अदालत ने अब उन तीनों कानूनों के अमल पर रोक लगा दी जिनकी वापसी की मांग किसान कर रहे हैं.
अदालत भाई, आपने ही कहा है न कि किसानों के आंदोलन में महात्मा गांधी के सत्याग्रह की झलक मिलती है. हम जानना चाहते हैं कि आपने रवैये में गांधी की कोई झलक क्यों नहीं मिल रही है? गांधी का यदि कोई सकारात्मक मतलब है तो अदालत उससे इतनी दूर क्यों नजर आता है? अदालत में अटॉर्नी जनरल ने जब यह गंदी, बेबुनियाद बात कही कि इस आंदोलन में खालिस्तानी प्रवेश कर गए हैं, तब आपको गांधीजी की याद में इतना तो कहना ही था कि हमारी अदालत में ऐसे घटिया आरोपों के लिए जगह नहीं है. वेणुगोपालजी को याद होना चाहिए कि वे जिस सरकार की नुमाइंदगी करते हैं उस सरकार में भ्रष्ट भी हैं, अपराधी भी. उनमें बहुमत सांप्रदायिक लोगों का है. दल-बदलू भी और निकम्मे, अयोग्य लोग भी हैं इसमें. हमने तो नहीं कहा या किसानों ने भी नहीं कहा कि वेणुगोपालजी भी ऐसे ही हैं. यह घटिया खेल राजनीति वालों को ही खेलने दीजिए वेणुगोपालजी. आप अपनी नौकरी भर काम कीजिए तो इज्जत तो बची रहेगी. किसानों को आतंकवादी, देशद्रोही, खालिस्तानी आदि-आदि कहने में अब तो कम-से-कम शर्म आनी चाहिए क्योंकि यह किसान आंदोलन शांति, सहयोग, संयम, गरिमा और भाईचारे की चलती-फिरती पाठशाला तो बन ही गया है.
हरियाणा सरकार केंद्र की तिकड़मों से भले कुछ दिन और खिंच जाए लेकिन वह खोखली हो चुकी है. देश के खट्टर साहबों को भी और इनकी रहनुमा केंद्र सरकार को भी अदालत यह नसीहत देती तो भला होता कि किसानों को उकसाने की या उन्हें सत्ता की ऐंठ की चुनौती न दें. करनाल में जो हुआ वह इसका ही परिणाम था. किसान गांधी के सत्याग्रह के तपे-तपाए सिपाही तो हैं नहीं. आप उन्हें नाहक उकसाएंगे तो अराजक स्थिति बनेगी. गांधी ने यह बात गोरे अंग्रेजों से कही थी, आज उनका जूता पहन कर चलने वालों से अदालत को यह कहना चाहिए था. लेकिन वह चूक गई. न्याय के बारे में कहते हैं न कि वह समय पर न मिले तो अन्याय में बदल जाता है. अब अदालत को हम यह याद दिला ही दें कि किसान उसका भरोसा इसलिए नहीं कर पा रहे हैं कि उनके सामने (और हमारे सामने भी!) सांप्रदायिक दंगों और हत्यायों के सामने मूक बनी अदालत है. उनके सामने कश्मीर के सवाल पर गूंगी बनी अदालत है. उसके सामने वह अदालत भी है जो बाबरी मस्जिद ध्वंस और राम मंदिर निर्माण के सवाल पर अंधी-गूंगी-बहरी तीनों नजर आई. किसान भी देख तो रहे हैं कि औने-पौने आरोपों पर कितने ही लोग असंवैधानिक कानून के बल पर लंबे समय से जेलों में बंद हैं और अदालत पीठ फेरे खड़ी है. भरोसा व विश्वसनीयता बाजार में बिकती नहीं है, न कॉरपोरेट की मदद से उसे जेब में रखा जा सकता है.
रात-दिन की कसौटी पर रह कर इसे कमाना पड़ता है. हमारी न्यायपालिका ऐसा नहीं कर सकी है. इसलिए किसान उसके पास नहीं जाना चाहता है. वह सरकार के पास जाता रहा है क्योंकि उसने ही इस सरकार को बनाया है और जब तक लोकतंत्र है वही हर सरकार को बनाएगा-झुकाएगा-बदलेगा. अदालत के साथ जनता का ऐसा रिश्ता नहीं होता है. इसलिए अदालत को ज्यादा सीधा व सरल रास्ता पकड़ना चाहिए जो दिल को छूता हो और दिमाग में समता हो.
अदालत भाई, जरा समझाओ भाई कि आपका दिल-दिमाग से उतना याराना क्यों नहीं है जितना इन खेती-किसानी वालों का है?
अदालत भाई, आपने ही कहा है न कि किसानों के आंदोलन में महात्मा गांधी के सत्याग्रह की झलक मिलती है. हम जानना चाहते हैं कि आपने रवैये में गांधी की कोई झलक क्यों नहीं मिल रही है? गांधी का यदि कोई सकारात्मक मतलब है तो अदालत उससे इतनी दूर क्यों नजर आता है? अदालत में अटॉर्नी जनरल ने जब यह गंदी, बेबुनियाद बात कही कि इस आंदोलन में खालिस्तानी प्रवेश कर गए हैं, तब आपको गांधीजी की याद में इतना तो कहना ही था कि हमारी अदालत में ऐसे घटिया आरोपों के लिए जगह नहीं है. वेणुगोपालजी को याद होना चाहिए कि वे जिस सरकार की नुमाइंदगी करते हैं उस सरकार में भ्रष्ट भी हैं, अपराधी भी. उनमें बहुमत सांप्रदायिक लोगों का है. दल-बदलू भी और निकम्मे, अयोग्य लोग भी हैं इसमें. हमने तो नहीं कहा या किसानों ने भी नहीं कहा कि वेणुगोपालजी भी ऐसे ही हैं. यह घटिया खेल राजनीति वालों को ही खेलने दीजिए वेणुगोपालजी. आप अपनी नौकरी भर काम कीजिए तो इज्जत तो बची रहेगी. किसानों को आतंकवादी, देशद्रोही, खालिस्तानी आदि-आदि कहने में अब तो कम-से-कम शर्म आनी चाहिए क्योंकि यह किसान आंदोलन शांति, सहयोग, संयम, गरिमा और भाईचारे की चलती-फिरती पाठशाला तो बन ही गया है.
हरियाणा सरकार केंद्र की तिकड़मों से भले कुछ दिन और खिंच जाए लेकिन वह खोखली हो चुकी है. देश के खट्टर साहबों को भी और इनकी रहनुमा केंद्र सरकार को भी अदालत यह नसीहत देती तो भला होता कि किसानों को उकसाने की या उन्हें सत्ता की ऐंठ की चुनौती न दें. करनाल में जो हुआ वह इसका ही परिणाम था. किसान गांधी के सत्याग्रह के तपे-तपाए सिपाही तो हैं नहीं. आप उन्हें नाहक उकसाएंगे तो अराजक स्थिति बनेगी. गांधी ने यह बात गोरे अंग्रेजों से कही थी, आज उनका जूता पहन कर चलने वालों से अदालत को यह कहना चाहिए था. लेकिन वह चूक गई. न्याय के बारे में कहते हैं न कि वह समय पर न मिले तो अन्याय में बदल जाता है. अब अदालत को हम यह याद दिला ही दें कि किसान उसका भरोसा इसलिए नहीं कर पा रहे हैं कि उनके सामने (और हमारे सामने भी!) सांप्रदायिक दंगों और हत्यायों के सामने मूक बनी अदालत है. उनके सामने कश्मीर के सवाल पर गूंगी बनी अदालत है. उसके सामने वह अदालत भी है जो बाबरी मस्जिद ध्वंस और राम मंदिर निर्माण के सवाल पर अंधी-गूंगी-बहरी तीनों नजर आई. किसान भी देख तो रहे हैं कि औने-पौने आरोपों पर कितने ही लोग असंवैधानिक कानून के बल पर लंबे समय से जेलों में बंद हैं और अदालत पीठ फेरे खड़ी है. भरोसा व विश्वसनीयता बाजार में बिकती नहीं है, न कॉरपोरेट की मदद से उसे जेब में रखा जा सकता है.
रात-दिन की कसौटी पर रह कर इसे कमाना पड़ता है. हमारी न्यायपालिका ऐसा नहीं कर सकी है. इसलिए किसान उसके पास नहीं जाना चाहता है. वह सरकार के पास जाता रहा है क्योंकि उसने ही इस सरकार को बनाया है और जब तक लोकतंत्र है वही हर सरकार को बनाएगा-झुकाएगा-बदलेगा. अदालत के साथ जनता का ऐसा रिश्ता नहीं होता है. इसलिए अदालत को ज्यादा सीधा व सरल रास्ता पकड़ना चाहिए जो दिल को छूता हो और दिमाग में समता हो.
अदालत भाई, जरा समझाओ भाई कि आपका दिल-दिमाग से उतना याराना क्यों नहीं है जितना इन खेती-किसानी वालों का है?
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