यह सब और कितना कुछ अनर्गल लगातार कहा जा रहा है और न प्रधानमंत्री, न पार्टी अध्यक्ष किसी से सफाई पूछते हैं, न किसी को रोकते हैं. तब लोगों को, किसानों को यह कहने का मजबूत आधार मिल जाता है कि यह सब इनके इशारे पर ही किया जा रहा है. सरकार किसानों के पाले में गेंद फेंक कर इन सारे आरोपों को, इन सारी शंकाओं को कूड़े में फेंक दे सकती है.
अब किसान अपना सर जोड़ें. सर जोड़ने से पहले उन्हें अपना धड़ जोड़ना पड़ेगा, और वह भी कश्मीर से कन्याकुमारी तक! अब चुनौती उनके लिए है कि वे खेती-किसानी का एक ढांचा बनाएं और उस पर सारे देश के किसानों की सहमति बनाएं. एक बार किसानों का वह प्रस्ताव तैयार हो जाए तो फिर उस प्रस्ताव पर संसद में खुला विमर्श हो, देश भर के किसानों में भी और व्यापक समाज में उसकी चर्चा हो, विशेषज्ञ उसे जांचे, मीडिया उसकी शल्य-चिकित्सा करे और फिर हम देखें कि खेती-किसानी का किसानों का अपना नक्शा कैसे उभरता है. यह एकदम नई, लोकतांत्रिक पहल होगी जो किसानों को निर्णायक भूमिका में ला देगी. तब सिंघु और टिकरी सीमा पर लगा धरना आप-से-आप सिमट जाएगा, दिल्ली के सारे रास्ते खुल जाएंगे और किसानों को अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर, अपने खेतों-खलिहानों की तरफ लौटना होगा.
अपने खेतों-खलिहानों की तरफ जाने से ही काम नहीं चलेगा, उन्हें देश भर के किसानों के साथ विमर्श करने निकलना पड़ेगा, और यह सब छह माह के भीतर पूरा कर, उन्हें फिर देश के सामने खड़ा होना पडे़गा. कौन, किधर जाएगा और कौन किससे, क्या बात करेगा, यह सारा कुछ तो किसान आंदोलन को ही तय करना होगा. किसानों के भीतर के हितविरोध का शमन कैसे होगा, यह भी उनको ही सोचना होगा. मैं चाहूंगा कि सरकार राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के आपसी विचार-विनमय की पूरी व्यवस्था कर दे, उनके सफर आदि की आवश्यक सुविधा भी बना दे. नीति और नीयत में कोई सरकार खोट न हो, न दिखाई दे.
यह एकदम नया व लोकतांत्रिक प्रयोग होगा. यह एक बार शक्य हो गया तो केवल किसानों के लिए नहीं बल्कि जब भी, जो भी समूह संगठित रूप से अपनी मांगें ले कर सामने आएगा उस पर यह जिम्मेवारी होगी कि वह वैकल्पिक व्यवस्था का अपना नक्शा भी देश के विचारार्थ पेश करे. विरोध हमारा काम, समाधान खोजना दूसरे का, यह चलन समाप्त होना चाहिए.
यह सब और कितना कुछ अनर्गल लगातार कहा जा रहा है और न प्रधानमंत्री, न पार्टी अध्यक्ष किसी से सफाई पूछते हैं, न किसी को रोकते हैं. तब लोगों को, किसानों को यह कहने का मजबूत आधार मिल जाता है कि यह सब इनके इशारे पर ही किया जा रहा है. सरकार किसानों के पाले में गेंद फेंक कर इन सारे आरोपों को, इन सारी शंकाओं को कूड़े में फेंक दे सकती है.
अब किसान अपना सर जोड़ें. सर जोड़ने से पहले उन्हें अपना धड़ जोड़ना पड़ेगा, और वह भी कश्मीर से कन्याकुमारी तक! अब चुनौती उनके लिए है कि वे खेती-किसानी का एक ढांचा बनाएं और उस पर सारे देश के किसानों की सहमति बनाएं. एक बार किसानों का वह प्रस्ताव तैयार हो जाए तो फिर उस प्रस्ताव पर संसद में खुला विमर्श हो, देश भर के किसानों में भी और व्यापक समाज में उसकी चर्चा हो, विशेषज्ञ उसे जांचे, मीडिया उसकी शल्य-चिकित्सा करे और फिर हम देखें कि खेती-किसानी का किसानों का अपना नक्शा कैसे उभरता है. यह एकदम नई, लोकतांत्रिक पहल होगी जो किसानों को निर्णायक भूमिका में ला देगी. तब सिंघु और टिकरी सीमा पर लगा धरना आप-से-आप सिमट जाएगा, दिल्ली के सारे रास्ते खुल जाएंगे और किसानों को अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर, अपने खेतों-खलिहानों की तरफ लौटना होगा.
अपने खेतों-खलिहानों की तरफ जाने से ही काम नहीं चलेगा, उन्हें देश भर के किसानों के साथ विमर्श करने निकलना पड़ेगा, और यह सब छह माह के भीतर पूरा कर, उन्हें फिर देश के सामने खड़ा होना पडे़गा. कौन, किधर जाएगा और कौन किससे, क्या बात करेगा, यह सारा कुछ तो किसान आंदोलन को ही तय करना होगा. किसानों के भीतर के हितविरोध का शमन कैसे होगा, यह भी उनको ही सोचना होगा. मैं चाहूंगा कि सरकार राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के आपसी विचार-विनमय की पूरी व्यवस्था कर दे, उनके सफर आदि की आवश्यक सुविधा भी बना दे. नीति और नीयत में कोई सरकार खोट न हो, न दिखाई दे.
यह एकदम नया व लोकतांत्रिक प्रयोग होगा. यह एक बार शक्य हो गया तो केवल किसानों के लिए नहीं बल्कि जब भी, जो भी समूह संगठित रूप से अपनी मांगें ले कर सामने आएगा उस पर यह जिम्मेवारी होगी कि वह वैकल्पिक व्यवस्था का अपना नक्शा भी देश के विचारार्थ पेश करे. विरोध हमारा काम, समाधान खोजना दूसरे का, यह चलन समाप्त होना चाहिए.