सरकार-प्रशासन की चूक हुई कि उसने इनसे निबटने की कोई अलग योजना बनाई ही नहीं. इन सबको 25 जनवरी की रात को ही गिरफ्तार किया जा सकता था.
26 जनवरी को ही सारे अखबारों, चैनलों ने यह लिखना- कहना शुरू कर दिया कि आंदोलन भटक गया, कि उसका असली चेहरा सामने आ गया. यह 27 को भी जारी रहा. लेकिन कोई यह नहीं लिख रहा है, कोई यह कह नहीं कह रहा है कि संसार भर में क्रांतियां तो ऐसे ही होती हैं. खून नहीं तो क्रांति कैसी? फ्रांस और रूस की क्रांति का इतना महिमामंडन होता है. उनमें क्या हुआ था? यह तो गांधी ने आकर हमें सिखाया कि क्रांति का दूसरा रास्ता भी है. इसलिए किसान आंदोलन का यह टी-20 वाला रूप हमें भाया नहीं है. लेकिन गांधी की कसौटी अगर आपको प्रिय है तो उसे किसानों पर ही क्यों, सरकार पर भी क्यों न लागू करते और प्रशासन पर भी? किसानों ने आईटीओ पर पुलिस पर छिटफुट हमला किया इसका इतना शोर है लेकिन पिछले महीनों में दिल्ली आते किसानों पर पुलिस का जो गैर-कानूनी, असंवैधानिक हमला होता रहा उस पर किसने, क्या लिखा-कहा? सार्वजनिक संपत्ति का कुछ नुकसान 26 जनवरी को जरूर हुआ लेकिन प्रशासन ने सड़कें काट कर, पेड़ काट कर, लोहे और सीमेंट के अनगिनत अवरोध खड़े कर के, चाय-पानी की दुकानें बंद करवा कर, करोड़ों रुपयों का डीजल-पेट्रोल फूंक कर पुलिस व दंगानिरोधक दस्तों को लगा कर सार्वजनिक धन की जो होली पिछले महीनों में जलाई, क्या उस पर भी किसी ने लिखा-कहा कुछ? जिस तरह ये तीनों कानून चोर दरवाजे से लाकर देश पर थोप दिए गए, क्या उसे भी हिसाब में नहीं लेना चाहिए? क्या यह भी दर्ज नहीं किया जाना चाहिए कि किसानों ने पहले दिन से ही इन कानूनों से अपनी असहमति जाहिर कर दी थी और फिर कदम-दर-कदम वे विरोध तक पहुंचे थे? सरकार ने हमेशा उन्हें तिनके से टालना और धोखा देना चाहा. सबसे पहले शरद पवार ने यह सारा संदर्भ समेटते हुए कहा कि यह सब जो हुआ है, उसकी जिम्मेवारी सरकार की है.
गांधी ने भी एकाधिक बार अंग्रेजों से कहा था कि जनता को हिंसा के लिए मजबूर करने के अपराधी हैं आप! यही इस सरकार से भी कहना होगा. पिछले कई सालों से समाज को झूठ, गलतबयानी, क्षद्म की खुराक पर रखा गया है. उन्हें हर मौके पर, हर स्तर पर बांटने-तोड़ने-भटकाने का सिलसिला ही चला रखा गया है. यह जो हुआ है वह इसकी ही तार्किक परिणति है. आप संविधान को साक्षी रख कर गोपनीयता की शपथ लें और अर्णब गोस्वामी से सुरक्षा जैसे संवेदनशील मामलों की जानकारी बांटें, तो देश का मन कैसा बना रहे हैं आप? आप मनमानी करें क्यों आपके पास संसद में टुच्चा-सा बहुमत है; तो वह जनता, जो बहुमत की जनक है, वह मनमानी क्यों न करे? देश-समाज का एक उदार, उद्दात्त व भरोसा कायम रखने वाला मन बनाना पड़ता है जो कुर्सी पर से उपदेश देने से नहीं बनता है. यह बहुत पित्तमार काम है. जनता भीड़ नहीं होती है लेकिन उसके भीड़ में बदल जाने का खतरा जरूर होता है. लोकतंत्र जनता को सजग नागरिक बनाने की कला है. वह कला भले आपको या उनको न आती हो लेकिन जनता को भीड़ में बदलना वह गर्हित खेल है जो समाज का पाशवीकरण करता है, लोकतंत्र को खोखला बनाता है. वह खेल पिछले सालों में बहुत योजनापूर्वक और क्रूरता से खेला गया है. ऐसे खेल में से तो ऐसा ही समाज और ऐसी ही सरकार बन सकती है.
पता नहीं कैसे-कैसे खेल खेल कर आप सत्ता की कुर्सी पा गए हैं. फिर आप लालकिला पहुंच जाएं तो वह गरिमापूर्ण है; पिट-पिटा कर किसान लालकिला पहुंचे तो वह गरिमा का हनन है, मीडिया का यह तर्क कैसा है भाई? मुझे इस बात से कोई एतराज नहीं है कि कोई युवक झंडे के खंभे पर जा चढ़ा और उसने वहां किसानों का झंडा फहरा दिया. एतराज इस बात से है, और गहरा एतराज है कि उसने खालसा पंथ का झंडा भी लगा दिया. यह तो समाज को बांटने के सत्ता के उसी खेल को मजबूत बनाना हुआ न जो धर्म,संप्रदाय आदि को चाकू की तरह इस्तेमाल करती है. किसानों का झंडा देश की खेतिहर आत्मा का प्रतीक है. लालकिला के स्तंभ पर किसी वक्त के लिए उसकी जगह हो सकती है. लेकिन किसी धर्म या संप्रदाय का झंडा लालकिला पर नहीं लगाया जा सकता है. वह किसी नादान युवक की मासूम नादानी थी या किसी एजेंट की चाल यह तो पुलिस और किसान आंदोलन के बीच का मामला बन गया है. किसान आंदोलन को आरोप लगा कर छोड़ नहीं देना चाहिए बल्कि इसकी जांच कर, सप्रमाण देश को बताना चाहिए. लालकिला के शिखर पर फहराता तिरंगा किसी ने छुआ नहीं, यह भला हुआ.
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि गाजीपुर सीमा से चला किसानों का जत्था जिस तरह आदर्शों से भटका, दूसरे किसी स्थान से चला किसानों का जत्था भटका नहीं. सबने निर्धारित रास्ता ही पकड़ा और अपना निर्धारित कार्यक्रम पूरी शांति व अनुशासन से पूरा किया. देश भर में जगह-जगह किसानों ने ट्रैक्टर रैली की. कहीं से भी अशांति की एक खबर भी नहीं आई. सारे देश में इतना व्यापक जन-विरोध आयोजित हुआ और सब कुछ शांतिपूर्वक निबट गया, क्या किसान आंदोलन को इसका श्रेय नहीं देंगे हम? गाजीपुर की चूक शर्मनाक थी. उसकी माफी किसान आंदोलन को मांगनी चाहिए. माफी की भाषा और माफी की मुद्रा दोनों में ईमानदारी होनी चाहिए. हमें भी उसी तरह किसानों की पीठ ठोकनी चाहिए. जैसे पानी में उतर कर ही तैरना सीखा जाता है, वैसे ही उत्तेजना की घड़ी में ही शांति का पाठ पढ़ा जाता है. किसान भी वह पाठ पढ़ रहा है. हम भी पढे़ं.
अब सड़क खाली हो चुकी है. किसानों के कुछ ट्रैक्टर यहां-वहां छूटे पड़े हैं. सड़क पर लाठी व हथियारधारी पुलिस का कब्जा है. वह फ्लैग मार्च कर रही है. जीवन की नहीं, आतंक की हवा भरी जा रही है. गणतंत्र दिवस बीत चुका है.
26 जनवरी को ही सारे अखबारों, चैनलों ने यह लिखना- कहना शुरू कर दिया कि आंदोलन भटक गया, कि उसका असली चेहरा सामने आ गया. यह 27 को भी जारी रहा. लेकिन कोई यह नहीं लिख रहा है, कोई यह कह नहीं कह रहा है कि संसार भर में क्रांतियां तो ऐसे ही होती हैं. खून नहीं तो क्रांति कैसी? फ्रांस और रूस की क्रांति का इतना महिमामंडन होता है. उनमें क्या हुआ था? यह तो गांधी ने आकर हमें सिखाया कि क्रांति का दूसरा रास्ता भी है. इसलिए किसान आंदोलन का यह टी-20 वाला रूप हमें भाया नहीं है. लेकिन गांधी की कसौटी अगर आपको प्रिय है तो उसे किसानों पर ही क्यों, सरकार पर भी क्यों न लागू करते और प्रशासन पर भी? किसानों ने आईटीओ पर पुलिस पर छिटफुट हमला किया इसका इतना शोर है लेकिन पिछले महीनों में दिल्ली आते किसानों पर पुलिस का जो गैर-कानूनी, असंवैधानिक हमला होता रहा उस पर किसने, क्या लिखा-कहा? सार्वजनिक संपत्ति का कुछ नुकसान 26 जनवरी को जरूर हुआ लेकिन प्रशासन ने सड़कें काट कर, पेड़ काट कर, लोहे और सीमेंट के अनगिनत अवरोध खड़े कर के, चाय-पानी की दुकानें बंद करवा कर, करोड़ों रुपयों का डीजल-पेट्रोल फूंक कर पुलिस व दंगानिरोधक दस्तों को लगा कर सार्वजनिक धन की जो होली पिछले महीनों में जलाई, क्या उस पर भी किसी ने लिखा-कहा कुछ? जिस तरह ये तीनों कानून चोर दरवाजे से लाकर देश पर थोप दिए गए, क्या उसे भी हिसाब में नहीं लेना चाहिए? क्या यह भी दर्ज नहीं किया जाना चाहिए कि किसानों ने पहले दिन से ही इन कानूनों से अपनी असहमति जाहिर कर दी थी और फिर कदम-दर-कदम वे विरोध तक पहुंचे थे? सरकार ने हमेशा उन्हें तिनके से टालना और धोखा देना चाहा. सबसे पहले शरद पवार ने यह सारा संदर्भ समेटते हुए कहा कि यह सब जो हुआ है, उसकी जिम्मेवारी सरकार की है.
गांधी ने भी एकाधिक बार अंग्रेजों से कहा था कि जनता को हिंसा के लिए मजबूर करने के अपराधी हैं आप! यही इस सरकार से भी कहना होगा. पिछले कई सालों से समाज को झूठ, गलतबयानी, क्षद्म की खुराक पर रखा गया है. उन्हें हर मौके पर, हर स्तर पर बांटने-तोड़ने-भटकाने का सिलसिला ही चला रखा गया है. यह जो हुआ है वह इसकी ही तार्किक परिणति है. आप संविधान को साक्षी रख कर गोपनीयता की शपथ लें और अर्णब गोस्वामी से सुरक्षा जैसे संवेदनशील मामलों की जानकारी बांटें, तो देश का मन कैसा बना रहे हैं आप? आप मनमानी करें क्यों आपके पास संसद में टुच्चा-सा बहुमत है; तो वह जनता, जो बहुमत की जनक है, वह मनमानी क्यों न करे? देश-समाज का एक उदार, उद्दात्त व भरोसा कायम रखने वाला मन बनाना पड़ता है जो कुर्सी पर से उपदेश देने से नहीं बनता है. यह बहुत पित्तमार काम है. जनता भीड़ नहीं होती है लेकिन उसके भीड़ में बदल जाने का खतरा जरूर होता है. लोकतंत्र जनता को सजग नागरिक बनाने की कला है. वह कला भले आपको या उनको न आती हो लेकिन जनता को भीड़ में बदलना वह गर्हित खेल है जो समाज का पाशवीकरण करता है, लोकतंत्र को खोखला बनाता है. वह खेल पिछले सालों में बहुत योजनापूर्वक और क्रूरता से खेला गया है. ऐसे खेल में से तो ऐसा ही समाज और ऐसी ही सरकार बन सकती है.
पता नहीं कैसे-कैसे खेल खेल कर आप सत्ता की कुर्सी पा गए हैं. फिर आप लालकिला पहुंच जाएं तो वह गरिमापूर्ण है; पिट-पिटा कर किसान लालकिला पहुंचे तो वह गरिमा का हनन है, मीडिया का यह तर्क कैसा है भाई? मुझे इस बात से कोई एतराज नहीं है कि कोई युवक झंडे के खंभे पर जा चढ़ा और उसने वहां किसानों का झंडा फहरा दिया. एतराज इस बात से है, और गहरा एतराज है कि उसने खालसा पंथ का झंडा भी लगा दिया. यह तो समाज को बांटने के सत्ता के उसी खेल को मजबूत बनाना हुआ न जो धर्म,संप्रदाय आदि को चाकू की तरह इस्तेमाल करती है. किसानों का झंडा देश की खेतिहर आत्मा का प्रतीक है. लालकिला के स्तंभ पर किसी वक्त के लिए उसकी जगह हो सकती है. लेकिन किसी धर्म या संप्रदाय का झंडा लालकिला पर नहीं लगाया जा सकता है. वह किसी नादान युवक की मासूम नादानी थी या किसी एजेंट की चाल यह तो पुलिस और किसान आंदोलन के बीच का मामला बन गया है. किसान आंदोलन को आरोप लगा कर छोड़ नहीं देना चाहिए बल्कि इसकी जांच कर, सप्रमाण देश को बताना चाहिए. लालकिला के शिखर पर फहराता तिरंगा किसी ने छुआ नहीं, यह भला हुआ.
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि गाजीपुर सीमा से चला किसानों का जत्था जिस तरह आदर्शों से भटका, दूसरे किसी स्थान से चला किसानों का जत्था भटका नहीं. सबने निर्धारित रास्ता ही पकड़ा और अपना निर्धारित कार्यक्रम पूरी शांति व अनुशासन से पूरा किया. देश भर में जगह-जगह किसानों ने ट्रैक्टर रैली की. कहीं से भी अशांति की एक खबर भी नहीं आई. सारे देश में इतना व्यापक जन-विरोध आयोजित हुआ और सब कुछ शांतिपूर्वक निबट गया, क्या किसान आंदोलन को इसका श्रेय नहीं देंगे हम? गाजीपुर की चूक शर्मनाक थी. उसकी माफी किसान आंदोलन को मांगनी चाहिए. माफी की भाषा और माफी की मुद्रा दोनों में ईमानदारी होनी चाहिए. हमें भी उसी तरह किसानों की पीठ ठोकनी चाहिए. जैसे पानी में उतर कर ही तैरना सीखा जाता है, वैसे ही उत्तेजना की घड़ी में ही शांति का पाठ पढ़ा जाता है. किसान भी वह पाठ पढ़ रहा है. हम भी पढे़ं.
अब सड़क खाली हो चुकी है. किसानों के कुछ ट्रैक्टर यहां-वहां छूटे पड़े हैं. सड़क पर लाठी व हथियारधारी पुलिस का कब्जा है. वह फ्लैग मार्च कर रही है. जीवन की नहीं, आतंक की हवा भरी जा रही है. गणतंत्र दिवस बीत चुका है.