असम में हजारों लोग हर साल अपने घर से बेघर हो जाते हैं, और साल दर साल अपने बिखरे जीवन को समेटने में उन्हें सरकार की मदद नाम मात्र को ही मिल पाती है.
वे कहते हैं, "हमारा गांव साल के 6 महीने पानी के नीचे रहता है और हमारी दीवारों पर पानी के निशान पूरे साल रहते हैं. हम टापू से कहीं जा नहीं सकते क्योंकि लोगों को लाने ले जाने वाला बेड़ा उस समय चलता नहीं, और नाव से पार करना बहुत खतरनाक होता है. कभी-कभी बाथरूम जाने जैसी सामान्य चीज भी मुश्किल हो जाती है. हमें नाव में जाकर बाढ़ के पानी में मल त्याग करने के लिए विवश होना पड़ता है, और बाद में उसी पानी से नहाना भी पड़ता है. हमारी जिंदगियां बिल्कुल रुक जाती हैं."
खेती न कर पाने या मछली न पकड़ पाने जैसी स्थिति में भी गांव वाले आसपास के किसी जगह जाकर छोटा-मोटा काम भी बाढ़ की वजह से नहीं कर पाते.
हेसुली में महिलाओं के लिए अपने मासिक धर्म के दौरान अतिरिक्त तनाव पैदा हो जाता है. गांव की एक मध्य आयु की महिला, जो एक बच्चे की मां हैं ने अपना नाम गुप्त रखने की इच्छा रखते हुए बताया, "बैठकर एक पल चैन की सांस लेने के लिए भी जगह नहीं होती. अगर हम थोड़ा बेहतर महसूस करने के लिए नहाना भी चाहे, तो वह भी हमें बाढ़ के पानी में ही करना होगा और हम फिर मिट्टी और रेत से सने बाहर आते हैं. हम समय पर न खा पाते हैं न सो पाते हैं, और करें भी कैसे जब आपके घर में से पानी बह रहा हो? कुछ भी करना बड़ा पीड़ा देने वाला होता है."
समस्याएं बाढ़ के पानी के उतरने के बाद भी खत्म नहीं होतीं. मरे हुए मवेशियों की सड़ांध और बीमारी कब है आबोहवा में बना ही रहता है. इसीलिए 27 वर्षीय निलाखी दास अपने विश्वनाथ घाट पुरोनी के घर को हर साल बाढ़ के चार महीनों के लिए छोड़ जाती हैं, उन्हें अपने चार वर्षीय बेटे के लिए डर लगता है.
वे कहती हैं, "मेरे घर में हर साल पानी भर जाता है और पानी मेरे घुटनों तक उठ जाता है. बाद में सब जगह से बदबू आती है, हर तरफ कीचड़ और कूड़ा होता है जिससे मेरे बेटे को बहुत परेशानी होती है. अगर घर की सफाई ठीक से ना हो तो उसे बुखार, खांसी, कभी-कभी दस्त और उल्टियां भी हो जाती हैं. और अगर कहीं वह गलती से बाढ़ के पानी में गिर गया, तो निश्चित ही डूब जाएगा. इसलिए उन महीनों में मैं यहां नहीं रह सकती. मैं 20 किलोमीटर दूर यहां से अपनी मां के गांव चली जाती हूं, और वापस तभी लौटती हूं जब घर की सूख जाने के बाद अच्छे से सफाई हो जाती है."
यह एक झलक है कि असम के लोगों के लिए "बाढ़ ग्रसित" होने का क्या मतलब है. साल दर साल, विपत्ति का सामना कर जीवित रहने को चरितार्थ करना.
वहां हेसुली में, लोखिमा बरुआह कभी-कभी कल्पना करती हैं कि उनका जीवन बाढ़ के बिना कैसा हो सकता है. वह बताती हैं, "मैं अक्सर उस बारे में सोचती हूं, कि जीवन के ऊपर बाढ़ की चिरंतन छाया के बिना जीना कैसा होगा? कैसा होगा जब केवल किसी तरह जिंदा बच जाने के बारे में नहीं सोचना पड़ेगा? मैं सोचती हूं कि मैं कहां जा सकती हूं पर फिर वास्तविकताएं मुझे यथार्थ में ले आती हैं. मैं कहां जाऊंगी?
***
फोटो - सुप्रिती डेविड
पांच भागों में प्रकाशित होने वाली असम बाढ़ और बंगाल के अमफन चक्रवात के कारण होने वाले विनाशकारी परिणाम सीरीज का यह दूसरा पार्ट है. पहला पार्ट यहां पढ़ें.
यह स्टोरी हमारे एनएल सेना प्रोजेक्ट का हिस्सा जिसमें 43 पाठकों ने सहयोग किया है. यह आदित्य देउस्कर, देशप्रिया देवेश, जॉन अब्राहम, अदिति प्रभा, रोहित उन्नीमाधवन, अभिषेक दैविल, और अन्य एनएल सेना के सदस्यों के लिए संभव बनाया गया है. हमारे अगले एनएल सेना प्रोजेक्ट 'लव जिहाद': मिथ वर्सेस रियलिटी में सहयोग दे और गर्व से कहें मेरे ख़र्च पर आजाद हैं ख़बरें.
वे कहते हैं, "हमारा गांव साल के 6 महीने पानी के नीचे रहता है और हमारी दीवारों पर पानी के निशान पूरे साल रहते हैं. हम टापू से कहीं जा नहीं सकते क्योंकि लोगों को लाने ले जाने वाला बेड़ा उस समय चलता नहीं, और नाव से पार करना बहुत खतरनाक होता है. कभी-कभी बाथरूम जाने जैसी सामान्य चीज भी मुश्किल हो जाती है. हमें नाव में जाकर बाढ़ के पानी में मल त्याग करने के लिए विवश होना पड़ता है, और बाद में उसी पानी से नहाना भी पड़ता है. हमारी जिंदगियां बिल्कुल रुक जाती हैं."
खेती न कर पाने या मछली न पकड़ पाने जैसी स्थिति में भी गांव वाले आसपास के किसी जगह जाकर छोटा-मोटा काम भी बाढ़ की वजह से नहीं कर पाते.
हेसुली में महिलाओं के लिए अपने मासिक धर्म के दौरान अतिरिक्त तनाव पैदा हो जाता है. गांव की एक मध्य आयु की महिला, जो एक बच्चे की मां हैं ने अपना नाम गुप्त रखने की इच्छा रखते हुए बताया, "बैठकर एक पल चैन की सांस लेने के लिए भी जगह नहीं होती. अगर हम थोड़ा बेहतर महसूस करने के लिए नहाना भी चाहे, तो वह भी हमें बाढ़ के पानी में ही करना होगा और हम फिर मिट्टी और रेत से सने बाहर आते हैं. हम समय पर न खा पाते हैं न सो पाते हैं, और करें भी कैसे जब आपके घर में से पानी बह रहा हो? कुछ भी करना बड़ा पीड़ा देने वाला होता है."
समस्याएं बाढ़ के पानी के उतरने के बाद भी खत्म नहीं होतीं. मरे हुए मवेशियों की सड़ांध और बीमारी कब है आबोहवा में बना ही रहता है. इसीलिए 27 वर्षीय निलाखी दास अपने विश्वनाथ घाट पुरोनी के घर को हर साल बाढ़ के चार महीनों के लिए छोड़ जाती हैं, उन्हें अपने चार वर्षीय बेटे के लिए डर लगता है.
वे कहती हैं, "मेरे घर में हर साल पानी भर जाता है और पानी मेरे घुटनों तक उठ जाता है. बाद में सब जगह से बदबू आती है, हर तरफ कीचड़ और कूड़ा होता है जिससे मेरे बेटे को बहुत परेशानी होती है. अगर घर की सफाई ठीक से ना हो तो उसे बुखार, खांसी, कभी-कभी दस्त और उल्टियां भी हो जाती हैं. और अगर कहीं वह गलती से बाढ़ के पानी में गिर गया, तो निश्चित ही डूब जाएगा. इसलिए उन महीनों में मैं यहां नहीं रह सकती. मैं 20 किलोमीटर दूर यहां से अपनी मां के गांव चली जाती हूं, और वापस तभी लौटती हूं जब घर की सूख जाने के बाद अच्छे से सफाई हो जाती है."
यह एक झलक है कि असम के लोगों के लिए "बाढ़ ग्रसित" होने का क्या मतलब है. साल दर साल, विपत्ति का सामना कर जीवित रहने को चरितार्थ करना.
वहां हेसुली में, लोखिमा बरुआह कभी-कभी कल्पना करती हैं कि उनका जीवन बाढ़ के बिना कैसा हो सकता है. वह बताती हैं, "मैं अक्सर उस बारे में सोचती हूं, कि जीवन के ऊपर बाढ़ की चिरंतन छाया के बिना जीना कैसा होगा? कैसा होगा जब केवल किसी तरह जिंदा बच जाने के बारे में नहीं सोचना पड़ेगा? मैं सोचती हूं कि मैं कहां जा सकती हूं पर फिर वास्तविकताएं मुझे यथार्थ में ले आती हैं. मैं कहां जाऊंगी?
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फोटो - सुप्रिती डेविड
पांच भागों में प्रकाशित होने वाली असम बाढ़ और बंगाल के अमफन चक्रवात के कारण होने वाले विनाशकारी परिणाम सीरीज का यह दूसरा पार्ट है. पहला पार्ट यहां पढ़ें.
यह स्टोरी हमारे एनएल सेना प्रोजेक्ट का हिस्सा जिसमें 43 पाठकों ने सहयोग किया है. यह आदित्य देउस्कर, देशप्रिया देवेश, जॉन अब्राहम, अदिति प्रभा, रोहित उन्नीमाधवन, अभिषेक दैविल, और अन्य एनएल सेना के सदस्यों के लिए संभव बनाया गया है. हमारे अगले एनएल सेना प्रोजेक्ट 'लव जिहाद': मिथ वर्सेस रियलिटी में सहयोग दे और गर्व से कहें मेरे ख़र्च पर आजाद हैं ख़बरें.