नोटिस में पूछा है कि किस आधार पर किसानों को खालिस्तानी, आतंकवादी, टुकड़े-टुकड़े गैंग बताया, और बिना एनएचएआई मंजूरी के सड़क क्यों तोड़ी गई.
इन नोटिस की जरूरत आपको क्यों महसूस हुई. इस सवाल के जवाब में रविंद्र ढ़ल कहते हैं, “इसके दो कारण हैं. पहली बात तो ये कि कोई भी आंदोलन किसी भी प्रकार का हो, सरकार (चाहे कोई भी हो) उसे बदनाम करने की पूरी कोशिश करती है. अब अगर पब्लिक प्रोपर्टी का किसी भी प्रकार का डैमेज होता है जैसे हरियाणा के फतेहाबाद में किसान पंजाब से घुसे तो उस बॉर्डर पर बैरिकेड लगे हुए थे. उन्हें किसानों ने तोड़ा तो उनके खिलाफ तो सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का केस दर्ज हो गया. लेकिन जब जींद (हरियाणा) में पुलिस ने 60 फुट चौड़ी सड़क को ही खोद दिया तो क्या ये सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान नहीं है”
“नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) का जो एक्ट है वह भी कहता है कि एनएचएआई की परमीशन के बिना आप किसी भी सड़क या नेशनल हाईवे को डैमेज नहीं कर सकते. इस बारे में जब आरटीआई के जरिए पूछा गया तो पता चला कि एनएचएआई से इजाजत नहीं ली गई थी. और न ही ऐसी किसी परमिशन की उन्हें कोई जानकारी है, इसलिए बिना किसी एनएचएआई की इजाजत के सड़क तोड़ना पूरी तरह से गैरकानूनी था चाहें अब उसके लिए कुछ भी जस्टिफिकेशन दे दें,” रविंद्र ढ़ल ने कहा.
रविंद्र ढ़ल आगे कहते हैं, “दूसरी बात ये है कि किसी एक व्यक्ति की गलती के कारण पूरी कम्युनिटी को बदनाम नहीं किया जा सकता. यहां तक की मैं कई बार बॉर्डर पर जा चुका हूं तो मैं ‘खालिस्तानी’ हो गया क्या! अब अगर बड़े मीडिया हाउस इस तरह के गलत स्टेटमेंट देंगे या गलत चीजों को पब्लिश करेंगे तो... This is very bad for the Integrity of the Country.”
रविंद्र ढ़ल कहते हैं, “इस देश में रूल ऑफ लॉ है. जब कानून है तो वह सबके लिए बराबर होना चाहिए, चाहे वह मुख्यमंत्री हो, डीजीपी हो या फिर आम आदमी. भविष्य में ये लोग इस प्रकार की चीजों का दुरुपयोग न करें. इनकी जवाबदेही तय हो आगे इस प्रकार के कदम न उठाए जाएं अगर किसी ऑफिसर ने इनलीगल काम किया है तो उसकी भी जवाबदेही तय हो. इस वजह से हमने ये नोटिस देने का फैसला किया है.”
गौरतलब है कि केन्द्र सरकार सितंबर माह में तीन नए कृषि विधेयक लाई थी, जिन पर राष्ट्रपति की मुहर लगने के बाद वे कानून बन चुके हैं. तभी से किसान इन कानूनों को रद्द करने की मांग पर अड़े हुए हैं. किसानों और सरकार के बीच आठ दौर की वार्ता के बाद भी इसका कोई हल निकलता नजर नहीं आ रहा है. सुप्रीम कोर्ट में भी सोमवार को इन नए कानूनों को रद्द करने समेत किसान आंदोलन से जुड़े दूसरे मुद्दों पर करीब दो घंटे सुनवाई हुई. जिसमें सरकार के रवैये को लेकर कोर्ट ने कड़ी नाराजगी जताई है.
इन नोटिस की जरूरत आपको क्यों महसूस हुई. इस सवाल के जवाब में रविंद्र ढ़ल कहते हैं, “इसके दो कारण हैं. पहली बात तो ये कि कोई भी आंदोलन किसी भी प्रकार का हो, सरकार (चाहे कोई भी हो) उसे बदनाम करने की पूरी कोशिश करती है. अब अगर पब्लिक प्रोपर्टी का किसी भी प्रकार का डैमेज होता है जैसे हरियाणा के फतेहाबाद में किसान पंजाब से घुसे तो उस बॉर्डर पर बैरिकेड लगे हुए थे. उन्हें किसानों ने तोड़ा तो उनके खिलाफ तो सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का केस दर्ज हो गया. लेकिन जब जींद (हरियाणा) में पुलिस ने 60 फुट चौड़ी सड़क को ही खोद दिया तो क्या ये सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान नहीं है”
“नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) का जो एक्ट है वह भी कहता है कि एनएचएआई की परमीशन के बिना आप किसी भी सड़क या नेशनल हाईवे को डैमेज नहीं कर सकते. इस बारे में जब आरटीआई के जरिए पूछा गया तो पता चला कि एनएचएआई से इजाजत नहीं ली गई थी. और न ही ऐसी किसी परमिशन की उन्हें कोई जानकारी है, इसलिए बिना किसी एनएचएआई की इजाजत के सड़क तोड़ना पूरी तरह से गैरकानूनी था चाहें अब उसके लिए कुछ भी जस्टिफिकेशन दे दें,” रविंद्र ढ़ल ने कहा.
रविंद्र ढ़ल आगे कहते हैं, “दूसरी बात ये है कि किसी एक व्यक्ति की गलती के कारण पूरी कम्युनिटी को बदनाम नहीं किया जा सकता. यहां तक की मैं कई बार बॉर्डर पर जा चुका हूं तो मैं ‘खालिस्तानी’ हो गया क्या! अब अगर बड़े मीडिया हाउस इस तरह के गलत स्टेटमेंट देंगे या गलत चीजों को पब्लिश करेंगे तो... This is very bad for the Integrity of the Country.”
रविंद्र ढ़ल कहते हैं, “इस देश में रूल ऑफ लॉ है. जब कानून है तो वह सबके लिए बराबर होना चाहिए, चाहे वह मुख्यमंत्री हो, डीजीपी हो या फिर आम आदमी. भविष्य में ये लोग इस प्रकार की चीजों का दुरुपयोग न करें. इनकी जवाबदेही तय हो आगे इस प्रकार के कदम न उठाए जाएं अगर किसी ऑफिसर ने इनलीगल काम किया है तो उसकी भी जवाबदेही तय हो. इस वजह से हमने ये नोटिस देने का फैसला किया है.”
गौरतलब है कि केन्द्र सरकार सितंबर माह में तीन नए कृषि विधेयक लाई थी, जिन पर राष्ट्रपति की मुहर लगने के बाद वे कानून बन चुके हैं. तभी से किसान इन कानूनों को रद्द करने की मांग पर अड़े हुए हैं. किसानों और सरकार के बीच आठ दौर की वार्ता के बाद भी इसका कोई हल निकलता नजर नहीं आ रहा है. सुप्रीम कोर्ट में भी सोमवार को इन नए कानूनों को रद्द करने समेत किसान आंदोलन से जुड़े दूसरे मुद्दों पर करीब दो घंटे सुनवाई हुई. जिसमें सरकार के रवैये को लेकर कोर्ट ने कड़ी नाराजगी जताई है.