टोल-प्लाज़ा और जियो मोबाइल नेटवर्क का विरोध असल में ‘कॉमन गुड’ को निजीकरण से बचाना है

किसान आंदोलन ने सरकार को यह याद तो दिलाया ही है कि लोकतन्त्र में ‘जवाबदेही’ एक गहना है जैसे सवाल पूछना. आप केवल सवाल पूछते रहेंगे और जवाब नहीं देंगे तो यह ‘गहना’ होकर भी आप पर खिलेगा नहीं.

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ठीक इसी तरह जब रिलायंस कंपनी के जियो के बहिष्कार की अपील किसान आंदोलन ने की है तो वह भी सार्वजनिक संसाधन यानी सेटेलाइट से पैदा होने वाली तरंगों पर निजी स्वामित्व के खिलाफ है. ये भी फिलहाल के लिए सच है कि रिलायंस जियो के बहिष्कार का अगर किसी को फायदा होगा भी तो भी निजी कंपनियां मसलन एयरटेल या आइडया वोडाफोन को ही होगा क्योंकि भारत संचार निगम लिमिटेड जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी को पहले ही अंबानी के यहां रेहन पर रखा जा चुका है. लेकिन वायु तरंगों की साझा हकदारी का सवाल यहां भी उठा तो है ही.

‘न्यू इंडिया’ का नागरिक समाज या जनता अब ‘प्रचार आधारित धारणाओं’ के वशीभूत हो चुकी है अन्यथा वह इस कार्यक्रम में छिपे उन संकेतों को समझ जाती जो वाकई एक राज्य के तौर पर भारतीय गणराज्य को पुनर्स्थापित करने की कोशिश कर रहा है. संविधान की शक्ति का स्रोत अगर देश की जनता है तो ठीक उसी तरह राज्य की शक्ति के कई स्रोतों में से एक स्रोत उसे हासिल ‘एमिनेंट डोमेन’ का वो डोक्ट्राईन है जो यह स्थापित करता है कि राज्य की भौगोलिक सरहदों के भीतर जो कुछ भी है वह अंतत: राज्य का है. तमाम चल-अचल संसाधनों पर अंतत: राज्य की प्रभुसत्ता है. इस सत्ता का इस्तेमाल राज्य सार्वजनिक उद्देश्य के लिए अपने विवेक से कर सकती है. कई बार सामरिक या आपदा महत्व के लिए इस तरह के अनंत अधिकार राज्य के लिए अनिवार्य भी होते हैं और राज्य इनका इस्तेमाल करते रहे हैं.

आधुनिक राष्ट्र राज्य की संप्रभुता और स्व-प्रभुता के लिए इस डोक्ट्राइन को लगभग अपरिहार्य मान लिया गया है. हालांकि नव उदरवादी आर्थिक नीतियां देश में लागू होने के बाद इसी एक शक्ति का दुरुपयोग सबसे ज़्यादा हुआ है और खेदजनक बात है कि इनका इनका दुरुपयोग निर्बल जनता के खिलाफ उनकी संपत्ति के हक़-अधिकारों को बलात हड़पने के लिए हुआ है. इससे भी ज़्यादा अफसोसजनक बात यह रही कि इस एक शक्ति का इस्तेमाल बीते तीन दशकों में पूंजीपतियों के हितों में ही किया गया.

टोल-प्लाज़ा की अवधारणा और उसका चलन वास्तव में राज्य को मिली इस अनंत शक्ति में सेंध लगाने जैसा है. टोल पर निजी प्रभुत्व सार्वजनिक कार्यों के निजीकरण की परिणति है. इन्फ्रास्ट्रक्चर या अधो- संरचना जो कभी सार्वजनिक क्षेत्र की ज़िम्मेदारी रही है और जिसे अलग- अलग तरीकों से देश की जनता द्वारा दिये गए करों से पूरा किया जाता रहा है. अब सड़क निर्माण क्योंकि निजी कंपनियां कर रही हैं तो इसके एवज़ में टोल का अधिकार उन्हें मिल रहा है। यह टोल-प्लाज़ा असल में कॉमन गुड या सार्वजनिक- साझा संसाधनों का निजीकरण ही है. इससे स्पष्ट है कि अगर देश की सरहद के अंदर सब कुछ चल-अचल राज्य का है तो किसी हाईवे पर वसूली का अधिकार राज्य के बजाय किसी निजी व्यक्ति या कंपनी को क्यों होना चाहिए?

इस लिहाज से देखें तो यह आंदोलन वास्तव में ‘कॉमन गुड’ के निजीकरण के खिलाफ है और इसलिए सिर्फ किसानों का नहीं बल्कि सभी का आंदोलन है.

टोल प्लाज़ा ने यातायात को बहुत मंहगा किया है. आज पूरे देश में ऐसे ही मार्ग बन चुके हैं जिन्हें किसी निजी कंपनी ने बनाया है और उस पर गुजरने वालों से टैक्स वसूला जा रहा है. व्यावहारिक रूप से आज लगभग एक से डेढ़ रुपये प्रति किलोमीटर केवल इन मार्गों पर चलने के लिए हर नागरिक अदा कर रहा है. इस बात पर अक्सर यह सुना जाता है कि- ठीक है कुछ टैक्स भले लगा लेकिन रोड तो बढ़िया था. अब सवाल है कि अपने नागरिकों को अच्छी सड़क मुहैया कराना राज्य का दायित्व था और यह भी ज़रूरी नहीं था कि सड़कें ठीक वैसी ही हों जो इन निजी पूंजीपतियों ने भविष्य में टोल वसूले जाने के लिए बनायी हैं. थोड़ा कम गुणवत्ता की भी सड़कें हो सकती थीं लेकिन राज्य अपने दायित्व को निभा सकता था और अगर सड़क की मरम्मत वगैरह के लिए राजस्व जुटाने की बात भी है तो राज्य वह वसूल करता ही.

टोल-प्लाज़ा राज्य की बुनियादी शक्तियों में एक ऐसी पूंजीवादी दखल है जिससे देश के तमाम नागरिक हर रोज़ दो-चार होते ही हैं. हालांकि राज्य की संचालन की ज़िम्मेदारी के लिए चुनी गयी सरकारें खुद इन्हें लेकर बेपरवाह हैं या जान-बूझकर राज्य की अवधारणा को कमजोर कर रही हैं. यह स्पष्ट होता जा रहा है कि सरकारों पर कॉर्पोरेटी नियंत्रण अब राज्य को भी अपने मुनाफे की हवस में निगलते जा रहा है. किसान आंदोलन ने इस मूल बात को भी समझ लिया है. आखिर अनिवार्य रूप से राज्य के एकाधिकार में पूंजीपतियों को समानान्तर अधिकार कैसे दिये जा सकते हैं? इस आंदोलन के इस कदम को हालांकि एक इवेंट के तौर पर देखा गया और इसके मूल संकेतों को जैसे छिपा दिया गया. ज़रूरत इन्हें पहचानने और समर्थन देने की है.

ठीक इसी तरह जब रिलायंस कंपनी के जियो के बहिष्कार की अपील किसान आंदोलन ने की है तो वह भी सार्वजनिक संसाधन यानी सेटेलाइट से पैदा होने वाली तरंगों पर निजी स्वामित्व के खिलाफ है. ये भी फिलहाल के लिए सच है कि रिलायंस जियो के बहिष्कार का अगर किसी को फायदा होगा भी तो भी निजी कंपनियां मसलन एयरटेल या आइडया वोडाफोन को ही होगा क्योंकि भारत संचार निगम लिमिटेड जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी को पहले ही अंबानी के यहां रेहन पर रखा जा चुका है. लेकिन वायु तरंगों की साझा हकदारी का सवाल यहां भी उठा तो है ही.

‘न्यू इंडिया’ का नागरिक समाज या जनता अब ‘प्रचार आधारित धारणाओं’ के वशीभूत हो चुकी है अन्यथा वह इस कार्यक्रम में छिपे उन संकेतों को समझ जाती जो वाकई एक राज्य के तौर पर भारतीय गणराज्य को पुनर्स्थापित करने की कोशिश कर रहा है. संविधान की शक्ति का स्रोत अगर देश की जनता है तो ठीक उसी तरह राज्य की शक्ति के कई स्रोतों में से एक स्रोत उसे हासिल ‘एमिनेंट डोमेन’ का वो डोक्ट्राईन है जो यह स्थापित करता है कि राज्य की भौगोलिक सरहदों के भीतर जो कुछ भी है वह अंतत: राज्य का है. तमाम चल-अचल संसाधनों पर अंतत: राज्य की प्रभुसत्ता है. इस सत्ता का इस्तेमाल राज्य सार्वजनिक उद्देश्य के लिए अपने विवेक से कर सकती है. कई बार सामरिक या आपदा महत्व के लिए इस तरह के अनंत अधिकार राज्य के लिए अनिवार्य भी होते हैं और राज्य इनका इस्तेमाल करते रहे हैं.

आधुनिक राष्ट्र राज्य की संप्रभुता और स्व-प्रभुता के लिए इस डोक्ट्राइन को लगभग अपरिहार्य मान लिया गया है. हालांकि नव उदरवादी आर्थिक नीतियां देश में लागू होने के बाद इसी एक शक्ति का दुरुपयोग सबसे ज़्यादा हुआ है और खेदजनक बात है कि इनका इनका दुरुपयोग निर्बल जनता के खिलाफ उनकी संपत्ति के हक़-अधिकारों को बलात हड़पने के लिए हुआ है. इससे भी ज़्यादा अफसोसजनक बात यह रही कि इस एक शक्ति का इस्तेमाल बीते तीन दशकों में पूंजीपतियों के हितों में ही किया गया.

टोल-प्लाज़ा की अवधारणा और उसका चलन वास्तव में राज्य को मिली इस अनंत शक्ति में सेंध लगाने जैसा है. टोल पर निजी प्रभुत्व सार्वजनिक कार्यों के निजीकरण की परिणति है. इन्फ्रास्ट्रक्चर या अधो- संरचना जो कभी सार्वजनिक क्षेत्र की ज़िम्मेदारी रही है और जिसे अलग- अलग तरीकों से देश की जनता द्वारा दिये गए करों से पूरा किया जाता रहा है. अब सड़क निर्माण क्योंकि निजी कंपनियां कर रही हैं तो इसके एवज़ में टोल का अधिकार उन्हें मिल रहा है। यह टोल-प्लाज़ा असल में कॉमन गुड या सार्वजनिक- साझा संसाधनों का निजीकरण ही है. इससे स्पष्ट है कि अगर देश की सरहद के अंदर सब कुछ चल-अचल राज्य का है तो किसी हाईवे पर वसूली का अधिकार राज्य के बजाय किसी निजी व्यक्ति या कंपनी को क्यों होना चाहिए?

इस लिहाज से देखें तो यह आंदोलन वास्तव में ‘कॉमन गुड’ के निजीकरण के खिलाफ है और इसलिए सिर्फ किसानों का नहीं बल्कि सभी का आंदोलन है.

टोल प्लाज़ा ने यातायात को बहुत मंहगा किया है. आज पूरे देश में ऐसे ही मार्ग बन चुके हैं जिन्हें किसी निजी कंपनी ने बनाया है और उस पर गुजरने वालों से टैक्स वसूला जा रहा है. व्यावहारिक रूप से आज लगभग एक से डेढ़ रुपये प्रति किलोमीटर केवल इन मार्गों पर चलने के लिए हर नागरिक अदा कर रहा है. इस बात पर अक्सर यह सुना जाता है कि- ठीक है कुछ टैक्स भले लगा लेकिन रोड तो बढ़िया था. अब सवाल है कि अपने नागरिकों को अच्छी सड़क मुहैया कराना राज्य का दायित्व था और यह भी ज़रूरी नहीं था कि सड़कें ठीक वैसी ही हों जो इन निजी पूंजीपतियों ने भविष्य में टोल वसूले जाने के लिए बनायी हैं. थोड़ा कम गुणवत्ता की भी सड़कें हो सकती थीं लेकिन राज्य अपने दायित्व को निभा सकता था और अगर सड़क की मरम्मत वगैरह के लिए राजस्व जुटाने की बात भी है तो राज्य वह वसूल करता ही.

टोल-प्लाज़ा राज्य की बुनियादी शक्तियों में एक ऐसी पूंजीवादी दखल है जिससे देश के तमाम नागरिक हर रोज़ दो-चार होते ही हैं. हालांकि राज्य की संचालन की ज़िम्मेदारी के लिए चुनी गयी सरकारें खुद इन्हें लेकर बेपरवाह हैं या जान-बूझकर राज्य की अवधारणा को कमजोर कर रही हैं. यह स्पष्ट होता जा रहा है कि सरकारों पर कॉर्पोरेटी नियंत्रण अब राज्य को भी अपने मुनाफे की हवस में निगलते जा रहा है. किसान आंदोलन ने इस मूल बात को भी समझ लिया है. आखिर अनिवार्य रूप से राज्य के एकाधिकार में पूंजीपतियों को समानान्तर अधिकार कैसे दिये जा सकते हैं? इस आंदोलन के इस कदम को हालांकि एक इवेंट के तौर पर देखा गया और इसके मूल संकेतों को जैसे छिपा दिया गया. ज़रूरत इन्हें पहचानने और समर्थन देने की है.

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