गोदी मीडिया वर्सेस लेफ्ट मीडिया
पत्रकारिता का काम हैं सरकार के खिलाफ खड़ा होना. सरकार अगर कोई अच्छा काम कर रही है तो यह बताना पत्रकारिता का काम नहीं है क्योंकि वह इसी काम के लिए है. जनता ने बेहतर काम करने के लिए ही सरकार को चुना है, और सरकार बेहतर काम करते हुए जनता पर कोई एहसान नहीं कर रही है. अगर सरकार कुछ गड़बड़ कर रही है तो उसे बताने का काम मीडिया का है. इसीलिए मीडिया को वॉचडाग भी कहा गया है. दुर्भाग्य से मीडिया के एक हिस्से ने उसे नज़रअंदाज़ कर दिया इसलिए ‘गोदी मीडिया’ जैसी शब्दावली का उपयोग किया गया और कहीं ना कहीं वह लोग भी खुद इसे सही साबित कर रहे हैं.
इस मीडिया के समानांतर एक मीडिया है जो अपने पत्रकारिता के धर्म को निभा रहा है, अपना काम ईमानदारी से कर रहा है. इसे अलग-अलग नामों से पुकारा जाता हैं जिसमें प्रमुख नाम है लेफ्ट मीडिया. लेकिन सवाल उठता हैं कि अगर देश में लेफ्ट इतना मजबूत होता तो शायद वह इतना सिकुड़ता नहीं जितना आज वह है. आज किसान आंदोलन को माओवादी, लेफ्ट आंदोलन कहा जा रहा है. सवाल है कि अगर यह लोग इतने मजबूत हैं कि वह इतना बड़ा आंदोलन कर ले रहे हैं तो आखिर इन लोगों की सियासत खत्म क्यों हो रही है? इनका राजनीतिक दायरा इतना सिकुड़ क्यों गया है?
टीवी मीडिया का रेवेन्यू मॉडल
टीवी मीडिया का जो वर्तमान रेवेन्यू मॉडल है उसके लिए एक बड़ी पूंजी चाहिए. उस पूंजी के लिए टीवी मीडिया चाहे सरकार के साथ खड़ा हो या व्यापारिक घरानों के साथ बात एक ही है. भारत जैसे देश में मीडिया का राजस्व मॉडल क्या हो यह बहस का मुद्दा है. इस पर बातचीत की जानी चाहिए. लेकिन ऑनलाइन मीडिया के समय में अगर टीवी मीडिया अपने रेवेन्यू मॉडल का उपाय नहीं ढूंढ़ पाई तो वह आप्रसंगिक होने की कगार पर पहुंच जाएगा.
आज के समय में स्वतंत्र मीडिया एक बड़ा मुद्दा है. इस स्वतंत्रता के लिए आप को अपने दर्शकों और पाठकों पर निर्भर होना पड़ेगा. लेकिन टीवी पत्रकारिता में यह मुमकिन नहीं है क्योंकि वहां उसे चलाने के लिए एक बड़ी पूंजी की आवश्यकता होती है जो सिर्फ बड़े व्यापारिक घरानों से या सरकारों से मिल सकती है. लेकिन लगता हैं कि जिस तरह से ऑनलाइन मीडिया अपने पैर पसार रहा है उससे आने वालों दिनो में टीवी मीडिया इस न्यू मीडिया का सहायक बन कर रह जाएगा.
अंत में
साल दर साल सतही पत्रकारिता बढ़ती जा रही है. यह पिछले 10-20 सालों से चली आ रही पत्रकारिता है. यह इस साल की उपजी नई समस्या नहीं है. इसलिए आप की पिछले साल जो पत्रकारिता से शिकायत थी वह इस साल भी बनी रहेगी. सीएए-एनआरसी, शाहीनबाग, दिल्ली दंगा, किसान आंदोलन इन सभी में मीडिया की भूमिका जन विरोधी और जनतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ थी. उसकी रिपोर्टिंग एक व्यवस्था के पक्ष में खड़ी रिपोर्टिंग थी, वह यथास्थिति के पक्ष में खड़ी रिपोर्टिंग थी. मानों किसी की शह पर ऐसी रिपोर्टिंग हो रही हो.
इस तरह की रिपोर्टिंग देश के भयानक सांप्रदायीकरण का मूल कारण है. अगर सौ में से 90 लोग इस तरह की रिपोर्टिंग ना देखना चाहें तो चैनल उस तरह की रिपोर्टिंग नहीं दिखाएगा, क्योंकि अंत में चैनलों को व्यापार करना है. लेकिन अपने आसपास देखने पर हम पाते हैं कि किस तरह से टीवी पत्रकारिता में नकारात्मक मूल्यों को तवज्जो दी जा रही है, जनतांत्रिक आंदोलनों को शक की नज़र से देखा जा रहा है.
राष्ट्रवाद के नाम पर, धर्म के नाम पर दुनिया में सबसे ज्यादा खून बहाया गया है और दुर्भाग्य से पिछले कुछ सालों में भारत में राष्ट्रवाद और धर्म का उन्माद बहुत तेजी से बढ़ाया गया है, जिसके कारण बहुत से लोगों की सोचने की दिशा शून्य हो गई है. देश में समाजिक सांप्रदायीकरण हो चुका है, इसलिए हम टीवी पर जो न्यूज़ रिपोर्टिंग देखते हैं वह सब इसका ही परिणाम है.
(अश्विनी कुमार सिंह से बातचीत के आधार पर)
गोदी मीडिया वर्सेस लेफ्ट मीडिया
पत्रकारिता का काम हैं सरकार के खिलाफ खड़ा होना. सरकार अगर कोई अच्छा काम कर रही है तो यह बताना पत्रकारिता का काम नहीं है क्योंकि वह इसी काम के लिए है. जनता ने बेहतर काम करने के लिए ही सरकार को चुना है, और सरकार बेहतर काम करते हुए जनता पर कोई एहसान नहीं कर रही है. अगर सरकार कुछ गड़बड़ कर रही है तो उसे बताने का काम मीडिया का है. इसीलिए मीडिया को वॉचडाग भी कहा गया है. दुर्भाग्य से मीडिया के एक हिस्से ने उसे नज़रअंदाज़ कर दिया इसलिए ‘गोदी मीडिया’ जैसी शब्दावली का उपयोग किया गया और कहीं ना कहीं वह लोग भी खुद इसे सही साबित कर रहे हैं.
इस मीडिया के समानांतर एक मीडिया है जो अपने पत्रकारिता के धर्म को निभा रहा है, अपना काम ईमानदारी से कर रहा है. इसे अलग-अलग नामों से पुकारा जाता हैं जिसमें प्रमुख नाम है लेफ्ट मीडिया. लेकिन सवाल उठता हैं कि अगर देश में लेफ्ट इतना मजबूत होता तो शायद वह इतना सिकुड़ता नहीं जितना आज वह है. आज किसान आंदोलन को माओवादी, लेफ्ट आंदोलन कहा जा रहा है. सवाल है कि अगर यह लोग इतने मजबूत हैं कि वह इतना बड़ा आंदोलन कर ले रहे हैं तो आखिर इन लोगों की सियासत खत्म क्यों हो रही है? इनका राजनीतिक दायरा इतना सिकुड़ क्यों गया है?
टीवी मीडिया का रेवेन्यू मॉडल
टीवी मीडिया का जो वर्तमान रेवेन्यू मॉडल है उसके लिए एक बड़ी पूंजी चाहिए. उस पूंजी के लिए टीवी मीडिया चाहे सरकार के साथ खड़ा हो या व्यापारिक घरानों के साथ बात एक ही है. भारत जैसे देश में मीडिया का राजस्व मॉडल क्या हो यह बहस का मुद्दा है. इस पर बातचीत की जानी चाहिए. लेकिन ऑनलाइन मीडिया के समय में अगर टीवी मीडिया अपने रेवेन्यू मॉडल का उपाय नहीं ढूंढ़ पाई तो वह आप्रसंगिक होने की कगार पर पहुंच जाएगा.
आज के समय में स्वतंत्र मीडिया एक बड़ा मुद्दा है. इस स्वतंत्रता के लिए आप को अपने दर्शकों और पाठकों पर निर्भर होना पड़ेगा. लेकिन टीवी पत्रकारिता में यह मुमकिन नहीं है क्योंकि वहां उसे चलाने के लिए एक बड़ी पूंजी की आवश्यकता होती है जो सिर्फ बड़े व्यापारिक घरानों से या सरकारों से मिल सकती है. लेकिन लगता हैं कि जिस तरह से ऑनलाइन मीडिया अपने पैर पसार रहा है उससे आने वालों दिनो में टीवी मीडिया इस न्यू मीडिया का सहायक बन कर रह जाएगा.
अंत में
साल दर साल सतही पत्रकारिता बढ़ती जा रही है. यह पिछले 10-20 सालों से चली आ रही पत्रकारिता है. यह इस साल की उपजी नई समस्या नहीं है. इसलिए आप की पिछले साल जो पत्रकारिता से शिकायत थी वह इस साल भी बनी रहेगी. सीएए-एनआरसी, शाहीनबाग, दिल्ली दंगा, किसान आंदोलन इन सभी में मीडिया की भूमिका जन विरोधी और जनतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ थी. उसकी रिपोर्टिंग एक व्यवस्था के पक्ष में खड़ी रिपोर्टिंग थी, वह यथास्थिति के पक्ष में खड़ी रिपोर्टिंग थी. मानों किसी की शह पर ऐसी रिपोर्टिंग हो रही हो.
इस तरह की रिपोर्टिंग देश के भयानक सांप्रदायीकरण का मूल कारण है. अगर सौ में से 90 लोग इस तरह की रिपोर्टिंग ना देखना चाहें तो चैनल उस तरह की रिपोर्टिंग नहीं दिखाएगा, क्योंकि अंत में चैनलों को व्यापार करना है. लेकिन अपने आसपास देखने पर हम पाते हैं कि किस तरह से टीवी पत्रकारिता में नकारात्मक मूल्यों को तवज्जो दी जा रही है, जनतांत्रिक आंदोलनों को शक की नज़र से देखा जा रहा है.
राष्ट्रवाद के नाम पर, धर्म के नाम पर दुनिया में सबसे ज्यादा खून बहाया गया है और दुर्भाग्य से पिछले कुछ सालों में भारत में राष्ट्रवाद और धर्म का उन्माद बहुत तेजी से बढ़ाया गया है, जिसके कारण बहुत से लोगों की सोचने की दिशा शून्य हो गई है. देश में समाजिक सांप्रदायीकरण हो चुका है, इसलिए हम टीवी पर जो न्यूज़ रिपोर्टिंग देखते हैं वह सब इसका ही परिणाम है.
(अश्विनी कुमार सिंह से बातचीत के आधार पर)