक आस्था रखने वाला इंसान अगर नास्तिक बन जाए तो क्या उस पर मुकदमा किया जा सकेगा?
2020 उप्र अध्यादेश “दुर्व्यपदेशन, बल, असम्यक असर, प्रपीड़न, प्रलोभन द्वारा किसी कपटपूर्ण साधन द्वारा या विवाह द्वारा एक धर्म से दूसरे धर्म में विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध...” की बात कहता है. प्रलोभन की परिभाषा में उपहार, संतुष्टि पहुंचाना, प्रतिष्ठित स्कूलों में मुफ्त शिक्षा, या एक बेहतर जीवनशैली का वादा शामिल है. (जो मोटे तौर पर भारत में हरेक पारिवारिक शादी में होने वाली लेन-देन की कहानी है.) आरोपित को (जिसके चलते धर्म परिवर्तन हुआ है) एक से पांच साल की कैद की सजा हो सकती है. इसके लिए दूर के रिश्तेदार समेत परिवार का कोई भी सदस्य आरोप लगा सकता है. बेगुनाही साबित करने की जिम्मेदारी आरोपित पर है. अदालत द्वारा ‘पीड़ित’ को 5 लाख रुपए का मुआवज़ा दिया जा सकता है जिसे आरोपित को अदा करना होगा. आप फिरौतियों और ब्लैकमेल की उन अंतहीन संभावनाओं की कल्पना कर सकते हैं, जिन्हें यह अध्यादेश जन्म देता है. अब एक बेहतरीन नमूना देखिए- अगर धर्म बदलने वाला शख्स एक नाबालिग, औरत या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से है, तो ‘धर्म परिवर्तक’ [यानी आरोपित] की सज़ा दोगुनी हो जाएगी. दो से दस साल तक कैद. दूसरे शब्दों में, यह अध्यादेश औरतों, दलितों और आदिवासियों को नाबालिगों का दर्जा देता है.
यह कहता है कि हम बच्चे हैं. हमें बालिग नहीं माना गया है, जो अपने कामों के लिए जिम्मेदार हैं. उप्र सरकार की नजरों में हैसियत सिर्फ प्रभुत्वशाली हिंदू जातियों के मर्दों की ही है, एजेंसी सिर्फ उनके पास है. यही वो भावना है जिसके साथ भारत के मुख्य न्यायाधीश ने पूछा कि औरतों को (जिनके दम पर कई मायनों में भारतीय खेती चलती है) किसान आंदोलनों में क्यों “रखा” जा रहा है. और मध्य प्रदेश सरकार ने प्रस्ताव रखा है कि जो कामकाजी औरतें अपने परिवारों के साथ नहीं रहती हैं, वे थाने में अपना रजिस्ट्रेशन कराएं और अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस की निगरानी में रहें.
अगर मदर टेरेसा जिंदा होतीं तो तय है कि इस अध्यादेश के तहत उन्हें जेल की सजा काटनी पड़ती. मेरा अंदाजा है कि उन्होंने जितने लोगों का ईसाइयत में धर्मांतरण कराया, उनकी सजा होती दस साल और जीवन भर का कर्ज. यह भारत में गरीब लोगों के बीच काम कर रहे हरेक ईसाई पादरी की किस्मत हो सकती है. और उस इंसान का क्या करेंगे जिन्होंने यह कहा था- “क्योंकि हमारी बदकिस्मती है कि हमें खुद को हिंदू कहना पड़ता है, इसीलिए हमारे साथ ऐसा व्यवहार होता है. अगर हम किसी और धर्म के सदस्य होते तो कोई भी हमारे साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता. कोई भी ऐसा धर्म चुन लीजिए जो आपको हैसियत और आपसी व्यवहार में बराबरी देता हो. अब हम अपनी गलतियां सुधारेंगे.”
आपमें से कई जानते होंगे, ये बातें बाबासाहेब आंबेडकर की हैं. एक बेहतर जीवनशैली के वादे के साथ सामूहिक धर्मांतरण का एक साफ-साफ आह्वान. इस अध्यादेश के तहत, जिसमें “सामूहिक धर्मांतरण” वह है जब “दो या दो से अधिक व्यक्ति धर्म संपरिवर्तित किए जाएं”, ये बातें आंबेडकर को अपराध का जिम्मेदार बना देंगी. शायद महात्मा फुले भी कसूरवार बन जाएं जिन्होंने सामूहिक धर्म परिवर्तन को अपना खुला समर्थन दिया था जब उन्होंने कहा था: “मुसलमानों ने, चालाक आर्य भटों की खुदी हुई पत्थर की मूर्तियों को तोड़ते हुए, उन्हें जबरन गुलाम बनाया और शूद्रों और अति शूद्रों को बड़ी संख्या में उनके चंगुल से आजाद कराया और उन्हें मुसलमान बनाया, उन्हें मुसलमान धर्म में शामिल किया. सिर्फ यही नहीं, बल्कि उन्होंने उनके साथ खान-पान और शादी-विवाह भी कायम किया और उन्हें सभी बराबर अधिकार दिए...”
इस उपमहाद्वीप की आबादी में दसियों लाख सिखों, मुसलमानों, ईसाइयों और बौद्धों का एक बड़ा हिस्सा ऐतिहासिक बदलावों और सामूहिक धर्मांतरणों की गवाही है. “हिंदू आबादी” की गिनती में तेज गिरावट वह चीज है जिसने शुरू-शुरू में प्रभुत्वशाली जातियों में आबादी की बनावट के बारे में बेचैनी पैदा की थी और एक ऐसी सियासत को मजबूत किया था जिसे आज हिंदुत्व कहा जाता है. लेकिन आज जब आरएसएस सत्ता में है तो लहर पलट गई है. अब सामूहिक धर्मांतरण सिर्फ वही हो रहे हैं जिन्हें विश्व हिंदू परिषद आयोजित कर रहा है. इस प्रक्रिया को “घर वापसी” के नाम से जाना जाता है जो उन्नीसवीं सदी के आखिरी दौर में हिंदू सुधारवादी समूहों ने शुरू की थी. घर वापसी में जंगलों में रहने वाले आदिवासी लोगों की हिंदू धर्म में “वापसी” कराई जाती है. लेकिन इसके लिए एक शुद्धि की रस्म निभानी होती है ताकि “घर” से बाहर रहने से आई गंदगी को साफ किया जा सके.
अब यह तो एक परेशानी है क्योंकि उप्र अध्यादेश के तर्क के मुताबिक यह एक अपराध बन जाएगा. तो फिर वह इस परेशानी से कैसे निबटता है? इसमें एक प्रावधान जोड़ा गया है जो कहता है- “यदि कोई व्यक्ति अपने ठीक पूर्व धर्म में पुनः संपरिवर्तन करता है/करती है, तो उसे इस अध्यादेश के अधीन धर्म संपरिवर्तन नहीं समझा जाएगा.” ऐसा करते हुए अध्यादेश इस मिथक पर चल रहा है और उसने इसे कानूनी मंजूरी दे दी है कि हिंदू धर्म एक प्राचीन स्थानीय धर्म है जो भारतीय उपमहाद्वीप की सैकड़ों मूल निवासी जनजातियों और दलितों और द्रविड़ लोगों के धर्मों से भी पुराना है और वे सब इसका हिस्सा हैं. ये गलत है, सरासर गैर ऐतिहासिक है.
भारत में इन्हीं तरीकों से मिथकों को इतिहास में और इतिहास को मिथकों में बदला जाता है. अतीत का लेखा-जोखा रखने वाले, प्रभुत्वशाली जातियों से आने वाले लोगों को इसमें कोई भी विरोधाभास नहीं दिखाई देता कि जब जहां जरूरत हो, मूल निवासी होने का दावा भी किया जाए और साथ ही खुद को आर्यों का वंशज भी बताया जाए. अपने करियर की शुरुआत में दक्षिण अफ्रीका में गांधी जब डर्बन पोस्ट ऑफिस में भारतीयों के दाखिल होने के लिए एक अलग दरवाज़े के लिए अभियान चला रहे थे, ताकि उन्हें काले अफ्रीकियों के साथ, जिन्हें वो अक्सर ‘काफिर’ और ‘असभ्य’ कहते थे, एक ही दरवाजे से आना-जाना न पड़े, तब गांधी ने दलील दी कि भारतीय और अंग्रेज “एक ही प्रजाति से निकले हैं जिसे इंडो- आर्यन कहा जाता है.” उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि प्रभुत्वशाली जाति के ‘पैसेंजर इंडियंस’ को उत्पीड़ित जाति के गिरमिटिया (अनुबंधित) मजदूरों से अलग करके देखा जाए. यह 1894 की बात थी. लेकिन सर्कस अभी भी खत्म नहीं हुआ है.
आज यहां इतने व्यापक राजनीतिक नजरिए वाले वक्ताओं की मौजूदगी एलगार परिषद की बौद्धिक काबिलियत को जाहिर करती है, कि यह देख पा रहा है कि हम पर होने वाले हमले सभी दिशाओं से आ रहे हैं- किसी एक दिशा से नहीं. इस हुकूमत के लिए इससे ज्यादा खुशी की बात और कुछ नहीं होती जब हम खुद को अपने या अपने समुदायों की अलग-थलग कोठरियों में, छोटी-छोटी हौजों में बंद कर लेते हैं, जहां हम गुस्से में पानी के छींटे उड़ाते हैं. जब हम बड़ी तस्वीर नहीं देखते, तब अक्सर हमारा गुस्सा एक दूसरे पर निकलता है. जब हम अपनी तयशुदा हौजों की कगारें तोड़ देते हैं सिर्फ तभी हम एक नदी बन सकते हैं. और एक ऐसी धारा के रूप में बह सकते हैं जिसे रोका नहीं जा सकता. इसे हासिल करने के लिए हमें उससे आगे जाना होगा जिसे करने का फरमान हमें दिया गया है, हमें उस तरह सपने देखने का साहस करना होगा जैसे रोहित वेमुला ने देखा. आज वो यहां हमारे साथ हैं, हमारे बीच, वे अपनी मौत में भी एक पूरी की पूरी नई पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा हैं, क्योंकि वे सपने देखते हुए मरे. उन्होंने मरते हुए भी अपनी मानवता, अपनी आकांक्षाओं और अपने बौद्धिक कौतूहल को मुकम्मल बनाने के अपने अधिकार पर जोर दिया. उन्होंने सिमटने से, सिकुड़ने से, दिए गए सांचे में ढलने से इन्कार कर दिया. उन्होंने उन लेबलों से इन्कार किया, जो असली दुनिया उनके ऊपर लगाना चाहती थी.
वे जानते थे कि वे कुछ और नहीं, बल्कि सितारों से बने हुए हैं. वे एक सितारा बन गए हैं. हमें उन फंदों से सावधान रहना होगा, जो हमें सीमित करती हैं, हमें बने-बनाए स्टीरियोटाइप सांचों में घेरती हैं. हममें से कोई भी महज अपनी पहचानों का कुल जोड़ भर नहीं है. हम वह हैं, लेकिन उससे कहीं-कहीं ज्यादा हैं. जहां हम अपने दुश्मनों के खिलाफ कमर कस रहे हैं, वहीं हमें अपने दोस्तों की पहचान करने के काबिल भी होना होगा. हमें अपने साथियों की तलाश करनी ही होगी, क्योंकि हममें से कोई भी इस लड़ाई को अकेले नहीं लड़ सकता. पिछले साल सीएए का विरोध करने वाले हिम्मती आंदोलनकारियों ने और अब हमारे चारों तरफ चल रहे किसानों के शानदार आंदोलन ने यह दिखाया है. जो किसान संघ एक साथ आए हैं, वे अलग अलग विचारधाराओं वाले, और अलग अलग इतिहासों वाले लोगों की नुमाइंदगी करते हैं. मतभेद गहरे हैं. बड़े और छोटे किसानों के बीच, जमींदारों और बेजमीन खेतिहर मजदूरों के बीच, जाट सिखों और मजहबी सिखों के बीच, वामपंथी और मध्यमार्गी संघों के बीच. जातीय अंतर्विरोध भी हैं और दहला देने वाली जातीय हिंसा है, जैसे कि बंत सिंह ने आपको आज बताया जिनके दोनों हाथ और एक पैर 2006 में काट दिए गए. इन विवादों को दफनाया नहीं गया है. उनके बारे में भी कहा जा रहा है कि जैसा कि रंदीप मद्दोके ने, जिन्हें आज यहां होना था, अपनी साहसी डॉक्युमेंटरी फिल्म लैंडलेस में कहा है. और फिर भी वे सब साथ आए हैं ताकि इस सत्ता का सामना किया जा सके, ताकि वह लड़ाई लड़ी जा सके जिसे हम जानते हैं कि वह वजूद की एक लड़ाई हैं.
शायद यहां इस शहर में जहां पर आंबेडकर को ब्लैकमेल करके पूना पैक्ट पर दस्तखत कराए गए थे, और जहां ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले ने अपना क्रांतिकारी काम किया था, इस शहर में हम अपने संघर्ष को एक नाम दे सकते हैं. शायद हमें इसे सत्य शोधक रेजिस्टेंस कहना चाहिए. आरएसएस के खिलाफ खड़ा एसएसआर. नफरत के खिलाफ मुहब्बत की लड़ाई. एक लड़ाई मुहब्बत की खातिर. यह जरूरी है कि इसे जुझारू तरीके से लड़ा जाए और खूबसूरत तरीके से जीता जाए. शुक्रिया.
(अनुवाद: रेयाज़ुल हक़)
हम पर लॉकडाउन एंबुश भी हुआ. हम 1 अरब 30 करोड़ लोगों को चार घंटे के नोटिस के साथ तालाबंद कर दिया गया. लाखों शहरी मजदूर हजारों किलोमीटर पैदल चल कर घर लौटने को मजबूर हुए, जबकि रास्ते में उनको अपराधियों की तरह पीटा गया. एक तरफ महामारी तबाही मचा रही थी, दूसरी तरफ विवादास्पद जम्मू-कश्मीर राज्य के बदले हुए दर्जे को देखते हुए चीन ने लद्दाख में भारतीय इलाकों पर कब्जा कर लिया. हमारी बेचारी सरकार यह दिखावा करने पर मजबूर हो गई कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं. चाहे जंग हो या नहीं हो, एक सिकुड़ती जा रही अर्थव्यवस्था को अब पैसा बहाना होगा ताकि हजारों फौजियों के पास साज-सामान हो और वे हमेशा-हमेशा जंग के लिए तैयार रहें. ज़ीरो डिग्री से नीचे तापमान में महज मौसम के चलते अनेक सैनिकों की जान चली जा सकती है.
पैदा की गई तबाहियों की इस सूची में अब सबसे ऊपर ये तीन कृषि विधेयक हैं, जो भारतीय खेती की कमर तोड़ देंगे, इसका नियंत्रण कॉरपोरेट कंपनियों के हाथ में दे देंगे और किसानों के संवैधानिक अधिकारों तक की अनदेखी करते हुए खुलेआम उन्हें उनके कानूनी सहारे से वंचित कर देंगे. यह ऐसा है मानो हमारी आंखों के सामने किसी चलती हुई गाड़ी के पुर्जे-पुर्जे किए जा रहे हैं, इसके इंजन को बिगाड़ा जा रहा है, इसके पहिए निकाले जा रहे हैं, इसकी सीटें फाड़ी जा रही हैं, इसका टूटा-फूटा ढांचा हाईवे पर छोड़ दिया गया है, जबकि दूसरी कारें फर्राटे से गुज़र रही हैं, जिन्हें ऐसे लोग चला रहे हैं जिन्होंने हिरण के सींग और फर नहीं पहन रखे हैं.
इसीलिए हमें इस एलगार की अपनी नाराज़गी की इस लगातार, सामूहिक और बेबाक अभिव्यक्ति की बेतहाशा जरूरत है. ब्राह्मणवाद के खिलाफ, पूंजीवाद के खिलाफ, इस्लाम को लेकर मन में बिठाई जा रही नफरत के खिलाफ और पितृसत्ता के खिलाफ. इन सबकी जड़ में है पितृसत्ता, क्योंकि मर्द जानते हैं कि अगर औरतों पर उनका नियंत्रण नहीं रहे तो किसी चीज पर उनका नियंत्रण नहीं रहेगा.
ऐसे वक्त में जबकि महामारी तबाही मचा रही है, जबकि किसान सड़कों पर हैं, भाजपा की हुकूमत वाले राज्यों में जल्दी-जल्दी धर्मांतरण विरोधी अध्यादेश लागू किए जा रहे हैं. मैं थोड़ी देर इनके बारे में बोलना चाहूंगी क्योंकि जाति के बारे में, मर्दानगी के बारे में, मुसलमानों और ईसाइयों के बारे में, प्यार, औरतों, आबादी और इतिहास के बारे में इस हुकूमत के मन में जो बेचैनियां हैं, उनकी झलक आप इन अध्यादेशों में देख सकते हैं.
उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश 2020 (The UP Prohibition of Unlawful Conversion of Religion Ordinance 2020, जिसे लव जिहाद विरोधी अध्यादेश भी कहा जा रहा है) को बस एकाध महीना ही गुजरा है. लेकिन कई शादियों में रुकावटें डाली जा चुकी हैं, परिवारों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हो चुके हैं, और दर्जनों मुसलमान जेल में हैं. तो अब, उस गोमांस के लिए जो उन्होंने नहीं खाया, उन गायों के लिए जो उन्होंने नहीं मारीं, उन अपराधों के लिए जो उन्होंने कभी नहीं किए (हालांकि धीरे-धीरे यह नजरिया बनता जा रहा है कि मुसलमानों का कत्ल हो जाना भी उन्हीं का अपराध है) पीट कर मार दिए जाने के साथ-साथ, उन चुटकुलों के लिए जो उन्होंने नहीं बनाए हैं, जेल जाने के साथ-साथ (जैसे कि नौजवान कॉमेडियन मुनव्वर फारूक़ी के मामले में हुआ), मुसलमान अब प्यार में पड़ने और शादी करने के अपराधों के लिए जेल जा सकते हैं. इस अध्यादेश को पढ़ते हुए कुछ बुनियादी सवाल सामने आए, जिनको मैं नहीं उठा रही हूं, जैसे कि आप “धर्म” की व्याख्या कैसे करते हैं? एक आस्था रखने वाला इंसान अगर नास्तिक बन जाए तो क्या उस पर मुकदमा किया जा सकेगा?
2020 उप्र अध्यादेश “दुर्व्यपदेशन, बल, असम्यक असर, प्रपीड़न, प्रलोभन द्वारा किसी कपटपूर्ण साधन द्वारा या विवाह द्वारा एक धर्म से दूसरे धर्म में विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध...” की बात कहता है. प्रलोभन की परिभाषा में उपहार, संतुष्टि पहुंचाना, प्रतिष्ठित स्कूलों में मुफ्त शिक्षा, या एक बेहतर जीवनशैली का वादा शामिल है. (जो मोटे तौर पर भारत में हरेक पारिवारिक शादी में होने वाली लेन-देन की कहानी है.) आरोपित को (जिसके चलते धर्म परिवर्तन हुआ है) एक से पांच साल की कैद की सजा हो सकती है. इसके लिए दूर के रिश्तेदार समेत परिवार का कोई भी सदस्य आरोप लगा सकता है. बेगुनाही साबित करने की जिम्मेदारी आरोपित पर है. अदालत द्वारा ‘पीड़ित’ को 5 लाख रुपए का मुआवज़ा दिया जा सकता है जिसे आरोपित को अदा करना होगा. आप फिरौतियों और ब्लैकमेल की उन अंतहीन संभावनाओं की कल्पना कर सकते हैं, जिन्हें यह अध्यादेश जन्म देता है. अब एक बेहतरीन नमूना देखिए- अगर धर्म बदलने वाला शख्स एक नाबालिग, औरत या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से है, तो ‘धर्म परिवर्तक’ [यानी आरोपित] की सज़ा दोगुनी हो जाएगी. दो से दस साल तक कैद. दूसरे शब्दों में, यह अध्यादेश औरतों, दलितों और आदिवासियों को नाबालिगों का दर्जा देता है.
यह कहता है कि हम बच्चे हैं. हमें बालिग नहीं माना गया है, जो अपने कामों के लिए जिम्मेदार हैं. उप्र सरकार की नजरों में हैसियत सिर्फ प्रभुत्वशाली हिंदू जातियों के मर्दों की ही है, एजेंसी सिर्फ उनके पास है. यही वो भावना है जिसके साथ भारत के मुख्य न्यायाधीश ने पूछा कि औरतों को (जिनके दम पर कई मायनों में भारतीय खेती चलती है) किसान आंदोलनों में क्यों “रखा” जा रहा है. और मध्य प्रदेश सरकार ने प्रस्ताव रखा है कि जो कामकाजी औरतें अपने परिवारों के साथ नहीं रहती हैं, वे थाने में अपना रजिस्ट्रेशन कराएं और अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस की निगरानी में रहें.
अगर मदर टेरेसा जिंदा होतीं तो तय है कि इस अध्यादेश के तहत उन्हें जेल की सजा काटनी पड़ती. मेरा अंदाजा है कि उन्होंने जितने लोगों का ईसाइयत में धर्मांतरण कराया, उनकी सजा होती दस साल और जीवन भर का कर्ज. यह भारत में गरीब लोगों के बीच काम कर रहे हरेक ईसाई पादरी की किस्मत हो सकती है. और उस इंसान का क्या करेंगे जिन्होंने यह कहा था- “क्योंकि हमारी बदकिस्मती है कि हमें खुद को हिंदू कहना पड़ता है, इसीलिए हमारे साथ ऐसा व्यवहार होता है. अगर हम किसी और धर्म के सदस्य होते तो कोई भी हमारे साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता. कोई भी ऐसा धर्म चुन लीजिए जो आपको हैसियत और आपसी व्यवहार में बराबरी देता हो. अब हम अपनी गलतियां सुधारेंगे.”
आपमें से कई जानते होंगे, ये बातें बाबासाहेब आंबेडकर की हैं. एक बेहतर जीवनशैली के वादे के साथ सामूहिक धर्मांतरण का एक साफ-साफ आह्वान. इस अध्यादेश के तहत, जिसमें “सामूहिक धर्मांतरण” वह है जब “दो या दो से अधिक व्यक्ति धर्म संपरिवर्तित किए जाएं”, ये बातें आंबेडकर को अपराध का जिम्मेदार बना देंगी. शायद महात्मा फुले भी कसूरवार बन जाएं जिन्होंने सामूहिक धर्म परिवर्तन को अपना खुला समर्थन दिया था जब उन्होंने कहा था: “मुसलमानों ने, चालाक आर्य भटों की खुदी हुई पत्थर की मूर्तियों को तोड़ते हुए, उन्हें जबरन गुलाम बनाया और शूद्रों और अति शूद्रों को बड़ी संख्या में उनके चंगुल से आजाद कराया और उन्हें मुसलमान बनाया, उन्हें मुसलमान धर्म में शामिल किया. सिर्फ यही नहीं, बल्कि उन्होंने उनके साथ खान-पान और शादी-विवाह भी कायम किया और उन्हें सभी बराबर अधिकार दिए...”
इस उपमहाद्वीप की आबादी में दसियों लाख सिखों, मुसलमानों, ईसाइयों और बौद्धों का एक बड़ा हिस्सा ऐतिहासिक बदलावों और सामूहिक धर्मांतरणों की गवाही है. “हिंदू आबादी” की गिनती में तेज गिरावट वह चीज है जिसने शुरू-शुरू में प्रभुत्वशाली जातियों में आबादी की बनावट के बारे में बेचैनी पैदा की थी और एक ऐसी सियासत को मजबूत किया था जिसे आज हिंदुत्व कहा जाता है. लेकिन आज जब आरएसएस सत्ता में है तो लहर पलट गई है. अब सामूहिक धर्मांतरण सिर्फ वही हो रहे हैं जिन्हें विश्व हिंदू परिषद आयोजित कर रहा है. इस प्रक्रिया को “घर वापसी” के नाम से जाना जाता है जो उन्नीसवीं सदी के आखिरी दौर में हिंदू सुधारवादी समूहों ने शुरू की थी. घर वापसी में जंगलों में रहने वाले आदिवासी लोगों की हिंदू धर्म में “वापसी” कराई जाती है. लेकिन इसके लिए एक शुद्धि की रस्म निभानी होती है ताकि “घर” से बाहर रहने से आई गंदगी को साफ किया जा सके.
अब यह तो एक परेशानी है क्योंकि उप्र अध्यादेश के तर्क के मुताबिक यह एक अपराध बन जाएगा. तो फिर वह इस परेशानी से कैसे निबटता है? इसमें एक प्रावधान जोड़ा गया है जो कहता है- “यदि कोई व्यक्ति अपने ठीक पूर्व धर्म में पुनः संपरिवर्तन करता है/करती है, तो उसे इस अध्यादेश के अधीन धर्म संपरिवर्तन नहीं समझा जाएगा.” ऐसा करते हुए अध्यादेश इस मिथक पर चल रहा है और उसने इसे कानूनी मंजूरी दे दी है कि हिंदू धर्म एक प्राचीन स्थानीय धर्म है जो भारतीय उपमहाद्वीप की सैकड़ों मूल निवासी जनजातियों और दलितों और द्रविड़ लोगों के धर्मों से भी पुराना है और वे सब इसका हिस्सा हैं. ये गलत है, सरासर गैर ऐतिहासिक है.
भारत में इन्हीं तरीकों से मिथकों को इतिहास में और इतिहास को मिथकों में बदला जाता है. अतीत का लेखा-जोखा रखने वाले, प्रभुत्वशाली जातियों से आने वाले लोगों को इसमें कोई भी विरोधाभास नहीं दिखाई देता कि जब जहां जरूरत हो, मूल निवासी होने का दावा भी किया जाए और साथ ही खुद को आर्यों का वंशज भी बताया जाए. अपने करियर की शुरुआत में दक्षिण अफ्रीका में गांधी जब डर्बन पोस्ट ऑफिस में भारतीयों के दाखिल होने के लिए एक अलग दरवाज़े के लिए अभियान चला रहे थे, ताकि उन्हें काले अफ्रीकियों के साथ, जिन्हें वो अक्सर ‘काफिर’ और ‘असभ्य’ कहते थे, एक ही दरवाजे से आना-जाना न पड़े, तब गांधी ने दलील दी कि भारतीय और अंग्रेज “एक ही प्रजाति से निकले हैं जिसे इंडो- आर्यन कहा जाता है.” उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि प्रभुत्वशाली जाति के ‘पैसेंजर इंडियंस’ को उत्पीड़ित जाति के गिरमिटिया (अनुबंधित) मजदूरों से अलग करके देखा जाए. यह 1894 की बात थी. लेकिन सर्कस अभी भी खत्म नहीं हुआ है.
आज यहां इतने व्यापक राजनीतिक नजरिए वाले वक्ताओं की मौजूदगी एलगार परिषद की बौद्धिक काबिलियत को जाहिर करती है, कि यह देख पा रहा है कि हम पर होने वाले हमले सभी दिशाओं से आ रहे हैं- किसी एक दिशा से नहीं. इस हुकूमत के लिए इससे ज्यादा खुशी की बात और कुछ नहीं होती जब हम खुद को अपने या अपने समुदायों की अलग-थलग कोठरियों में, छोटी-छोटी हौजों में बंद कर लेते हैं, जहां हम गुस्से में पानी के छींटे उड़ाते हैं. जब हम बड़ी तस्वीर नहीं देखते, तब अक्सर हमारा गुस्सा एक दूसरे पर निकलता है. जब हम अपनी तयशुदा हौजों की कगारें तोड़ देते हैं सिर्फ तभी हम एक नदी बन सकते हैं. और एक ऐसी धारा के रूप में बह सकते हैं जिसे रोका नहीं जा सकता. इसे हासिल करने के लिए हमें उससे आगे जाना होगा जिसे करने का फरमान हमें दिया गया है, हमें उस तरह सपने देखने का साहस करना होगा जैसे रोहित वेमुला ने देखा. आज वो यहां हमारे साथ हैं, हमारे बीच, वे अपनी मौत में भी एक पूरी की पूरी नई पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा हैं, क्योंकि वे सपने देखते हुए मरे. उन्होंने मरते हुए भी अपनी मानवता, अपनी आकांक्षाओं और अपने बौद्धिक कौतूहल को मुकम्मल बनाने के अपने अधिकार पर जोर दिया. उन्होंने सिमटने से, सिकुड़ने से, दिए गए सांचे में ढलने से इन्कार कर दिया. उन्होंने उन लेबलों से इन्कार किया, जो असली दुनिया उनके ऊपर लगाना चाहती थी.
वे जानते थे कि वे कुछ और नहीं, बल्कि सितारों से बने हुए हैं. वे एक सितारा बन गए हैं. हमें उन फंदों से सावधान रहना होगा, जो हमें सीमित करती हैं, हमें बने-बनाए स्टीरियोटाइप सांचों में घेरती हैं. हममें से कोई भी महज अपनी पहचानों का कुल जोड़ भर नहीं है. हम वह हैं, लेकिन उससे कहीं-कहीं ज्यादा हैं. जहां हम अपने दुश्मनों के खिलाफ कमर कस रहे हैं, वहीं हमें अपने दोस्तों की पहचान करने के काबिल भी होना होगा. हमें अपने साथियों की तलाश करनी ही होगी, क्योंकि हममें से कोई भी इस लड़ाई को अकेले नहीं लड़ सकता. पिछले साल सीएए का विरोध करने वाले हिम्मती आंदोलनकारियों ने और अब हमारे चारों तरफ चल रहे किसानों के शानदार आंदोलन ने यह दिखाया है. जो किसान संघ एक साथ आए हैं, वे अलग अलग विचारधाराओं वाले, और अलग अलग इतिहासों वाले लोगों की नुमाइंदगी करते हैं. मतभेद गहरे हैं. बड़े और छोटे किसानों के बीच, जमींदारों और बेजमीन खेतिहर मजदूरों के बीच, जाट सिखों और मजहबी सिखों के बीच, वामपंथी और मध्यमार्गी संघों के बीच. जातीय अंतर्विरोध भी हैं और दहला देने वाली जातीय हिंसा है, जैसे कि बंत सिंह ने आपको आज बताया जिनके दोनों हाथ और एक पैर 2006 में काट दिए गए. इन विवादों को दफनाया नहीं गया है. उनके बारे में भी कहा जा रहा है कि जैसा कि रंदीप मद्दोके ने, जिन्हें आज यहां होना था, अपनी साहसी डॉक्युमेंटरी फिल्म लैंडलेस में कहा है. और फिर भी वे सब साथ आए हैं ताकि इस सत्ता का सामना किया जा सके, ताकि वह लड़ाई लड़ी जा सके जिसे हम जानते हैं कि वह वजूद की एक लड़ाई हैं.
शायद यहां इस शहर में जहां पर आंबेडकर को ब्लैकमेल करके पूना पैक्ट पर दस्तखत कराए गए थे, और जहां ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले ने अपना क्रांतिकारी काम किया था, इस शहर में हम अपने संघर्ष को एक नाम दे सकते हैं. शायद हमें इसे सत्य शोधक रेजिस्टेंस कहना चाहिए. आरएसएस के खिलाफ खड़ा एसएसआर. नफरत के खिलाफ मुहब्बत की लड़ाई. एक लड़ाई मुहब्बत की खातिर. यह जरूरी है कि इसे जुझारू तरीके से लड़ा जाए और खूबसूरत तरीके से जीता जाए. शुक्रिया.
(अनुवाद: रेयाज़ुल हक़)