प्रधानमंत्री जी हिन्दी में भाषण देते हैं लेकिन उसमें काम के शब्द अंग्रेजी में होते हैं

महामारी ने भाषा को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है.

WrittenBy:अनिल चमड़िया
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भाषा एक इलाज की तरह होती है

आम जनता के लिए नाजूक मौके पर भाषा का महत्व क्या हो सकता है यह हिन्दी में महा पंडित कहे जाने वाले विद्वान व नेता स्वर्गीय पंडित राहुल सांकृत्यायन के इस बयान से समझा जा सकता है. उन्होंने अपनी एक पुस्तक “मेरे असहयोग के साथी” (पृष्ठ संख्या 41, प्रकाशन आईएसबीएन 81-225-0131-1) में बताया है कि “मैं अपने सिद्धांत के अनुसार छपरा में वहां की बोली (भोजपुरी) में ही सदा बोलता था, जिसके कारण भाषण का एक भी शब्द लोगों के कान और दिमाग से बाहर नहीं जाता था.”

सामान्य तौर पर भारत में खासतौर से उत्तर भारत को हिन्दी भाषी माना जाता है. लेकिन हिन्दी को एक ऐसी भाषा के रूप में विकसित करने का भी राजनीतिक लक्ष्य रहा है ताकि वह पूरे देश के लोगों के बीच संवाद की भाषा कम से कम बन सकें. हिन्दुत्ववादी विचारधारा के समर्थक हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में पेश करते हैं और हिन्दुत्ववादी समर्थक स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जो 1996 में प्रधानमंत्री बने थे, द्वारा संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में हिन्दी में दिए गए भाषण को राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल करते हैं.

भारत में संसदीय लोकतंत्र में यह एक विरोधाभास दिखता है कि राजनीतिक पार्टियों के नेता चुनाव में वोट मांगने के लिए हिन्दी में भाषण देते हैं लेकिन ब्रिटिश काल से ही सरकारी ढांचा और उसके कामकाज पर अंग्रेजी भाषा का प्रभाव और दिन पर दिन गहरा होता गया है.

यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनाव के दौरान किसी खास इलाके की भाषा का भी अपने भाषणों में इस्तेमाल करते हैं. बिहार विधान सभा के 2020 के चुनाव प्रचार का अभियान उन्होंने हिन्दी और भोजपुरी में सासाराम में भाषण से किया था. बाद में बिहार की एक दूसरी भाषा मैथिली में भी उन्होंने चुनाव प्रचार किया. लेकिन कोरोना काल के दौरान प्रधानमंत्री ने हिन्दी को केवल व्याकरण के लिए इस्तेमाल किया और उन भाषण के जो मकसद थे उसके लिए अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल किया.

प्रधानमंत्री के जिन भाषणों को अध्ययन का आधार बनाया गया है वे सभी भारत सरकार के संगठन पीआईबी (पत्र सूचना कार्यालय) की अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध है. यह अध्ययन उन्हीं पांचों स्क्रिप्ट पर आधारित है. इन भाषणों में जो अंग्रेजी या इंग्लिश कहें जाने वाले शब्द हैं, उनकी एक सूची तिथिवार प्रस्तुत की जा रही है. इनके अलावा उर्दू और संस्कृत के भी शब्दों का इस्तेमाल किया गया है. लेकिन उन्हें फिलहाल इस अध्ययन में शामिल नहीं किया गया है.

लोगों के लिए भाषा का मतलब

यह माना जाता है कि भारत में हिन्दी के बजाय आपसी संवाद के लिए एक ऐसी भाषा का विस्तार हुआ हैं जिसमें कि भारत की भाषाओं के भीतर अंग्रेजी की गहरी पैठ दिखाई देती है. हिन्दी के संदर्भ में ऐसी भाषा को सुविधा के लिए इंग्लिश कहा जाता है. इंग्लिश को मध्य वर्ग के आपसी संवाद के लिए बोली के रूप में देखा जाता है. इंग्लिश का भारत में शहरीकरण को विकसित करने वाली नीतियों के साथ बोलबाला बढ़ा है. भाषा के विद्वान कहते है कि भाषा का इस्तेमाल महज संप्रेषण के लिए नहीं होता है. इसके सांस्कृतिक निहितार्थ होते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी की शिक्षिका डा. सपना चमड़िया एवं अवनीश कुमार की संपादित पुस्तक भाषा का सच में उल्लेख किया है कि संप्रेषण एक सांस्कृतिक उपक्रम हैं क्योंकि सांस्कृतिक उत्थान, पतन, वर्चस्व, अवमूल्यन, दमन इस सबसे संप्रेषण का तरीका प्रभावित होता है, बदल जाता है. (आईएसबीएन-978-81- 926852-5-0) कोरोना के दौरान सोशल डिस्टेंटिंग, ल़ॉकडाउन जैसे शब्द हैं जो कि भारतीय भाषाओं के हिस्से बन गए हैं और दूसरी तरफ लोकल, एयरपोर्ट जैसे शब्द भी हैं जिनका प्रचलन भारतीय भाषाओं में बेहद सामान्य हो गया है.

भाषा एक इलाज की तरह होती है

आम जनता के लिए नाजूक मौके पर भाषा का महत्व क्या हो सकता है यह हिन्दी में महा पंडित कहे जाने वाले विद्वान व नेता स्वर्गीय पंडित राहुल सांकृत्यायन के इस बयान से समझा जा सकता है. उन्होंने अपनी एक पुस्तक “मेरे असहयोग के साथी” (पृष्ठ संख्या 41, प्रकाशन आईएसबीएन 81-225-0131-1) में बताया है कि “मैं अपने सिद्धांत के अनुसार छपरा में वहां की बोली (भोजपुरी) में ही सदा बोलता था, जिसके कारण भाषण का एक भी शब्द लोगों के कान और दिमाग से बाहर नहीं जाता था.”

सामान्य तौर पर भारत में खासतौर से उत्तर भारत को हिन्दी भाषी माना जाता है. लेकिन हिन्दी को एक ऐसी भाषा के रूप में विकसित करने का भी राजनीतिक लक्ष्य रहा है ताकि वह पूरे देश के लोगों के बीच संवाद की भाषा कम से कम बन सकें. हिन्दुत्ववादी विचारधारा के समर्थक हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में पेश करते हैं और हिन्दुत्ववादी समर्थक स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जो 1996 में प्रधानमंत्री बने थे, द्वारा संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में हिन्दी में दिए गए भाषण को राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल करते हैं.

भारत में संसदीय लोकतंत्र में यह एक विरोधाभास दिखता है कि राजनीतिक पार्टियों के नेता चुनाव में वोट मांगने के लिए हिन्दी में भाषण देते हैं लेकिन ब्रिटिश काल से ही सरकारी ढांचा और उसके कामकाज पर अंग्रेजी भाषा का प्रभाव और दिन पर दिन गहरा होता गया है.

यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनाव के दौरान किसी खास इलाके की भाषा का भी अपने भाषणों में इस्तेमाल करते हैं. बिहार विधान सभा के 2020 के चुनाव प्रचार का अभियान उन्होंने हिन्दी और भोजपुरी में सासाराम में भाषण से किया था. बाद में बिहार की एक दूसरी भाषा मैथिली में भी उन्होंने चुनाव प्रचार किया. लेकिन कोरोना काल के दौरान प्रधानमंत्री ने हिन्दी को केवल व्याकरण के लिए इस्तेमाल किया और उन भाषण के जो मकसद थे उसके लिए अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल किया.

प्रधानमंत्री के जिन भाषणों को अध्ययन का आधार बनाया गया है वे सभी भारत सरकार के संगठन पीआईबी (पत्र सूचना कार्यालय) की अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध है. यह अध्ययन उन्हीं पांचों स्क्रिप्ट पर आधारित है. इन भाषणों में जो अंग्रेजी या इंग्लिश कहें जाने वाले शब्द हैं, उनकी एक सूची तिथिवार प्रस्तुत की जा रही है. इनके अलावा उर्दू और संस्कृत के भी शब्दों का इस्तेमाल किया गया है. लेकिन उन्हें फिलहाल इस अध्ययन में शामिल नहीं किया गया है.

लोगों के लिए भाषा का मतलब

यह माना जाता है कि भारत में हिन्दी के बजाय आपसी संवाद के लिए एक ऐसी भाषा का विस्तार हुआ हैं जिसमें कि भारत की भाषाओं के भीतर अंग्रेजी की गहरी पैठ दिखाई देती है. हिन्दी के संदर्भ में ऐसी भाषा को सुविधा के लिए इंग्लिश कहा जाता है. इंग्लिश को मध्य वर्ग के आपसी संवाद के लिए बोली के रूप में देखा जाता है. इंग्लिश का भारत में शहरीकरण को विकसित करने वाली नीतियों के साथ बोलबाला बढ़ा है. भाषा के विद्वान कहते है कि भाषा का इस्तेमाल महज संप्रेषण के लिए नहीं होता है. इसके सांस्कृतिक निहितार्थ होते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी की शिक्षिका डा. सपना चमड़िया एवं अवनीश कुमार की संपादित पुस्तक भाषा का सच में उल्लेख किया है कि संप्रेषण एक सांस्कृतिक उपक्रम हैं क्योंकि सांस्कृतिक उत्थान, पतन, वर्चस्व, अवमूल्यन, दमन इस सबसे संप्रेषण का तरीका प्रभावित होता है, बदल जाता है. (आईएसबीएन-978-81- 926852-5-0) कोरोना के दौरान सोशल डिस्टेंटिंग, ल़ॉकडाउन जैसे शब्द हैं जो कि भारतीय भाषाओं के हिस्से बन गए हैं और दूसरी तरफ लोकल, एयरपोर्ट जैसे शब्द भी हैं जिनका प्रचलन भारतीय भाषाओं में बेहद सामान्य हो गया है.

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