अन्नदाता की हवा में उठती बंद मुट्ठियों ने तय कर लिया है कि अब तानाशाही से पीछे नहीं हटेंगे

कृषि बिलों के खिलाफ किसानों का गुस्सा अब और तेज होता जा रहा है. हरियाणा पंजाब के बाद अब उत्तर प्रदेश के किसान भी दिल्ली पहुंचने लगे हैं.

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हिंदुस्तान के अन्नदाता फिर सड़कों पर हैं. किसान दिल्ली नहीं पहुंच सकें इसके लिए सुरक्षाबलों ने सीमाओं को सील कर दिया गया है. लेकिन लोकतंत्र में अपनी अभिव्यक्ति के अधिकार की बात के साथ बॉर्डर पर ही पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दूसरे राज्यों के किसान डटे हुए हैं. पुलिस और सरकार ठंड के मौसम में बैरिकेड, आंसू गैस, वाटर कैनन की बौछारें, रेत से भरे ट्रक, कंटीली तारों के बाड़े और पत्थरों के साथ अन्नदाता को रोकने के लिए खड़ी है.

पुलिस का कहना है कि वो शांतिपूर्ण तरीके से किसानों को दिल्ली की महामारी से बचाने के लिए ये कवायदें कर रही है. कृषि कानूनों में नए संशोधनों के बाद अब उनके लिए ये करो या मरो का प्रश्न है. नए संशोधनों के बाद उनकी जान पर जो आफत आन पड़ी है, उस स्थिति में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते वक़्त किसी भी महामारी का अब उन्हें डर नहीं है. इस बीच हरियाणा से लेकर दिल्ली पुलिस ने बड़ी संख्या में किसानों की धर-पकड़ शुरू कर दी है. जंतर-मंतर पर पहुंचे किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन को भंग करने की खातिर किसानों को हिरासत में लिया गया है. ख़बर यह भी है कि दिल्ली पुलिस गुरुद्वारों की तलाशी ले रही है कि कहीं वहीं पर पंजाब के किसान छिपे हुए न हों. इस बीच यह भी ख़बर है कि दिल्ली पुलिस ने केजरीवाल सरकार से नौ स्टेडियमों को अस्थायी कैदखानों में तब्दील करने की अनुमति मांगी है. इन सबके बीच किसानों ने टकराव की दिशा में आंदोलन को बढ़ने से रोकने के लिए तीन मांगे रखी हैं.

आंदोलन को जारी रखने के लिए किसानों को दिल्ली में प्रवेश करने के लिए सुरक्षित मार्ग दिया जाए. किसानों को रामलीला मैदान जैसी एक जगह मुहैया की जाए और देश भर के किसानों को कैबिनेट के वरिष्ठ मंत्रियों के साथ तीनों कृषि कानून और ऊर्जा बिल 2020 पर चर्चा के लिए बुलाया जाए. वर्तमान भाजपा सरकार के छ: साल के कार्यकाल में किसानों के प्रतिरोध तेजी से बढ़े हैं. कारण- केंद्र सरकार की किसान विरोधी नीतियां, जिसने किसानों को लगातार हाशिये पर धकेला है. 2014 में एनडीए सरकार के केंद्र में आने के बाद भूमि कानून 2013 में संशोधनों के साथ भू अध्यादेश लाया गया, जिसमें तमाम किसान विरोधी संशोधनों के साथ-साथ परियोजनाओं को वर्गीकृत करते हुए उन परियोजनाओं से किसानों की सहमति के प्रावधान को ही हटा दिया. किसान विरोधी भू अध्यादेश के विरुद्ध देश भर के किसानों के विरोध के मद्देनजर केंद्र सरकार को संशोधनों को वापस लेना पड़ा था. हालांकि भूमि संविधान की अनुवर्ती सूची में होने के नाते राज्यों के अधीन भी है. और इसी नाते एनडीए शासित प्रदेशों में राज्य सरकारों ने केंद्र द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को राज्यों के कानूनों में जगह दी, जिसने केंद्र सरकार की किसान-विरोधी छवि को और पुख्ता किया. एनडीए शासित राज्य सरकारों के भू-कानूनों की एक बानगी से ही सरकार की मंशा साफ देखी जा सकती है.

तत्कालीन राजस्थान सरकार ने जहां राज्य में मौजूद सामुदायिक जमीन को सरकारी जमीन करार करते हुए ऐसी सामुदायिक ज़मीनों को चिन्हित कर सीधा पूंजीपतियों को देने का प्रावधान बनाया, वहीं मध्य प्रदेश में कृषि भूमि के उद्देश्य परिवर्तन की प्रक्रिया को एक दिन में पूरा करने का संशोधन लाया गया. झारखंड में आदिवासियों और जंगल की सामुदायिक ज़मीनों को कॉरपोरेट्स को देने के लिए छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट में परिवर्तन करने की पुरजोर कोशिश की गई, तो उत्तराखंड में वन पंचायत के अधीन सामुदायिक जंगलों को संयुक्त वन प्रबंधन के माध्यम से वन विभाग को सौंपकर हड़पने के प्रयास किए गए. इन सबके बीच पहलू खान और 400 से अधिक डेयरी किसानों के खिलाफ जानलेवा हमलों, समुद्र तटों की ज़मीनों से परंपरागत ढंग से बसे मछुआरा समुदायों को बेदखल करने की प्रक्रियाएं भी बहुत तेज़ी से आगे बढ़ी. तमाम राज्यों में कानूनों में बड़े पैमाने पर फेरबदल ने किसानों-खेत मजदूरों को सड़क पर उतार दिया और अध्यादेशों की प्रतियों को जलाने से लेकर किसान मार्च, धरना-प्रदर्शन आयोजित किए गए.

इन सबके बीच किसानों का कर्ज माफ करने और किसानों द्वारा उत्पादित फसल की खरीद को खेती के कुल खर्चे के 1 ½ की दर पर सुनिश्चित करने की मांग को लेकर देशभर के किसान सड़कों पर उतरे. नासिक से मुंबई का किसान मार्च हो या नेशन फॉर फार्मर्स के आह्वान के साथ किसानों का दिल्ली मार्च पिछले छ: सालों से देश का अन्नदाता सड़क पर है. केंद्र सरकार की इन्हीं विनाशकारी आर्थिक नीतियों के चपेट में आकर अब तक चार लाख से ज्यादा किसान आत्मह्त्या कर चुके हैं. पहले ही खेती में उपज का सही दाम न मिलने के कारण, बीमा जैसी योजनाओं में मची लूट और बीटी कॉटन जैसी पद्धति से ज़मीनों की नष्ट हो रही उपजाऊ क्षमता के कारण किसान बेबस और लाचार हो चले हैं और इसी बीच तीन कृषि कानूनों और बिजली बिल 2020 के साथ केंद्र सरकार ने कॉर्पोरेट-परस्त अपनी छवि के अनुकूल खेती-किसानी के विरुद्ध अपना प्रहार और तीखा कर दिया है. किसानों के मौजूद विरोध को समझने के लिए इन कृषि कानूनों को संक्षेप में समझना बेहद जरूरी है.

ये तीन कृषि कानून हैं - ‘किसानों का उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम 2020’, ‘मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता अधिनियम 2020’ और ‘आवश्यक वस्तुएं (संशोधन) अधिनियम, 2020. नए कानूनों के अनुसार व्यापार के लिए अब व्यापारियों या निजी कंपनियों को कृषि उपज मंडी समिति (एपीएमसी) को बाईपास करने और इसे सीधे किसानों या अन्य व्यापारिक केंद्रों से खरीदने की खुली छूट है.

इन प्रावधानों से देश के कृषि उपज मंडी समिति (एपीएमसी) के लिए संकट खड़ा हो गया है. ध्यान देने योग्य है कि एपीएमसी वे बाजार हैं जहां किसान अपनी फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेच सकते हैं, इसलिए यह न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए भी सीधा खतरा है. इस अधिनियम से निश्चित रूप से निजी कंपनियों और व्यापारियों को लाभ होगा क्योंकि अब उन्हें किसानों से व्यापार करने के लिए किसी लाइसेंस की जरूरत नहीं होगी न ही उन्हें राज्यों को करों का भुगतान करना होगा, जिससे उन्हें कृषि वस्तुओं की कीमतों को विनियमित करने का मौका भी मिलेगा. ज़ाहिर है कि इससे देश के करीब 7000 एपीएमसी में व्यापार और रोजगार की समूची व्यवस्था को भी खतरा है.

इन कानूनों के मुताबिक अब अनुबंध खेती (कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग) का रास्ता साफ हो जाएगा. निजी कंपनियां किसानों के साथ सीधे संपर्क कर सकेंगी. फिर किसानों से सीधे खरीद के लिए कोई मूल्य विनियम नहीं है. किसानों का कहना है कि इस कानून से आने वाले समय में कंपनियां अपनी इच्छा के अनुसार दरें तय करेंगी और वे किसानों पर अपने मन की विशेष फसलें उगाने का दबाव भी डाल सकती हैं, जिससे देशी फसलों के लिए गंभीर खतरा पैदा हो सकता है. नए कानूनों के अनुसार अब अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू जैसे फसल आवश्यक वस्तुओं की सूची से हट चुके हैं, जो आम जनता के भोजन के अधिकार पर सीधा प्रहार है. नए कानून के प्रावधानों के मुताबिक वस्तुओं की जमाखोरी को भरपूर बढ़ावा दिया गया है, जोकि पूरी तरह से कॉर्पोरेट फ़ायदों के लिए किया गया है.

ज़ाहिर ही है कि नए संशोधनों के मुताबिक अब खाद्य वस्तुओं के लिए उत्पादन, भंडारण, आवाजाही और वितरण को भी नियमित किया जा सकेगा, जो खाद्य सुरक्षा को भी गंभीर रूप से प्रभावित करेगा. किसानों की उपज के लिए उचित और लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करने में सरकार की भूमिका के खत्म होने से न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ कृषि उपज की सरकारी खरीद भी बंद हो जाएगी. समग्रता में, किसान कृषि पूरी तरह से बर्बाद हो जाएगी, जिस पर साठ प्रतिशत से अधिक आबादी का अस्तित्व निर्भर है. गौरतलब है कि नई व्यवस्थाओं के तहत देश की खाद्य सुरक्षा के खतरे में पड़ने के कारण गैर-कृषि आबादी भी बुरी तरह प्रभावित होगी. स्पष्ट है कि इन नए कानूनों का उद्देश्य अडानी, वालमार्ट, रिलायंस, बिड़ला, आईटीसी आदि जैसे बड़े विदेशी और घरेलू दोनों तरह की बड़ी व्यापारिक कंपनियों द्वारा मुनाफाखोरी को सुगम बनाना भी है.

लेकिन क्या किसान और गरीब विरोधी इन कानूनों को लागू कर देना सरकार के लिए इतना आसान होगा? क्या नए बिजली बिल के साथ किसानों को बिजली जैसी मूलभूत अधिकार के लिए सब्सिडी-आश्रित कर सरकार अपने कॉर्पोरेट परस्त उद्देश्यों को अंजाम दे सकेगी? इतिहास गवाह है कि मेहनतकशों ने जब-जब अपना हिस्सा मांगा है, क्रांति की सौगात मिली है. चाहे जमींदारों के खिलाफ किसानों-मजदूरों का तेभागा आंदोलन हो या फिर तेलंगाना आंदोलन, सामंती व्यवस्था के खिलाफ नक्सलबाड़ी आंदोलन हो या फिर बहुत बाद में राजीव गांधी सरकार के खिलाफ 1988 का किसान आंदोलन, मेहनतकशों के आंदोलनों ने बार-बार साबित किया है कि उनके पास खोने के लिए सिर्फ बेड़ियां हैं और पाने के लिए पूरी दुनिया. तभी तो सरकारी तानाशाही के प्रतिरोध को दबाने के तमाम चौक-चौबंद व्यवस्था के बावजूद महिला किसानों की भरपूर भागीदारी के साथ किसान आंदोलन आज डटा हुआ है. वह सिर्फ किसान का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा है, बल्कि देश के हर उस नागरिक के अधिकारों के संघर्ष को विस्तार दे रहा है, जिसकी थाली पर सरकार-कॉर्पोरेट के गठजोड़ की बुरी नज़र लगी हुई है.

आज के किसान आंदोलन की तस्वीरें इसकी गवाह हैं. अपनी जिजीविषा से तानाशाहों से लोहा लेने के लिए आंदोलन में खड़ी एक बेहद बुजुर्ग महिला की तस्वीर हो, या फिर अंबाला के किसान नवनीत सिंह की ट्रॉली से वाटर कैनन पर कूदकर पानी के टैप को बंद करती तस्वीर, या पुलिस के साथ संवाद करते किसानों का कथन कि वो अपनी अगुवाई में खुद खड़े हैं, उनका कोई नेता नहीं है. अन्नदाता की हवा में उठती बंद मुट्ठियों ने तय कर लिया है कि अब तानाशाही के बरक्स वो पीछे नहीं हटने वालीं. सरकार के लिए किसान भले जनता न रह गई हो, जनता के अधिकारों की अगुवाई में किसान खड़े हैं. यह दिलासा देने वाली तस्वीर है ‘हम भारत के लोग’ की जो पिछली सर्दियों में शाहीन बाग जैसे देश भर के आंदोलनों में भी शाया हुई थी. प्रेमचंद के शब्दों में आत्म सम्मान की रक्षा हमारा सबसे पहला धर्म है. किसानों का यह संघर्ष अब उनके अस्तित्व, उनके आत्म-सम्मान का संघर्ष है. इतिहास गवाह है कि अन्नदाता के संघर्षों ने तानाशाहों की चूलें हिला दी है. किसान आंदोलन का वर्तमान रूप आगे किस ओर जाता है, यह समय के हवाले है. लेकिन तानाशाह सरकार की प्रतिरोध दबाने की कोशिशों ने यह सिद्ध कर दिया है कि अन्नदाता का यह संघर्ष मील का पत्थर बनने जा रहा है.

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पुलिस का कहना है कि वो शांतिपूर्ण तरीके से किसानों को दिल्ली की महामारी से बचाने के लिए ये कवायदें कर रही है. कृषि कानूनों में नए संशोधनों के बाद अब उनके लिए ये करो या मरो का प्रश्न है. नए संशोधनों के बाद उनकी जान पर जो आफत आन पड़ी है, उस स्थिति में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते वक़्त किसी भी महामारी का अब उन्हें डर नहीं है. इस बीच हरियाणा से लेकर दिल्ली पुलिस ने बड़ी संख्या में किसानों की धर-पकड़ शुरू कर दी है. जंतर-मंतर पर पहुंचे किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन को भंग करने की खातिर किसानों को हिरासत में लिया गया है. ख़बर यह भी है कि दिल्ली पुलिस गुरुद्वारों की तलाशी ले रही है कि कहीं वहीं पर पंजाब के किसान छिपे हुए न हों. इस बीच यह भी ख़बर है कि दिल्ली पुलिस ने केजरीवाल सरकार से नौ स्टेडियमों को अस्थायी कैदखानों में तब्दील करने की अनुमति मांगी है. इन सबके बीच किसानों ने टकराव की दिशा में आंदोलन को बढ़ने से रोकने के लिए तीन मांगे रखी हैं.

आंदोलन को जारी रखने के लिए किसानों को दिल्ली में प्रवेश करने के लिए सुरक्षित मार्ग दिया जाए. किसानों को रामलीला मैदान जैसी एक जगह मुहैया की जाए और देश भर के किसानों को कैबिनेट के वरिष्ठ मंत्रियों के साथ तीनों कृषि कानून और ऊर्जा बिल 2020 पर चर्चा के लिए बुलाया जाए. वर्तमान भाजपा सरकार के छ: साल के कार्यकाल में किसानों के प्रतिरोध तेजी से बढ़े हैं. कारण- केंद्र सरकार की किसान विरोधी नीतियां, जिसने किसानों को लगातार हाशिये पर धकेला है. 2014 में एनडीए सरकार के केंद्र में आने के बाद भूमि कानून 2013 में संशोधनों के साथ भू अध्यादेश लाया गया, जिसमें तमाम किसान विरोधी संशोधनों के साथ-साथ परियोजनाओं को वर्गीकृत करते हुए उन परियोजनाओं से किसानों की सहमति के प्रावधान को ही हटा दिया. किसान विरोधी भू अध्यादेश के विरुद्ध देश भर के किसानों के विरोध के मद्देनजर केंद्र सरकार को संशोधनों को वापस लेना पड़ा था. हालांकि भूमि संविधान की अनुवर्ती सूची में होने के नाते राज्यों के अधीन भी है. और इसी नाते एनडीए शासित प्रदेशों में राज्य सरकारों ने केंद्र द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को राज्यों के कानूनों में जगह दी, जिसने केंद्र सरकार की किसान-विरोधी छवि को और पुख्ता किया. एनडीए शासित राज्य सरकारों के भू-कानूनों की एक बानगी से ही सरकार की मंशा साफ देखी जा सकती है.

तत्कालीन राजस्थान सरकार ने जहां राज्य में मौजूद सामुदायिक जमीन को सरकारी जमीन करार करते हुए ऐसी सामुदायिक ज़मीनों को चिन्हित कर सीधा पूंजीपतियों को देने का प्रावधान बनाया, वहीं मध्य प्रदेश में कृषि भूमि के उद्देश्य परिवर्तन की प्रक्रिया को एक दिन में पूरा करने का संशोधन लाया गया. झारखंड में आदिवासियों और जंगल की सामुदायिक ज़मीनों को कॉरपोरेट्स को देने के लिए छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट में परिवर्तन करने की पुरजोर कोशिश की गई, तो उत्तराखंड में वन पंचायत के अधीन सामुदायिक जंगलों को संयुक्त वन प्रबंधन के माध्यम से वन विभाग को सौंपकर हड़पने के प्रयास किए गए. इन सबके बीच पहलू खान और 400 से अधिक डेयरी किसानों के खिलाफ जानलेवा हमलों, समुद्र तटों की ज़मीनों से परंपरागत ढंग से बसे मछुआरा समुदायों को बेदखल करने की प्रक्रियाएं भी बहुत तेज़ी से आगे बढ़ी. तमाम राज्यों में कानूनों में बड़े पैमाने पर फेरबदल ने किसानों-खेत मजदूरों को सड़क पर उतार दिया और अध्यादेशों की प्रतियों को जलाने से लेकर किसान मार्च, धरना-प्रदर्शन आयोजित किए गए.

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ये तीन कृषि कानून हैं - ‘किसानों का उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम 2020’, ‘मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता अधिनियम 2020’ और ‘आवश्यक वस्तुएं (संशोधन) अधिनियम, 2020. नए कानूनों के अनुसार व्यापार के लिए अब व्यापारियों या निजी कंपनियों को कृषि उपज मंडी समिति (एपीएमसी) को बाईपास करने और इसे सीधे किसानों या अन्य व्यापारिक केंद्रों से खरीदने की खुली छूट है.

इन प्रावधानों से देश के कृषि उपज मंडी समिति (एपीएमसी) के लिए संकट खड़ा हो गया है. ध्यान देने योग्य है कि एपीएमसी वे बाजार हैं जहां किसान अपनी फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेच सकते हैं, इसलिए यह न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए भी सीधा खतरा है. इस अधिनियम से निश्चित रूप से निजी कंपनियों और व्यापारियों को लाभ होगा क्योंकि अब उन्हें किसानों से व्यापार करने के लिए किसी लाइसेंस की जरूरत नहीं होगी न ही उन्हें राज्यों को करों का भुगतान करना होगा, जिससे उन्हें कृषि वस्तुओं की कीमतों को विनियमित करने का मौका भी मिलेगा. ज़ाहिर है कि इससे देश के करीब 7000 एपीएमसी में व्यापार और रोजगार की समूची व्यवस्था को भी खतरा है.

इन कानूनों के मुताबिक अब अनुबंध खेती (कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग) का रास्ता साफ हो जाएगा. निजी कंपनियां किसानों के साथ सीधे संपर्क कर सकेंगी. फिर किसानों से सीधे खरीद के लिए कोई मूल्य विनियम नहीं है. किसानों का कहना है कि इस कानून से आने वाले समय में कंपनियां अपनी इच्छा के अनुसार दरें तय करेंगी और वे किसानों पर अपने मन की विशेष फसलें उगाने का दबाव भी डाल सकती हैं, जिससे देशी फसलों के लिए गंभीर खतरा पैदा हो सकता है. नए कानूनों के अनुसार अब अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू जैसे फसल आवश्यक वस्तुओं की सूची से हट चुके हैं, जो आम जनता के भोजन के अधिकार पर सीधा प्रहार है. नए कानून के प्रावधानों के मुताबिक वस्तुओं की जमाखोरी को भरपूर बढ़ावा दिया गया है, जोकि पूरी तरह से कॉर्पोरेट फ़ायदों के लिए किया गया है.

ज़ाहिर ही है कि नए संशोधनों के मुताबिक अब खाद्य वस्तुओं के लिए उत्पादन, भंडारण, आवाजाही और वितरण को भी नियमित किया जा सकेगा, जो खाद्य सुरक्षा को भी गंभीर रूप से प्रभावित करेगा. किसानों की उपज के लिए उचित और लाभकारी मूल्य सुनिश्चित करने में सरकार की भूमिका के खत्म होने से न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ कृषि उपज की सरकारी खरीद भी बंद हो जाएगी. समग्रता में, किसान कृषि पूरी तरह से बर्बाद हो जाएगी, जिस पर साठ प्रतिशत से अधिक आबादी का अस्तित्व निर्भर है. गौरतलब है कि नई व्यवस्थाओं के तहत देश की खाद्य सुरक्षा के खतरे में पड़ने के कारण गैर-कृषि आबादी भी बुरी तरह प्रभावित होगी. स्पष्ट है कि इन नए कानूनों का उद्देश्य अडानी, वालमार्ट, रिलायंस, बिड़ला, आईटीसी आदि जैसे बड़े विदेशी और घरेलू दोनों तरह की बड़ी व्यापारिक कंपनियों द्वारा मुनाफाखोरी को सुगम बनाना भी है.

लेकिन क्या किसान और गरीब विरोधी इन कानूनों को लागू कर देना सरकार के लिए इतना आसान होगा? क्या नए बिजली बिल के साथ किसानों को बिजली जैसी मूलभूत अधिकार के लिए सब्सिडी-आश्रित कर सरकार अपने कॉर्पोरेट परस्त उद्देश्यों को अंजाम दे सकेगी? इतिहास गवाह है कि मेहनतकशों ने जब-जब अपना हिस्सा मांगा है, क्रांति की सौगात मिली है. चाहे जमींदारों के खिलाफ किसानों-मजदूरों का तेभागा आंदोलन हो या फिर तेलंगाना आंदोलन, सामंती व्यवस्था के खिलाफ नक्सलबाड़ी आंदोलन हो या फिर बहुत बाद में राजीव गांधी सरकार के खिलाफ 1988 का किसान आंदोलन, मेहनतकशों के आंदोलनों ने बार-बार साबित किया है कि उनके पास खोने के लिए सिर्फ बेड़ियां हैं और पाने के लिए पूरी दुनिया. तभी तो सरकारी तानाशाही के प्रतिरोध को दबाने के तमाम चौक-चौबंद व्यवस्था के बावजूद महिला किसानों की भरपूर भागीदारी के साथ किसान आंदोलन आज डटा हुआ है. वह सिर्फ किसान का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा है, बल्कि देश के हर उस नागरिक के अधिकारों के संघर्ष को विस्तार दे रहा है, जिसकी थाली पर सरकार-कॉर्पोरेट के गठजोड़ की बुरी नज़र लगी हुई है.

आज के किसान आंदोलन की तस्वीरें इसकी गवाह हैं. अपनी जिजीविषा से तानाशाहों से लोहा लेने के लिए आंदोलन में खड़ी एक बेहद बुजुर्ग महिला की तस्वीर हो, या फिर अंबाला के किसान नवनीत सिंह की ट्रॉली से वाटर कैनन पर कूदकर पानी के टैप को बंद करती तस्वीर, या पुलिस के साथ संवाद करते किसानों का कथन कि वो अपनी अगुवाई में खुद खड़े हैं, उनका कोई नेता नहीं है. अन्नदाता की हवा में उठती बंद मुट्ठियों ने तय कर लिया है कि अब तानाशाही के बरक्स वो पीछे नहीं हटने वालीं. सरकार के लिए किसान भले जनता न रह गई हो, जनता के अधिकारों की अगुवाई में किसान खड़े हैं. यह दिलासा देने वाली तस्वीर है ‘हम भारत के लोग’ की जो पिछली सर्दियों में शाहीन बाग जैसे देश भर के आंदोलनों में भी शाया हुई थी. प्रेमचंद के शब्दों में आत्म सम्मान की रक्षा हमारा सबसे पहला धर्म है. किसानों का यह संघर्ष अब उनके अस्तित्व, उनके आत्म-सम्मान का संघर्ष है. इतिहास गवाह है कि अन्नदाता के संघर्षों ने तानाशाहों की चूलें हिला दी है. किसान आंदोलन का वर्तमान रूप आगे किस ओर जाता है, यह समय के हवाले है. लेकिन तानाशाह सरकार की प्रतिरोध दबाने की कोशिशों ने यह सिद्ध कर दिया है कि अन्नदाता का यह संघर्ष मील का पत्थर बनने जा रहा है.

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