सीएसई ने हाल ही में देश के 10 बड़े ब्रांड द्वारा शहद में चीनी की मिलावट का खुलासा किया है.
शहजादा कपूर ने बताया कि सीएसई के खुलासे के बाद से मधमुक्खी पालकों को बड़ी राहत मिली है. शहद की अगली खेप 15 फरवरी तक आएगी और उम्मीद है कि मधुमक्खी पालकों को 30 से 40 फीसदी अधिक दाम मिलेगा. वहीं, जिन ब्रांड्स के शहद में मिलावट का कारोबार उजागर हुआ है अब शायद वे भी एनएमआर टेस्ट को अपनाने के लिए बाध्य होंगी. और ऐसी सूचना है कि कंपनियां इस बारे में सोच रही हैं. हालांकि, एनएमआर परीक्षणों को भी सरपास करने की तैयारियां भी संभव हैं.
बी-कीपिंग एडवाइजरी समूह के मुताबिक भारत में 70 फीसदी शहद उत्पादन सरसों का शहद होता है. यह शहद क्रीम यानी मक्खन की तरह जम जाता है. इस शहद का ज्यादातर बाहरी देशों में निर्यात किया जाता है. जबकि भारत के भीतर 30 फीसदी शहद विभिन्न स्रोतों से हैं. मसलन इनमें स्वाद के हिसाब से सबसे ज्यादा लोकप्रिय और हिमाचल व जम्मू से मिलने वाली मल्टी फ्लोरा शहद, पांच फीसदी करीब जंगल से मिलने वाली शहद इसके अलावा सौंफ, अजवाइन और आकाशिया, विलायती बबूल जैसे वेराइटी होती हैं. इस 30 फीसदी का अनुमान यह है कि करीब 5,000 टन प्रतिवर्ष शहद उत्पादन होता है. इसमें से करीब 2000 टन ही कंपनियों तक पहुंचता है और बाकी मधुमक्खी पालक खुद बेचते हैं. लेकिन कंपनियां प्रति वर्ष कितना टन शहद बेचती हैं और कहां से लाती हैं, यह मिलावट का भंडाफोड़ होने के बाद एक हद तक उजागर हो चुका है.
जंगलों में से शहद निकालने का सरकारी ठेका हासिल करने वाले उद्यमियों को भी शहद के बेहतर दाम कोरोनाकाल में नहीं मिल पाए. कतर्नियाघांट वन्य अभ्यारण्य और नेपाल के आस-पास जंगलों में शहद का ठेका लेने वाले मुशीर बताते हैं कि 110 रुपये प्रति किलो जंगली शहद उन्होंने बेची थी लेकिन अभी दाम 300 रुपये से ज्यादा का है. जंगल की शहद जो सरकारी ठेकों पर मिलते हैं उनकी कीमतें सरकारी दर पर तय होती हैं. हालांकि जंगल के किनारे आदिवासी समुदायों के जरिए शहद उत्पादन में उन्हें उसी शहद के महज 80 रुपये प्रति किलो तक मिल रहे थे. इस वक्त जरूर सुधार दिख रहा है.
शहजादा कपूर ने बताया कि सीएसई के खुलासे के बाद से मधमुक्खी पालकों को बड़ी राहत मिली है. शहद की अगली खेप 15 फरवरी तक आएगी और उम्मीद है कि मधुमक्खी पालकों को 30 से 40 फीसदी अधिक दाम मिलेगा. वहीं, जिन ब्रांड्स के शहद में मिलावट का कारोबार उजागर हुआ है अब शायद वे भी एनएमआर टेस्ट को अपनाने के लिए बाध्य होंगी. और ऐसी सूचना है कि कंपनियां इस बारे में सोच रही हैं. हालांकि, एनएमआर परीक्षणों को भी सरपास करने की तैयारियां भी संभव हैं.
बी-कीपिंग एडवाइजरी समूह के मुताबिक भारत में 70 फीसदी शहद उत्पादन सरसों का शहद होता है. यह शहद क्रीम यानी मक्खन की तरह जम जाता है. इस शहद का ज्यादातर बाहरी देशों में निर्यात किया जाता है. जबकि भारत के भीतर 30 फीसदी शहद विभिन्न स्रोतों से हैं. मसलन इनमें स्वाद के हिसाब से सबसे ज्यादा लोकप्रिय और हिमाचल व जम्मू से मिलने वाली मल्टी फ्लोरा शहद, पांच फीसदी करीब जंगल से मिलने वाली शहद इसके अलावा सौंफ, अजवाइन और आकाशिया, विलायती बबूल जैसे वेराइटी होती हैं. इस 30 फीसदी का अनुमान यह है कि करीब 5,000 टन प्रतिवर्ष शहद उत्पादन होता है. इसमें से करीब 2000 टन ही कंपनियों तक पहुंचता है और बाकी मधुमक्खी पालक खुद बेचते हैं. लेकिन कंपनियां प्रति वर्ष कितना टन शहद बेचती हैं और कहां से लाती हैं, यह मिलावट का भंडाफोड़ होने के बाद एक हद तक उजागर हो चुका है.
जंगलों में से शहद निकालने का सरकारी ठेका हासिल करने वाले उद्यमियों को भी शहद के बेहतर दाम कोरोनाकाल में नहीं मिल पाए. कतर्नियाघांट वन्य अभ्यारण्य और नेपाल के आस-पास जंगलों में शहद का ठेका लेने वाले मुशीर बताते हैं कि 110 रुपये प्रति किलो जंगली शहद उन्होंने बेची थी लेकिन अभी दाम 300 रुपये से ज्यादा का है. जंगल की शहद जो सरकारी ठेकों पर मिलते हैं उनकी कीमतें सरकारी दर पर तय होती हैं. हालांकि जंगल के किनारे आदिवासी समुदायों के जरिए शहद उत्पादन में उन्हें उसी शहद के महज 80 रुपये प्रति किलो तक मिल रहे थे. इस वक्त जरूर सुधार दिख रहा है.