लोकतंत्र से नेपाल का आमना-सामना

नेपाल आज लोकतंत्र के उस चौराहे पर खड़ा है जहां से यदि कोई रास्ता निकलता है तो नये चुनाव से ही निकलता है.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
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स्वतंत्र भारत ने ऐसा तेवर रखा कि नेपाल को ‘बड़े भाई’ भारत के कुछ कहने के बजाए उसका इशारा समझ कर चलना चाहिए. यह रिश्ता न चलने लायक था, न चला. फिर आई मोदी सरकार. उसने नेपाल को ‘संसार का एकमात्र हिंदू राष्ट्र’ का जामा पहना कर, अपने आंचल में समेटना चाहा. यह किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र को न स्वीकार्य होना चाहिए था, न हुआ. फिर तो नेपाल के साथ भारत के रिश्ते इतने बुरे हुए जैसे पहले नहीं हुए थे. इसलिए भी भारत-नेपाल के फटे में अपना पांव डालने का चीन को मौका मिला. ‘प्रचंड’ और ओली ने उसे आसान बनाया. लेकिन दोनों यह भूलते रहे कि भारत-नेपाल का रिश्ता राजनीतिक सत्ता तक सीमित नहीं है. वहां के राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक जीवन में भारतवंशियों यानी मधेसियों की बड़ी मजबूत उपस्थिति है. ये वे भारतीय हैं जो कभी नेपाल जा बसे और दोनों देशों के बीच मजबूत पुल बन कर, भारत-नेपाल के सीमावर्ती जिलों में रहते रहे हैं. समय के साथ-साथ अपनी राजनीतिक शक्ति का उनका अहसास मजबूत होता गया. इनका अपना राजनीतिक दल बना जो कई नामों से गुजरता हुआ आज जनता समाजवादी पार्टी कहलाता है. यह पार्टी संसद में मधेसियों के लिए अधिक प्रतिनिधित्व की मांग करती है और नेपाल के संविधान में कुछ खास परिवर्तन की मांग भी करती है. यह संगठित भी है, मुखर भी है और दोनों साम्यवादी पार्टियों के बीच की खाई का अच्छा इस्तेमाल भी करती है.

इन तीन खिलाड़ियों को नेपाल में लोकतंत्र का वह खेल खेलना है जिसे खेलना अभी इन्होंने सीखा नहीं है. जब कभी लोकतंत्र की गाड़ी इस तरह फंसे तो चुनाव- स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव- सबसे वैधानिक व स्वाभाविक विकल्प होता है. ओली ने भले अपना राजनीतिक हित देख कर संसद को भंग करने का फैसला किया हो, और उससे कम्युनिस्ट पार्टियों में टूट हो रही हो लेकिन यह चुनाव तीनों ही दलों के लिए संभावनाओं के नये द्वार खोलता है. ओली को अलोकतांत्रिक बताने से कहीं बेहतर यह है कि उन्हें चुनाव में बदतर साबित किया जाए. आखिर तो महान नेपाल की महान जनता ही फैसला करेगी कि इन तीनों में से वह किसे नेपाल को आगे ले जाने के अधिक योग्य मानती है. यही लोकतंत्र है.

स्वतंत्र भारत ने ऐसा तेवर रखा कि नेपाल को ‘बड़े भाई’ भारत के कुछ कहने के बजाए उसका इशारा समझ कर चलना चाहिए. यह रिश्ता न चलने लायक था, न चला. फिर आई मोदी सरकार. उसने नेपाल को ‘संसार का एकमात्र हिंदू राष्ट्र’ का जामा पहना कर, अपने आंचल में समेटना चाहा. यह किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र को न स्वीकार्य होना चाहिए था, न हुआ. फिर तो नेपाल के साथ भारत के रिश्ते इतने बुरे हुए जैसे पहले नहीं हुए थे. इसलिए भी भारत-नेपाल के फटे में अपना पांव डालने का चीन को मौका मिला. ‘प्रचंड’ और ओली ने उसे आसान बनाया. लेकिन दोनों यह भूलते रहे कि भारत-नेपाल का रिश्ता राजनीतिक सत्ता तक सीमित नहीं है. वहां के राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक जीवन में भारतवंशियों यानी मधेसियों की बड़ी मजबूत उपस्थिति है. ये वे भारतीय हैं जो कभी नेपाल जा बसे और दोनों देशों के बीच मजबूत पुल बन कर, भारत-नेपाल के सीमावर्ती जिलों में रहते रहे हैं. समय के साथ-साथ अपनी राजनीतिक शक्ति का उनका अहसास मजबूत होता गया. इनका अपना राजनीतिक दल बना जो कई नामों से गुजरता हुआ आज जनता समाजवादी पार्टी कहलाता है. यह पार्टी संसद में मधेसियों के लिए अधिक प्रतिनिधित्व की मांग करती है और नेपाल के संविधान में कुछ खास परिवर्तन की मांग भी करती है. यह संगठित भी है, मुखर भी है और दोनों साम्यवादी पार्टियों के बीच की खाई का अच्छा इस्तेमाल भी करती है.

इन तीन खिलाड़ियों को नेपाल में लोकतंत्र का वह खेल खेलना है जिसे खेलना अभी इन्होंने सीखा नहीं है. जब कभी लोकतंत्र की गाड़ी इस तरह फंसे तो चुनाव- स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव- सबसे वैधानिक व स्वाभाविक विकल्प होता है. ओली ने भले अपना राजनीतिक हित देख कर संसद को भंग करने का फैसला किया हो, और उससे कम्युनिस्ट पार्टियों में टूट हो रही हो लेकिन यह चुनाव तीनों ही दलों के लिए संभावनाओं के नये द्वार खोलता है. ओली को अलोकतांत्रिक बताने से कहीं बेहतर यह है कि उन्हें चुनाव में बदतर साबित किया जाए. आखिर तो महान नेपाल की महान जनता ही फैसला करेगी कि इन तीनों में से वह किसे नेपाल को आगे ले जाने के अधिक योग्य मानती है. यही लोकतंत्र है.

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