कल तक इन्हें ज़हीन, मोहब्बत और मां का रुबाब ऊंचा करने वाला शायर कहा और माना जा रहा था लेकिन आज अचानक से ये शायर मुसलमान हो गया है. अब तस होना है कि इसे किस अदालत में भेजा जाय- मज़हब की, अभिव्यक्ति की या कट्टरता की?
ऐसा लगता है जैसे हमारे चारों तरफ एक नहीं बल्कि कई अदृश्य-सी अदालतें खड़ी हो गयी हैं. सबका इकबाल बुलंद हुआ जा रहा है. ये अदालतें धर्म की हैं, मजहब की हैं, कट्टरपन की हैं, जहालत की हैं. जिन्हें संविधान में भरोसा है उनके लिए लोकतन्त्र, समानता, न्याय, बंधुत्व, सेक्युलरिज़्म वाली अदालत भी है. एक अदालत इंसानियत की भी है, लेकिन बेइंतहा ढंग से बंट चुकी या बांटी जा चुकी दुनिया में ये अदालत मौजूद होते हुए भी गैरहाजिर-सी है.
इन अदालतों का काम दंड देना नहीं, बल्कि अलग-अलग मान्यताओं, जज़्बात और विश्वासों को मानने वालों के हौसले बढ़ाना है. हर वक़्त इन अदालतों में लोग अपनी-अपनी मान्यताओं के हिसाब से पेशी दे रहे हैं और खुद को उस अदालत और अपनी मान्यताओं के हिसाब से सही साबित किए जा रहे हैं. मसलन, इंसानियत की अदालत में अभी-अभी एक मुकदमा खत्म हुआ है और दूसरा शुरू होने वाला है. कोई फैसल खान किसी मंदिर में नमाज़ पढ़ते हुए पकड़ा गया है. कहता है कि सालों से ऐसा कर रहा है. ये भी बतलाता है कि खुदाई खिदमतगार और सीमांत गांधी से प्रेरित है. समाज में सौहार्द, भाईचारा बांटना चाहता है. फिलहाल, पुलिस उसे गिरफ्तार करने उसके घर पर आयी है पर वो भागा-भागा यहां आ पहुंचा है.
अदालत अभी-अभी मुनव्वर राणा का मुकदमा सुन कर उठी ही है. मुनव्वर अब तक यहां सिर झुकाये बैठे हुए हैं. बहस इस पर हो रही थी कि मुनव्वर राणा का क्या किया जाए. ताज़ा मामला होने के नाते इस जिरह को तफसील से यहां बखान किया जा रहा है. मुनव्वर राणा का परिचय कराते हुए अदालत में किसी ने बताया है कि कल तक इन्हें ज़हीन शायर, मोहब्बत का शायर, मां का रुबाब ऊंचा करने वाला शायर कहा और माना जा रहा था लेकिन आज अचानक से ये शायर मुसलमान हो गया है. अब तस होना है कि इसे किस अदालत में भेजा जाय- मज़हब की, अभिव्यक्ति की या कट्टरता की?
दर्शक दीर्घा से आवाज़ आयी- मीडिया की. फिर किसी ने उस पर एतराज़ किया और कहा कि वहां तो इसकी लिंचिंग हो जाएगी. काफी विचार-विमर्श के बाद अदालत इन्हें सफाई का मौका देती है. मुनव्वर अपनी सफाई में कुछ खास नहीं कहते, बल्कि अपने उस बयान को ही दोहराते हैं जो उन्होंने दिया था. इस पर एक जज साहब आपत्ति दर्ज़ कराते हैं और सामने लगी एक बड़ी सी स्क्रीन पर ज़ी न्यूज़ की वो क्लिप चलाते हैं जो अभी दिन रात देश के मीडिया में छाई हुई है. मुनव्वर चौंक जाते हैं और कहते हैं कि ये तो मेरा पूरा बयान नहीं है. इस पर अदालत उनसे पूछती है- क्या तुम्हें इस बात की खबर न थी कि तुम ज़ी न्यूज़ को अपना बयान दे रहे हो? एक पैदाइशी मुसलमान होते हुए भी तुम्हें इस बात का थोड़ा भी इल्म था कि ये ‘न्यू इंडिया’ है और ज़ी न्यूज़ इस न्यू इंडिया का मुखपत्र है? शासनादेश है?
"लेकिन हुज़ूर…", मुनव्वर गला साफ करते हुए बोलते हैं- "…पर उसने मेरा इंटरव्यू एक शायर के बतौर लिया था. मैंने भी जो प्रतिक्रिया दी थी वो एक शायर के बतौर दी थी." इस पर अदालत को मुनव्वर पर दया आती है और उसके लिए अफ़सोस होता है. वो कहती है- "मुनव्वर, तुम क्या वाकई इतने मासूम हो? ठीक है कि शायर हो और दुनिया तुम्हें जानती है, लेकिन क्या तुम वाकई ये भूल गए थे कि तुम एक मुसलमान हो? सरकार के खिलाफ बोलते भी हो और अपनी शायरी से भी उसे परेशान भी करते हो?"
अदालत थोड़ा मुहज्ज़िब लहज़े में मुनव्वर से पूछती है कि ज़रा अपनी पेशानी पर बल डालो और याद करो कि देश में इतने मासूमों की लिंचिंग के बाद भी कभी ज़ी न्यूज़ का कोई पत्रकार हिन्दी के किसी ऐसे कवि से उसकी प्रतिक्रिया लेने गया जो मोहब्बत के, श्रृंगार के गीत रचता है? क्या हिंदी के छपास कवियों से उसने कभी यह पूछा कि आपके धर्म के एक बंदे ने सरेआम एक गरीब मुसलमान को जला दिया है, आपको क्या कहना है?
मुनव्वर सिर झुकाये खड़े हैं. उन्हें वाकई ऐसी कोई घटना याद नहीं आ रही है. "लेकिन हुज़ूर, मेरे बयान को वो बता रहे हैं कि मैंने हिंसा का समर्थन कर दिया है?"
अदालत ने अब मुनव्वर से मुखातिब होते हुए कहा– "तो क्या उन्होंने कभी ये कहा कि जो कवि या लेखक लिंचिंग के खिलाफ कुछ नहीं बोले उन्होंने उन हत्यारों का समर्थन अपनी चुप्पी से नहीं किया? मुनव्वर याद रखो, समर्थन केवल पक्ष में बोलकर ही नहीं बल्कि चुप रहकर भी किया जाता है. तुम इस अदालत में इसलिए नहीं हो कि तुम्हें दंड मिले, बल्कि तुम यहां इसलिए खड़े हो ताकि तुम्हें हम सांत्वना दे सकें. हम जानते हैं कि तुम्हारे ऊपर जो मुकद्दमे हो चुके हैं उनमें तुम्हें सज़ा भी हो सकती है या न भी हो, पर तुम्हें जबर्दस्त रुसवाई और बदनामी हासिल होने वाली है. तुम्हें अभी बहुत जलील होना है. इसलिए हम तुम्हें कुछ सुकून देना चाहते हैं. हम जानते हैं तुम्हारे अपने हमख्याल लोग, मुसलमान होने के नाते तुमारे साथ नहीं आएंगे. हम देख रहे हैं कि सोशल मीडिया पर तमाम प्रगतिशील लोग तुमसे दूरी बना रहे हैं. स्टेटमेंट तक निकाल रहे हैं और वो इस बात से ज़्यादा आहत हुए हैं कि तुमने अपनी आहात भावनाओं का इज़हार कर क्यों दिया? क्या ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ नहीं हो सकते थे तुम? ऐसे पॉलिटिकली करेक्ट होने वाले लोग तुम्हारे साथ तब तक हैं जब तक तुम उनकी तरह नाप-तौल कर कदम रखते रहोगे. जिस दिन एक इंच भी नाप बिगड़ा वो तुमसे चालीस किलोमीटर दूर खड़े दिखलाई देंगे."
मुनव्वर को अदालत की इन तजबीजों से सुकून तो मिल रहा था पर एक बेचैनी उन्हें खाये जा रही थी- आखिर एक लम्हे और वो भी गलत ढंग से पेश किए लम्हे से मेरे ज़िंदगी भर के अदब को कैसे खारिज किया जा सकता है?
बिलकुल यही हालत एक दूसरी अदालत में पेशी पर आए सज़ायाफ्ता कैदियों की है जिनमें मानिंद पत्रकार, लेखक, कवि, प्रोफेसर, कलाकार, वकील और सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं. यहां लोकतंत्र से मुड़े मामलों के मुक़द्दमे चल रहे हैं. इनमें मुजरिम ठहराए गए वे लोग आज हाजिर हैं जो महाराष्ट्र, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और अन्य तमाम प्रदेशों की जेलों में बंद हैं. इन्हें वाकई हथकड़ी लगाकर लाया गया है. मुनव्वर की ही तरह ये भी अपने बचाव में कुछ खास नहीं कह पाते. अदालत चूंकि दण्ड देने के लिए नहीं है और वह काफी रहमदिल भी है, तो इन्हें तसल्ली देती है और कहती है कि हम सब कुछ देख रहे हैं.
"तुम सब हमारी रक्षा के लिए अपना जीवन दे रहे हो. अभी तो हालात ऐसे हैं कि मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती लेकिन दिन बदलेंगे. जिस रोज़ तालाबों के कमल कुम्हला जाएंगे, केसरिया और हरे रंग ठीक उसी तरह हो जाएंगे जैसे वो देश के तिरंगे में सजते हैं, तब तुम भी बाहर आ जाओगे. अभी तो मेरी अदालत से तुम्हें यह भी राहत नहीं मिलेगी कि तुम्हें बीमारी में दवा भी देने का आदेश दे सकूं." दवा और इलाज के बगैर यहां के मुजरिमों में शामिल एक प्रोफेसर और एक कवि अपनी आखिरी सांसें गिन रहे हैं.
कुछ और अदालतों में न केवल राहत मिलती है, बल्कि शोहरत भी बख्शी जाती है. ये धर्म की, मज़हब की अदालते हैं. मसलन, धर्म की एक अदालत में शंभुलाल रैगर हाजिर हुआ है. वो बता रहा है कि उसने एक गरीब बंगाली मुसलमान को ज़िंदा जला दिया था. जब वह जल रहा था तब उसकी पीठ में छुरे भी चलाये थे. इस कृत्य को सही साबित करने के लिए वह उस वीडियो की एक प्रति भी धर्म की अदालत में जमा करवाता है, जो उसने एक नाबालिग बच्चे को कैमरा देकर बनवाया था. अदालत यह कहते हुए, कि ऐसे तो उसने जो कृत्य किया है उसे धर्म की अदालत में कड़ी सज़ा मिलना चाहिए लेकिन यदि वह मानता है कि निर्दोष मुसलमान को बर्बरर तरीके से मारकर उसने अपने धर्म की इज्ज़त अफजाई की है तो इस मान्यता के आलोक में और न्यू इंडिया में एक सहिष्णु धर्म की संशोधित आचार संहिता के अनुसार उसका यह कृत्य शाबाशी दिये जाने योग्य है. कानून की अदालत में कम-ज़्यादा सज़ा पूरी कर लो, फिर पार्टी तुम्हारा कल्याण करेगी. यह कहकर अदालत उसे पापमुक्त करती है.
उधर दीन और मजहब की एक अदालत में अंततराष्ट्रीय मुकदमा चल रहा है. वहां फ्रांस के एक विद्यार्थी की पेशी हो रही है. वो अपनी शेख़ी में बताता है कि इस्लाम और मुहम्मद साहेब के अपमान का बदला उसने अपने शिक्षक का गला काटकर लिया है. इसके लिए वह भी रैगर की तरह कुछ तस्वीरें और अखबार की कतरनें दिखाता है. यह अदालत उसकी सराहना में दो शब्द बोलती है.
इस बीच सोचते-सोचते मुनव्वर का चेहरा थोड़ा सख्त हो चुका है. वे निराशा भरे लहजे में अदालत को बताते हैं कि उनकी बेटी को इसलिए सताया जा रहा है कि उसने शांतिपूर्ण तरीके से और संविधान से मिले अधिकारों के तहत विभाजनकारी नागरिकता कानून की मुखालफ़त में हो रहे जलसों में भाग लिया था. वे बोले, "हुज़ूर, जब एक कानूनी मामले में भी सज़ा ऐसी हो सकती है तो मुझे तो यह कहा जा रहा है कि मैं हिंदुस्तान के लिए खतरा बन गया हूं. सरकार, मुझे कुछ सूझ नहीं रहा है."
अदालत जैसे झल्ला जाती है. जज कहते हैं- "मुनव्वर, हमें बेवकूफ़ समझते हो क्या? असली अदालत से पहले हम यह अदालत लगाकर यहां क्यों बैठे हैं? हम जानते हैं कि जो हो रहा है उसमें तुम खुद को महफूज नहीं पाते हो. तुम्हारी बेटी को भी जिस तरह से जबरन गुनहगार बनाया और बताया जा रहा वो हम देख रहे हैं. हम यह भी जानते हैं कि तुम जिस प्रदेश में रहते हो और जहां कानून का गैरकानूनी इस्तेमाल किया जा रहा है, तुम चुप रहकर भी महफूज नहीं हो. अगर एक लम्हे से खता न भी होती तो आने वाले समय में लव-जिहाद के नये अभियान में तुम्हें लपेट लिया जाता. क्या तुम नहीं जानते हो कि प्रेम में पड़े बच्चे और युवा प्रेमपत्रों में तुम्हारी शायरी का इस्तेमाल करते हैं? लव जिहाद में इस शायरी को आरडीएक्स की तरह देखा जाने वाला है. यहां नहीं पकड़ाते तो आगे पकड़ाते. खैर… फिलहाल ये अदालत तुम्हारे साथ पूरी हमदर्दी रखते हुए तुम्हें आगे बदनामी सहने की ताक़त देती है."
एक ऐसी अदालत भी है जहां मुनव्वर की तरह बदनाम होने का मुजरिमों को कोई डर नहीं. एक अदालत जहालत की है, जहां कठघरे छोटे पड़ गए हैं क्योंकि हिंदुस्तान की एक संगठित फौज यहां हाजिर है. मुक़द्दमा पूरी फौज पर चल रहा है.
फौज का इकबालिया बयान सुनिए: "हमने मात्र कुछ ही वर्षों में अपनी जहालत में हिंदुस्तान की आज़ादी के तमाम अच्छे मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है. गांधी, नेहरू, सुभाष, अंबेडकर सबकी ऐसी तैसी की है और देश की बड़ी आबादी के दिमाग में इनके प्रति इज्ज़त खत्म कर दी है."
अदालत इस फौज को आश्वासन देती है कि जब तक तुम्हारे आकाओं की सरकार है तुम्हें कुछ नहीं होगा, बल्कि हर ऐसे इंसान को जो आज़ादी के उसूलों पर भरोसा करता है, गाली देने पर या स्याही पोतने पर या पीटने पर कुछ रुपयों का मानदेय भी बढ़ाया जा सकता है. फैसले के बाद अदालत कक्ष के भीतर से जज और भारत माता के नाम के जयकारे सुनायी दे रहे हैं.
जयकारों की आवाज़ एक और अदालत से आ रही लाउडस्पीकर की आवाज़ से टकरा रही है. यह गरीबों की मुक्ताकाश अदालत है. यहां सबसे ज़्यादा भीड़ है. इसलिए सुनवाई लाउडस्पीकर पर हो रही है. खुले में चल रही इस अदालत में न कोई न्यायाधीश है, न कोई पैरोकार. गरीबों को वकील और न्यायाधीश दिलाने का भाषण ही उस लाउडस्पीकर से चल रहा है. उसमें तमाम रिटायर्ड जज स्वेच्छा से आकर यह बोलते सुने जा रहे हैं कि इस देश में गरीबों के लिए न्यायापालिका नहीं हैं. न्याय बहुत खर्चीला शौक हो गया है. गरीब जो सब पेशी पर आए हुए हैं, वहीं बैठकर रोटी-पानी का जुगाड़ कर रहे हैं.
(साभार- जनपथ)