यह सीरीज असल में महिला सुरक्षा के बढ़ते सरोकारों और उसके बीच युवाओं की बनाई गयी छवि के समानान्तर एक कथा रचती है.
विचाराधीन कैदियों या अंडर ट्रायल कैदियों के लिए जेल में सुरक्षा एक बड़ा सवाल है भले ही अदालत उन्हें न्यायिक हिरासत के नाम पर जेलों में भेजती है लेकिन एक बार जेल में पहुंच जाने के बाद वहां जेल से बाहर की किसी संस्था का अधिकार क्षेत्र जैसे खत्म हो जाता है. जेलों की दुर्दशा दिखलाने में इस सीरीज ने कुछ खास नहीं किया बल्कि इस तथ्य को स्थापित ही किया कि भारतीय जेलें मानव अधिकारों का न्यूनतम पालन करने में भी असमर्थ हैं. इसके लिए जेलों पर बढ़ते दबाव को एक समस्या माना भी जाये तब भी न्याय-व्यवस्था की मंथर गति इस स्थिति को और भयावह बना रही है. जहां बीस लोग ठीक से पांव फैलाकर सो नहीं सकते वहां इससे चार गुना कैदियों को रहना है. साफ सफाई, संडास, खाने पीने की अमानवीय परिस्थितियों में जेल सुधार गृह की अवधारणा से मुक्त हैं बल्कि जेलों की जो स्थितियां हैं उनमें गैर-आपराधिक मानसिकता का इंसान मानसिक रूप से अपराधी बनकर ही निकलेगा इसे विस्तार से इस सीरीज में दिखाया है.
कहानी और निर्देशन की सराहना इस मौंजू पर भी होगी कि जिस नायक को आप एक दर्शक के तौर पर आदतन या इरादतन अपराधी नहीं मानते हैं लेकिन जेल के अंदर उसका धीरे-धीरे अपराधी में बदलते जाना आपको चौंकाता नहीं है बल्कि यह उन परिस्थितियों में आपको सबसे मुनासिब लगने लगता है. यहां आकर कहानी जैसे आपका अनुकूलन करने लगती है. ‘लायक तालुकदार (देवयेन्दु भट्टाचार्य)’ जैसे अपराधी से निपटने का मामला हो या ‘मुस्तफा’ (जैकी श्राफ़) जैसे कैदी की दादागिरी हो, आपको सब कुछ सामान्य और सहज लगने लगता है. ‘अंतर्विरोधों में सामंजस्य’ या मनोवैज्ञानिक अनुकूलन के घनत्व को समझना हो तो हमें दो दृश्य याद रह जाते हैं.
एक जब पुराना कैदी मुस्तफा जो उस जेल का लगभग बादशाह है, आपके नायक यानी आदित्य शर्मा (विक्रांत मैसी) की जेल में सुरक्षा के लिए, वास्तव में लायक से उसके यौन शोषण से सुरक्षा करने के एवज़ में उससे पांच लाख रुपये मांगता है. तब आपको मुस्तफा से ठीक वही आपत्ति नहीं होती जो लायक से हो रही होती है. उसके बाद जब आपका नायक ही मुस्तफा की गद्दी छूट जाने से परेशान है और उसे वापिस वही रुतबा दिलाने के लिए तत्पर है तब आपको नायक की तमाम कोशिशें अच्छी लगने लगती हैं. वजह शायद एक और केवल एक है कि नायक इसका यौन शोषण करना चाहता है जबकि मुस्तफा केवल पैसों के लिए ऐसा करता है. यह इस सीरीज का ऐसा पहलू है जो समाज में गहरी पैठ यौन हिंसा के प्रति कई कसौटियों में हमें आंकता है और हमारे अनुकूलन को ठीक ढंग से प्रस्तुत करता है. जिसका सार यह है कि किसी भी प्रकार की यौन हिंसा को लेकर समाज में सामान्य स्वीकृति नहीं है.
यह सीरीज आधुनिक स्त्रियां, लड़कियों को लेकर भी जो सामान्य बोध बनाया गया है उसके बरक्स एक बेहद तार्किक हस्तक्षेप करती है. सनाया (मधुरिमा राव) का ड्रग एडिक्ट होना, सेक्सुअली एक्टिव होना या कैजुअल रिलेशनशिप बनाना उसके साथ हुई घटना को सही साबित करने की कोशिश नहीं करती बल्कि कहानी के अंत तक पहुंचते-पहुंचते यह कोई मुद्दा ही नहीं रह जाता. रहस्य रोमांच के बाद सनाया के तमाम पक्ष उसकी ताकत के रूप में ही दिखाई देने लगते हैं.
ड्रग लेना, या कैजुअल होना किसी का नितांत निजी मसला हो सकता है. लेकिन अपने सामने हो रहे अन्याय को लेकर मुखर होना, परेशान होना और उससे लड़ने का माद्दा पैदा करना जिसकी कीमत उसे अपनी जान देकर चुकानी पड़े, सनाया को इकीसवीं सदी की एक ताकतवर, तार्किक और चेतना सम्पन्न लड़की के रूप में चित्रित करता है. सनाया हमें ऐसे ही याद रह जाती है. यह कंट्रास्ट बेहद सलीके से पैदा किया गया है जो हमारे दिमाग में घर कर गए स्टीरियोटाइप को रचनात्मक ढंग से तोड़ता है. कमाल यह है कि अपने स्टीरियोटाइप को तोड़ना हमें बुरा नहीं लगता बल्कि यह इतना सहज और स्वाभाविक ढंग से हमारा नज़रिया बदल देता है कि अपने अंदर कुछ टूटने से ज़्यादा कुछ रचे जाने का एहसास पुख्ता होता है.
एम मध्यमवर्गीय मुंबईकर परिवार का बेहद प्रामाणिक चित्रण तो हुआ ही है पारिवारिक रिश्तों का महत्व भी ठोस ढंग से स्थापित हुआ है. विशेष रूप से आदित्य शर्मा की बहन अवनि के किरदार के साथ रुचा ईनामदार का अभिनय बहुत संजीदा और गंभीर रहा.
अभिनय के मामले में कोई किसी से उन्नीस -बीस नहीं है. यह तिग्मांशु धूलिया का निर्देश ही है कि सभी से उनका उत्कृष्ट हासिल कर सके. पंकज त्रिपाठी थोड़ा टाइप्ड हुए लगते हैं लेकिन दर्शक पंकज से उस बात की अपेक्षा नहीं करेंगे तो वो पर्दे पर पंकज को क्यों ही देखेंगे. केस को लीगली सोचने के बजाय हार्टली सोचने और देखने का सलीका रखने और उसके जोखिम लेने को तैयार जूनियर एडवोकेट निखत हुसैन (अनुप्रिया गोएनका) ने याद रखे जाने लायक अभिनय दिया है. अच्छा और संजीदा अभिनय किया है. रघु सालियान के तौर पर पंकज सारस्वत, एक बेहद संभावनाशील अभिनेता हैं जिन्हें आगे बहुत अच्छी भूमिकाएं करनी हैं.
विक्रांत मैसी उम्र से ज़्यादा परिपक्व अभिनेता हैं और अपने विक्रांत मैसी होने को चरित्र पर हावी नहीं देते. उनकी यही काबिलियत और मिजाज आज के दौर में उन्हें बाकियों से अलहदा करता है. पूरी सीरीज में आदित्य शर्मा ही लगे.
सीरीज को ज़रूर देखा जाना चाहिए. वक़्त की बर्बादी नहीं होगी क्योंकि आपके अंदर बहुत कुछ टूटेगा तो बहुत कुछ रचा भी जाएगा.
विचाराधीन कैदियों या अंडर ट्रायल कैदियों के लिए जेल में सुरक्षा एक बड़ा सवाल है भले ही अदालत उन्हें न्यायिक हिरासत के नाम पर जेलों में भेजती है लेकिन एक बार जेल में पहुंच जाने के बाद वहां जेल से बाहर की किसी संस्था का अधिकार क्षेत्र जैसे खत्म हो जाता है. जेलों की दुर्दशा दिखलाने में इस सीरीज ने कुछ खास नहीं किया बल्कि इस तथ्य को स्थापित ही किया कि भारतीय जेलें मानव अधिकारों का न्यूनतम पालन करने में भी असमर्थ हैं. इसके लिए जेलों पर बढ़ते दबाव को एक समस्या माना भी जाये तब भी न्याय-व्यवस्था की मंथर गति इस स्थिति को और भयावह बना रही है. जहां बीस लोग ठीक से पांव फैलाकर सो नहीं सकते वहां इससे चार गुना कैदियों को रहना है. साफ सफाई, संडास, खाने पीने की अमानवीय परिस्थितियों में जेल सुधार गृह की अवधारणा से मुक्त हैं बल्कि जेलों की जो स्थितियां हैं उनमें गैर-आपराधिक मानसिकता का इंसान मानसिक रूप से अपराधी बनकर ही निकलेगा इसे विस्तार से इस सीरीज में दिखाया है.
कहानी और निर्देशन की सराहना इस मौंजू पर भी होगी कि जिस नायक को आप एक दर्शक के तौर पर आदतन या इरादतन अपराधी नहीं मानते हैं लेकिन जेल के अंदर उसका धीरे-धीरे अपराधी में बदलते जाना आपको चौंकाता नहीं है बल्कि यह उन परिस्थितियों में आपको सबसे मुनासिब लगने लगता है. यहां आकर कहानी जैसे आपका अनुकूलन करने लगती है. ‘लायक तालुकदार (देवयेन्दु भट्टाचार्य)’ जैसे अपराधी से निपटने का मामला हो या ‘मुस्तफा’ (जैकी श्राफ़) जैसे कैदी की दादागिरी हो, आपको सब कुछ सामान्य और सहज लगने लगता है. ‘अंतर्विरोधों में सामंजस्य’ या मनोवैज्ञानिक अनुकूलन के घनत्व को समझना हो तो हमें दो दृश्य याद रह जाते हैं.
एक जब पुराना कैदी मुस्तफा जो उस जेल का लगभग बादशाह है, आपके नायक यानी आदित्य शर्मा (विक्रांत मैसी) की जेल में सुरक्षा के लिए, वास्तव में लायक से उसके यौन शोषण से सुरक्षा करने के एवज़ में उससे पांच लाख रुपये मांगता है. तब आपको मुस्तफा से ठीक वही आपत्ति नहीं होती जो लायक से हो रही होती है. उसके बाद जब आपका नायक ही मुस्तफा की गद्दी छूट जाने से परेशान है और उसे वापिस वही रुतबा दिलाने के लिए तत्पर है तब आपको नायक की तमाम कोशिशें अच्छी लगने लगती हैं. वजह शायद एक और केवल एक है कि नायक इसका यौन शोषण करना चाहता है जबकि मुस्तफा केवल पैसों के लिए ऐसा करता है. यह इस सीरीज का ऐसा पहलू है जो समाज में गहरी पैठ यौन हिंसा के प्रति कई कसौटियों में हमें आंकता है और हमारे अनुकूलन को ठीक ढंग से प्रस्तुत करता है. जिसका सार यह है कि किसी भी प्रकार की यौन हिंसा को लेकर समाज में सामान्य स्वीकृति नहीं है.
यह सीरीज आधुनिक स्त्रियां, लड़कियों को लेकर भी जो सामान्य बोध बनाया गया है उसके बरक्स एक बेहद तार्किक हस्तक्षेप करती है. सनाया (मधुरिमा राव) का ड्रग एडिक्ट होना, सेक्सुअली एक्टिव होना या कैजुअल रिलेशनशिप बनाना उसके साथ हुई घटना को सही साबित करने की कोशिश नहीं करती बल्कि कहानी के अंत तक पहुंचते-पहुंचते यह कोई मुद्दा ही नहीं रह जाता. रहस्य रोमांच के बाद सनाया के तमाम पक्ष उसकी ताकत के रूप में ही दिखाई देने लगते हैं.
ड्रग लेना, या कैजुअल होना किसी का नितांत निजी मसला हो सकता है. लेकिन अपने सामने हो रहे अन्याय को लेकर मुखर होना, परेशान होना और उससे लड़ने का माद्दा पैदा करना जिसकी कीमत उसे अपनी जान देकर चुकानी पड़े, सनाया को इकीसवीं सदी की एक ताकतवर, तार्किक और चेतना सम्पन्न लड़की के रूप में चित्रित करता है. सनाया हमें ऐसे ही याद रह जाती है. यह कंट्रास्ट बेहद सलीके से पैदा किया गया है जो हमारे दिमाग में घर कर गए स्टीरियोटाइप को रचनात्मक ढंग से तोड़ता है. कमाल यह है कि अपने स्टीरियोटाइप को तोड़ना हमें बुरा नहीं लगता बल्कि यह इतना सहज और स्वाभाविक ढंग से हमारा नज़रिया बदल देता है कि अपने अंदर कुछ टूटने से ज़्यादा कुछ रचे जाने का एहसास पुख्ता होता है.
एम मध्यमवर्गीय मुंबईकर परिवार का बेहद प्रामाणिक चित्रण तो हुआ ही है पारिवारिक रिश्तों का महत्व भी ठोस ढंग से स्थापित हुआ है. विशेष रूप से आदित्य शर्मा की बहन अवनि के किरदार के साथ रुचा ईनामदार का अभिनय बहुत संजीदा और गंभीर रहा.
अभिनय के मामले में कोई किसी से उन्नीस -बीस नहीं है. यह तिग्मांशु धूलिया का निर्देश ही है कि सभी से उनका उत्कृष्ट हासिल कर सके. पंकज त्रिपाठी थोड़ा टाइप्ड हुए लगते हैं लेकिन दर्शक पंकज से उस बात की अपेक्षा नहीं करेंगे तो वो पर्दे पर पंकज को क्यों ही देखेंगे. केस को लीगली सोचने के बजाय हार्टली सोचने और देखने का सलीका रखने और उसके जोखिम लेने को तैयार जूनियर एडवोकेट निखत हुसैन (अनुप्रिया गोएनका) ने याद रखे जाने लायक अभिनय दिया है. अच्छा और संजीदा अभिनय किया है. रघु सालियान के तौर पर पंकज सारस्वत, एक बेहद संभावनाशील अभिनेता हैं जिन्हें आगे बहुत अच्छी भूमिकाएं करनी हैं.
विक्रांत मैसी उम्र से ज़्यादा परिपक्व अभिनेता हैं और अपने विक्रांत मैसी होने को चरित्र पर हावी नहीं देते. उनकी यही काबिलियत और मिजाज आज के दौर में उन्हें बाकियों से अलहदा करता है. पूरी सीरीज में आदित्य शर्मा ही लगे.
सीरीज को ज़रूर देखा जाना चाहिए. वक़्त की बर्बादी नहीं होगी क्योंकि आपके अंदर बहुत कुछ टूटेगा तो बहुत कुछ रचा भी जाएगा.