ट्रंप जैसे लोग न लोकतंत्र समझते हैं, न उसमें आस्था रखते हैं. इसलिए जरूरी है कि लोकतंत्र उन्हें अपना पाठ पढ़ाए.
यह इसलिए जरूरी है कि ट्रंप को 6 जनवरी के कुकृत्यों का कोई पछतावा नहीं है. अमेरिकी राष्ट्र को शर्मसार करने के दो दिन बाद तक वे व्हाइट हाउस में खमोश बैठे रहे. उनकी सलाहकार मंडली उन्हें समझाती रही कि उन्हें संसद में प्रवेश की, हिंसा व लूट-मार की अपने समर्थकों की हरकत का निषेध करने वाला बयान तुरंत जारी करना चाहिए लेकिन वे ऐसा कुछ भी कहने को तैयार नहीं हो रहे थे. जब उन्हें यह अहसास कराया गया कि अमेरिकी कानून उन्हें इसकी आपराधिक सजा सुना सकता है तब एक सामान्य अपराधी की तरह वे डर गए और बड़े बेमन से, काफी हीले-हवाले के बाद उस मजमून पर हस्ताक्षर किए जो उनके नाम से दुनिया के सामने अब आया है. यह हमारी आंखों में धूल झोंकने की नई कोशिश से अधिक कुछ नहीं है.
उन्होंने यह भी कहा है कि वे 20 जनवरी को नये राष्ट्रपति के शपथ-ग्रहण समारोह में हाजिर नहीं रहेंगे लेकिन यह काम तो अमेरिकी संसद को करना चाहिए कि वह राष्ट्रपति ट्रंप, उप-राष्ट्रपति माइक पेंस तथा ट्रंप प्रशासन के सभी उच्चाधिकारियों को, जो ट्रंप के कुकृत्यों में बराबरी के साझीदार रहे हैं, इस समारोह का आमंत्रण भेजने से मना कर दे. यह अमेरिका के संसदीय इतिहास की पहली घटना होगी कि जब संसद किसी राष्ट्रपति को राष्ट्रपति मानने से इंकार दे.
यह क्यों जरूरी है? सारी दुनिया में हम यह नजारा देख रहे हैं कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व संवैधानिक प्रावधानों का इस्तेमाल कर, येनकेनप्रकारेण कोई भी ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सत्ता में पहुंच जाता है और फिर लोकतंत्र की बखिया उधेड़ने लगता है. वह लोकतंत्र को मनमाना करने का लाइसेंस मान लेता है और खोखले शब्दजाल में जनता को फंसा कर, उसे भीड़ में बदल लेता है. यह खेल हम अपने यहां भी देख रहे हैं. लोकतंत्र मानवीय कमजोरियों को निशाना बना कर सत्ता में पहुंचने व सत्ता से चिपकने का गर्हित खेल नहीं है बल्कि इसकी आत्मा यह है कि लोगों को उनकी संकीर्णताओं से ऊपर उठा कर, भीड़ से नागरिक बनाया जाए और उस नागरिक की सम्मति से शासन चलाया जाए. ट्रंप जैसे लोग न लोकतंत्र समझते हैं, न उसमें आस्था रखते हैं. इसलिए जरूरी है कि लोकतंत्र उन्हें अपना पाठ पढ़ाए.
अपराधी वे नहीं हैं जो 8 जनवरी को कैपिटल हिल में जा घुसे थे. वह तो उन्मत्त बनाई गई वह भीड़ थी जिसका आयोजन ट्रंप ने किया था. हमारे यहां ‘बंदर को दारू पिलाना’ खासा प्रचलित मुहावरा है. ट्रंप ने यही किया था. अब उन्हें यह बताने का वक्त है कि बंदरों का खेल सड़क पर देखना सुहाता है, राष्ट्रपति भवन में नहीं.
यह इसलिए जरूरी है कि ट्रंप को 6 जनवरी के कुकृत्यों का कोई पछतावा नहीं है. अमेरिकी राष्ट्र को शर्मसार करने के दो दिन बाद तक वे व्हाइट हाउस में खमोश बैठे रहे. उनकी सलाहकार मंडली उन्हें समझाती रही कि उन्हें संसद में प्रवेश की, हिंसा व लूट-मार की अपने समर्थकों की हरकत का निषेध करने वाला बयान तुरंत जारी करना चाहिए लेकिन वे ऐसा कुछ भी कहने को तैयार नहीं हो रहे थे. जब उन्हें यह अहसास कराया गया कि अमेरिकी कानून उन्हें इसकी आपराधिक सजा सुना सकता है तब एक सामान्य अपराधी की तरह वे डर गए और बड़े बेमन से, काफी हीले-हवाले के बाद उस मजमून पर हस्ताक्षर किए जो उनके नाम से दुनिया के सामने अब आया है. यह हमारी आंखों में धूल झोंकने की नई कोशिश से अधिक कुछ नहीं है.
उन्होंने यह भी कहा है कि वे 20 जनवरी को नये राष्ट्रपति के शपथ-ग्रहण समारोह में हाजिर नहीं रहेंगे लेकिन यह काम तो अमेरिकी संसद को करना चाहिए कि वह राष्ट्रपति ट्रंप, उप-राष्ट्रपति माइक पेंस तथा ट्रंप प्रशासन के सभी उच्चाधिकारियों को, जो ट्रंप के कुकृत्यों में बराबरी के साझीदार रहे हैं, इस समारोह का आमंत्रण भेजने से मना कर दे. यह अमेरिका के संसदीय इतिहास की पहली घटना होगी कि जब संसद किसी राष्ट्रपति को राष्ट्रपति मानने से इंकार दे.
यह क्यों जरूरी है? सारी दुनिया में हम यह नजारा देख रहे हैं कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व संवैधानिक प्रावधानों का इस्तेमाल कर, येनकेनप्रकारेण कोई भी ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सत्ता में पहुंच जाता है और फिर लोकतंत्र की बखिया उधेड़ने लगता है. वह लोकतंत्र को मनमाना करने का लाइसेंस मान लेता है और खोखले शब्दजाल में जनता को फंसा कर, उसे भीड़ में बदल लेता है. यह खेल हम अपने यहां भी देख रहे हैं. लोकतंत्र मानवीय कमजोरियों को निशाना बना कर सत्ता में पहुंचने व सत्ता से चिपकने का गर्हित खेल नहीं है बल्कि इसकी आत्मा यह है कि लोगों को उनकी संकीर्णताओं से ऊपर उठा कर, भीड़ से नागरिक बनाया जाए और उस नागरिक की सम्मति से शासन चलाया जाए. ट्रंप जैसे लोग न लोकतंत्र समझते हैं, न उसमें आस्था रखते हैं. इसलिए जरूरी है कि लोकतंत्र उन्हें अपना पाठ पढ़ाए.
अपराधी वे नहीं हैं जो 8 जनवरी को कैपिटल हिल में जा घुसे थे. वह तो उन्मत्त बनाई गई वह भीड़ थी जिसका आयोजन ट्रंप ने किया था. हमारे यहां ‘बंदर को दारू पिलाना’ खासा प्रचलित मुहावरा है. ट्रंप ने यही किया था. अब उन्हें यह बताने का वक्त है कि बंदरों का खेल सड़क पर देखना सुहाता है, राष्ट्रपति भवन में नहीं.