पीएम ओली द्वारा सत्ता बचाने की ललक में उठाया गया कदम आत्मघाती साबित हो सकता है

इस पूरे नाटक में कितने नायक और कितने खलनायक हैं यह तो आने वाला समय ही तय करेगा लेकिन इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि पीएम केपी शर्मा ओली ने अपने इस कदम से देश को अभूतपूर्व संकट में डाल दिया है.

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अनेक कारणों से प्रचंड की छवि काफी धूमिल हो चुकी है लेकिन उनके साथ माधव नेपाल का घनिष्ठ रूप से जुड़ा होना इस बात की गारंटी करता है कि प्रचंड किसी भटकाव के शिकार नहीं होंगे. माधव नेपाल प्रधानमंत्री रह चुके हैं और उनका जनतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों में दृढ़ विश्वास है. इतिहास ने इन दोनों नेताओं के ऊपर एक ऐसी जिम्मेदारी सौंपी है कि वे गर्त में जा रही राजनीति को उबारें और जनता के अंदर एक बार फिर भरोसा पैदा हो. अगर जनता राजनीति से उदासीन हो गयी तो यह फासीवादी ताकतों के लिए बहुत अच्छी स्थिति होगी. नेपाल का सौभाग्य है कि बार-बार धोखा खाने के बावजूद जनता का अभी जनपक्षीय राजनीति में विश्वास बना हुआ है. इस विश्वास को और मजबूत करने की जरूरत है.

अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि नेपाल के मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम में भारत की कोई दिलचस्पी नहीं है. लोगों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या इस सबके पीछे नेपाल के संदर्भ में भारत की औपनिवेशिक मानसिकता का भी कुछ हाथ है. ऐसा इसलिए क्योंकि हाल ही में भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ के प्रमुख सामंत गोयल और भारतीय सेनाध्यक्ष मनोज मुकुंद नरवाने ने नेपाल की आधिकारिक यात्रा पूरी की. ये ऐसे लोग हैं जो नेपाल की राजनीति पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभाव डालते हैं. यह तो जगजाहिर है कि भारत के मौजूदा शासक केपी ओली को पसंद नहीं करते क्योंकि आर्थिक नाकाबंदी के दौरान उन्होंने चीन के साथ मधुर संबंध बनाये इसे भारत की निगाह में एक कम्युनिस्ट देश द्वारा दूसरे कम्युनिस्ट देश को प्रोत्साहित करना था जिसका प्रभाव चीन के संदर्भ में भारत की विदेश नीति पर भी पड़ता था. वैसे, अभी तक भारत की कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है- उसने यही कहा है कि यह नेपाल का आंतरिक मामला है.

यह जो संकटपूर्ण स्थिति पैदा हुई है उससे निपटने का तरीका क्या हो सकता है? आज राष्ट्रीय रंगमंच पर जो किरदार दिखायी दे रहे हैं वे सभी कम्युनिस्ट हैं और जनता के बीच समग्र रूप से कम्युनिस्टों की छवि धूमिल हो रही है. बार-बार यह याद दिलाने की जरूरत पड़ती है कि आज के विश्व में जब अनेक देशों में फासीवादी रुझान की सरकारें सत्ता में हैं, नेपाल दक्षिण एशिया का एकमात्र देश है जहां घोषित तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है जो दो-तिहाई बहुमत से सत्ता में आयी है. ऐसे समय जब राजनीतिक नेतृत्व से जनता का मोह भंग हो रहा हो, समाज की अन्य शक्तियों को सामने आने की जरूरत है.

नेपाल इस अर्थ में भी एक अनूठा देश है जहां गंभीर राजनीतिक-सामाजिक संकट के समय छात्रों-युवकों ने आगे बढ़कर कमान अपने हाथ में ले ली और राजनीति को सही दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. आप 1979 को याद करिए जब अप्रैल में पाकिस्तान के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो की फांसी के विरोध में काठमांडो के असंख्य प्रदर्शनकारी छात्रों पर पुलिस की बर्बरता और लाठीचार्ज ने छात्र-संघर्ष को भड़का दिया था. उस समय इस आंदोलन ने देशव्यापी रूप लिया और स्थिति इतनी बिगड़ी कि इसे रोकने के लिए तत्कालीन महाराज बीरेंद्र को जनमत संग्रह की घोषणा करनी पड़ी. नेपाल के इतिहास में पहली बार भावी राजनीतिक व्यवस्था चुनने के लिए जनमत संग्रह कराने की शाही घोषणा हुई थी. छात्र आंदोलन का एक और उल्लेखनीय स्वरूप 1989-90 में भी देखने को मिला जिसकी परिणति निर्दलीय पंचायती व्यवस्था के स्थान पर बहुदलीय व्यवस्था की स्थापना के रूप में हुई.

महाराजा ज्ञानेंद्र के शासनकाल में छात्रों के आंदोलन का एक और असाधारण रूप तब देखने को मिला जब 13 दिसंबर 2003 को पोखरा में सेना द्वारा एक छात्र की हत्या की गयी थी. इस घटना की प्रतिक्रिया में पृथ्वी नारायण कैंपस के छात्रों द्वारा शुरू किए गए आंदोलन ने धीरे-धीरे समूचे देश को अपनी चपेट में ले लिया और इसकी परिणति राजतंत्र विरोधी आंदोलन के रूप में हुई. स्मरणीय है कि उन दिनों देश की प्रमुख संसदीय पार्टियां ‘प्रतिगमन’ विरोधी आंदोलन चला रही थीं और उनकी मांग राजतंत्र को समाप्त करने की नहीं थी लेकिन छात्रों के अंदर वह धूर्त दृष्टि नहीं होती जो राजनीतिक दलों में होती है, हालांकि छात्रों के संगठन आमतौर पर किसी न किसी राजनीतिक दल से परोक्ष रूप से जुड़े होते हैं.

इन छात्र संगठनों ने अपनी मांगें वही नहीं रखीं जो राजनीतिक दल रख रहे थे जिनसे वे जुड़े थे. राजनीतिक दलों की मांग तो संविधान में संशोधन करने और प्रतिगमन को समाप्त करने यानी संसद को बहाल करने तक सीमित थी लेकिन छात्र संगठनों ने आंदोलन की धार को महाराजा ज्ञानेंद्र और युवराज पारस के खिलाफ मोड़ने में कामयाबी पायी. वे राजतंत्र को पूरी तरह समाप्त करने की मांग कर रहे थे. उस समय स्थिति इतनी गंभीर हुई कि अमेरिका की सहायक विदेशमंत्री क्रिस्टिना रोक्का काठमांडो पहुंचीं और उन्होंने नेपाली कांग्रेस, नेकपा एमाले, और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के नेताओं से मिलकर कहा कि वे अपने छात्र संगठनों से कहें कि वे राजतंत्र को समाप्त करने का नारा न लगाएं.

आज फिर वह स्थिति आ गयी है जब देश के छात्रों-युवकों को आगे बढ़कर राजनीति की कमान संभालनी होगी. उनके अंदर ही वह क्षमता है कि वे उन राजनेताओं को रास्ते पर लाएं जो अपने निजी और संकीर्ण स्वार्थों की वजह से भटकाव के शिकार हो गये हैं. अगर ऐसा हो सका तो नेपाल की राजनीति एक बार फिर सही दिशा ले सकेगी और जनता की अपेक्षाओं को पूरा कर सकेगी.

अनेक कारणों से प्रचंड की छवि काफी धूमिल हो चुकी है लेकिन उनके साथ माधव नेपाल का घनिष्ठ रूप से जुड़ा होना इस बात की गारंटी करता है कि प्रचंड किसी भटकाव के शिकार नहीं होंगे. माधव नेपाल प्रधानमंत्री रह चुके हैं और उनका जनतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों में दृढ़ विश्वास है. इतिहास ने इन दोनों नेताओं के ऊपर एक ऐसी जिम्मेदारी सौंपी है कि वे गर्त में जा रही राजनीति को उबारें और जनता के अंदर एक बार फिर भरोसा पैदा हो. अगर जनता राजनीति से उदासीन हो गयी तो यह फासीवादी ताकतों के लिए बहुत अच्छी स्थिति होगी. नेपाल का सौभाग्य है कि बार-बार धोखा खाने के बावजूद जनता का अभी जनपक्षीय राजनीति में विश्वास बना हुआ है. इस विश्वास को और मजबूत करने की जरूरत है.

अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि नेपाल के मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम में भारत की कोई दिलचस्पी नहीं है. लोगों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या इस सबके पीछे नेपाल के संदर्भ में भारत की औपनिवेशिक मानसिकता का भी कुछ हाथ है. ऐसा इसलिए क्योंकि हाल ही में भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ के प्रमुख सामंत गोयल और भारतीय सेनाध्यक्ष मनोज मुकुंद नरवाने ने नेपाल की आधिकारिक यात्रा पूरी की. ये ऐसे लोग हैं जो नेपाल की राजनीति पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभाव डालते हैं. यह तो जगजाहिर है कि भारत के मौजूदा शासक केपी ओली को पसंद नहीं करते क्योंकि आर्थिक नाकाबंदी के दौरान उन्होंने चीन के साथ मधुर संबंध बनाये इसे भारत की निगाह में एक कम्युनिस्ट देश द्वारा दूसरे कम्युनिस्ट देश को प्रोत्साहित करना था जिसका प्रभाव चीन के संदर्भ में भारत की विदेश नीति पर भी पड़ता था. वैसे, अभी तक भारत की कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है- उसने यही कहा है कि यह नेपाल का आंतरिक मामला है.

यह जो संकटपूर्ण स्थिति पैदा हुई है उससे निपटने का तरीका क्या हो सकता है? आज राष्ट्रीय रंगमंच पर जो किरदार दिखायी दे रहे हैं वे सभी कम्युनिस्ट हैं और जनता के बीच समग्र रूप से कम्युनिस्टों की छवि धूमिल हो रही है. बार-बार यह याद दिलाने की जरूरत पड़ती है कि आज के विश्व में जब अनेक देशों में फासीवादी रुझान की सरकारें सत्ता में हैं, नेपाल दक्षिण एशिया का एकमात्र देश है जहां घोषित तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है जो दो-तिहाई बहुमत से सत्ता में आयी है. ऐसे समय जब राजनीतिक नेतृत्व से जनता का मोह भंग हो रहा हो, समाज की अन्य शक्तियों को सामने आने की जरूरत है.

नेपाल इस अर्थ में भी एक अनूठा देश है जहां गंभीर राजनीतिक-सामाजिक संकट के समय छात्रों-युवकों ने आगे बढ़कर कमान अपने हाथ में ले ली और राजनीति को सही दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. आप 1979 को याद करिए जब अप्रैल में पाकिस्तान के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो की फांसी के विरोध में काठमांडो के असंख्य प्रदर्शनकारी छात्रों पर पुलिस की बर्बरता और लाठीचार्ज ने छात्र-संघर्ष को भड़का दिया था. उस समय इस आंदोलन ने देशव्यापी रूप लिया और स्थिति इतनी बिगड़ी कि इसे रोकने के लिए तत्कालीन महाराज बीरेंद्र को जनमत संग्रह की घोषणा करनी पड़ी. नेपाल के इतिहास में पहली बार भावी राजनीतिक व्यवस्था चुनने के लिए जनमत संग्रह कराने की शाही घोषणा हुई थी. छात्र आंदोलन का एक और उल्लेखनीय स्वरूप 1989-90 में भी देखने को मिला जिसकी परिणति निर्दलीय पंचायती व्यवस्था के स्थान पर बहुदलीय व्यवस्था की स्थापना के रूप में हुई.

महाराजा ज्ञानेंद्र के शासनकाल में छात्रों के आंदोलन का एक और असाधारण रूप तब देखने को मिला जब 13 दिसंबर 2003 को पोखरा में सेना द्वारा एक छात्र की हत्या की गयी थी. इस घटना की प्रतिक्रिया में पृथ्वी नारायण कैंपस के छात्रों द्वारा शुरू किए गए आंदोलन ने धीरे-धीरे समूचे देश को अपनी चपेट में ले लिया और इसकी परिणति राजतंत्र विरोधी आंदोलन के रूप में हुई. स्मरणीय है कि उन दिनों देश की प्रमुख संसदीय पार्टियां ‘प्रतिगमन’ विरोधी आंदोलन चला रही थीं और उनकी मांग राजतंत्र को समाप्त करने की नहीं थी लेकिन छात्रों के अंदर वह धूर्त दृष्टि नहीं होती जो राजनीतिक दलों में होती है, हालांकि छात्रों के संगठन आमतौर पर किसी न किसी राजनीतिक दल से परोक्ष रूप से जुड़े होते हैं.

इन छात्र संगठनों ने अपनी मांगें वही नहीं रखीं जो राजनीतिक दल रख रहे थे जिनसे वे जुड़े थे. राजनीतिक दलों की मांग तो संविधान में संशोधन करने और प्रतिगमन को समाप्त करने यानी संसद को बहाल करने तक सीमित थी लेकिन छात्र संगठनों ने आंदोलन की धार को महाराजा ज्ञानेंद्र और युवराज पारस के खिलाफ मोड़ने में कामयाबी पायी. वे राजतंत्र को पूरी तरह समाप्त करने की मांग कर रहे थे. उस समय स्थिति इतनी गंभीर हुई कि अमेरिका की सहायक विदेशमंत्री क्रिस्टिना रोक्का काठमांडो पहुंचीं और उन्होंने नेपाली कांग्रेस, नेकपा एमाले, और राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के नेताओं से मिलकर कहा कि वे अपने छात्र संगठनों से कहें कि वे राजतंत्र को समाप्त करने का नारा न लगाएं.

आज फिर वह स्थिति आ गयी है जब देश के छात्रों-युवकों को आगे बढ़कर राजनीति की कमान संभालनी होगी. उनके अंदर ही वह क्षमता है कि वे उन राजनेताओं को रास्ते पर लाएं जो अपने निजी और संकीर्ण स्वार्थों की वजह से भटकाव के शिकार हो गये हैं. अगर ऐसा हो सका तो नेपाल की राजनीति एक बार फिर सही दिशा ले सकेगी और जनता की अपेक्षाओं को पूरा कर सकेगी.

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