फिल्म लॉन्ड्री: बिहार से दिल्ली आए एक मामूली युवक की कहानी है, प्रतीक वत्स की ‘ईब आले ऊ’

नौकरी लगने के बाद अंजनी की मुश्किलें शुरू होती हैं. सबसे पहले तो उसे यह काम पसंद नहीं है. बंदर भगाने का काम उसे अपनी तोहीन लगता है.

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अंजनी बंदरों को भगाने के यत्न और प्रयत्न में नई तरकीबें अपनाता है. उन तरकीबों की शिकायत हो जाती है तो वह अपनी नापसंद नौकरी बचाने के लिए रिरियाने लगता है. उसकी स्थिति उन बंदरों से भिन्न नहीं है जो खुराक की तलाश में महानगरीय संपन्नता में विघ्न बन गए हैं. अंजनी के बहन-बहनोई भी विकट स्थिति में हैं. उनकी अपनी मुसीबतें और लड़ाइयां हैं. गर्भवती बहन भाई और पति के बीच की संधि है.

प्रतीक वत्स ने ‘ईब आले ऊ’ के प्रसंगों और संवादों में राजनीतिक संदर्भ और टिप्पणियों का सार्थक उपयोग किया है. वह धर्म और आस्था जनित सामाजिक पाखंड पर भी निशाना साधते हैं. उनकी यह फिल्म 21वीं सदी के दूसरे दशक के भारत और उसकी राजधानी का मार्मिक साक्ष्य है. पाखंड ही है कि एक तरफ बंदरों को भगाना है और दूसरी तरफ उन्हें हनुमान मान कर खिलाना भी है. यह फिल्म एक साथ धर्म, राजनीति, राष्ट्रवाद, महानगर, नीचा नगर, निचले तबके के संघर्ष और ऊंचे तबके के विमर्श को पेश करती है. प्रतीक वटस की खूबी है कि वह इन सभी मुद्दों पर शोर नहीं करते. उन्होंने प्रतीकों के माध्यम से यह रूपक रचा है. इस रचना में उनके सहयोगी लेखक शुभम, कैमरामैन सौम्यानंद साही, कला निर्देशक अभिषेक भारद्वाज व नील मणिकांत, कॉस्टयूम डिजाइनर, एडिटर, ध्वनि मुद्रक सभी ने पर्याप्त योगदान किया है.

कलाकारों में अंजनी की भूमिका निभा रहे शार्दुल भारद्वाज ने अंजनी के पराभव और मनोभाव को अच्छी तरह उकेरा है. इस फिल्म में अनेक नॉन एक्टर हैं. उनके परफॉर्मेंस वास्तविक और सटीक हैं. यहां तक कि बंदरों की हरकतों और घुड़कियों को भी कैमरामैन और संपादक ने अंजनी और लाल इमारतों के बीच प्रभावशाली और मानीखेज तरीके से पेश किया है. इस फिल्म के संवाद और उनमें प्रयुक्त भाषा चरित्रों के भाव-मनोभाव को अच्छी तरह व्यक्त करती है. उन्होंने शब्दों के उच्चारण और संवाद अदायगी पर भी पूरा ध्यान दिया है.

पहली फिल्म में ही प्रतीक वत्स ने जाहिर किया है कि वह सिनेमा माध्यम और उसके प्रयोग को अच्छी तरह समझते हैं. पहली फिल्म अपने किफायती एक्सप्रेशन में वह सारगर्भित और प्रभावकारी हैं. उनसे उम्मीदें बंधी हैं.

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प्रतीक वत्स ने ‘ईब आले ऊ’ के प्रसंगों और संवादों में राजनीतिक संदर्भ और टिप्पणियों का सार्थक उपयोग किया है. वह धर्म और आस्था जनित सामाजिक पाखंड पर भी निशाना साधते हैं. उनकी यह फिल्म 21वीं सदी के दूसरे दशक के भारत और उसकी राजधानी का मार्मिक साक्ष्य है. पाखंड ही है कि एक तरफ बंदरों को भगाना है और दूसरी तरफ उन्हें हनुमान मान कर खिलाना भी है. यह फिल्म एक साथ धर्म, राजनीति, राष्ट्रवाद, महानगर, नीचा नगर, निचले तबके के संघर्ष और ऊंचे तबके के विमर्श को पेश करती है. प्रतीक वटस की खूबी है कि वह इन सभी मुद्दों पर शोर नहीं करते. उन्होंने प्रतीकों के माध्यम से यह रूपक रचा है. इस रचना में उनके सहयोगी लेखक शुभम, कैमरामैन सौम्यानंद साही, कला निर्देशक अभिषेक भारद्वाज व नील मणिकांत, कॉस्टयूम डिजाइनर, एडिटर, ध्वनि मुद्रक सभी ने पर्याप्त योगदान किया है.

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पहली फिल्म में ही प्रतीक वत्स ने जाहिर किया है कि वह सिनेमा माध्यम और उसके प्रयोग को अच्छी तरह समझते हैं. पहली फिल्म अपने किफायती एक्सप्रेशन में वह सारगर्भित और प्रभावकारी हैं. उनसे उम्मीदें बंधी हैं.

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