संपादकीय में लिखा गया है कि पुलिस के टीवी एंकर के घर में घुसने से सभी मीडिया को खतरा है, राज्य सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद होनी चाहिए.
रिपब्लिक टीवी के एडिटर इन चीफ और पत्रकार अर्नब गोस्वामी को मुंबई पुलिस ने बुधवार को गिरफ्तार कर लिया. आत्महत्या के लिए उकसाने जैसे गंभीर अपराध के तहत यह गिरफ्तारी की गई है. जिसके बाद अर्नब को शाम को कोर्ट में पेश किया गया जहां उन्हें 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया.
इस गिरफ्तारी के बाद जैसे पत्रकारों में दो फाड़ देखने को मिल रहा है तो वहीं राजनीति में भी यह पक्ष बनाम विपक्ष का मामला हो गया है. एक ओर जहां अमित शाह से लेकर तमाम केंद्रीय मंत्री और बीजेपी शासित मुख्यमंत्रियों ने घटना को आपातकाल की संज्ञा दी है. वहीं एडिटर्स गिल्ड और एनबीए ने भी पुलिस की कार्रवाई की निंदा की है.
पहले तो इस मामले को शुरुआती तौर पर टीवी मीडिया ने नहीं दिखाया, लेकिन दोपहर के बाद अन्य टीवी मीडिया ने भी खानापूर्ति के लिए खबर को चलाया. वहीं गुरुवार को सभी हिंदी और अंग्रेजी अखबारों ने इस खबर को प्रमुखता से स्थान दिया है.
इस मामले पर इंडियन एक्सप्रेस ने भी संपादकीय लिखा गया है. इस एडिटोरियल में पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठाया गया है साथ ही सरकार और पुलिस से सवाल भी किया गया है. वहीं अर्नब गोस्वामी की पत्रकारिता और उनके राजनीतिक फायदे पर भी सवाल किया गया है.
अखबार में ‘रिपब्लिक ऑफ पुलिस’ नाम से लिखे इस एडिटोरियल में लिखा गया है कि “महाराष्ट्र पुलिस द्वारा टीवी एंकर के घर में घुसने से सभी मीडिया को खतरा है, राज्य सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद होनी चाहिए.”
आत्महत्या के मामले में पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया जाना तो एक दिखावा है असल में यह बीजेपी और शिवसेना समर्थित महा अघाड़ी सरकार के बीच का मसला है. पुलिस ने अर्नब को उस मामले में गिरफ्तार किया है जिस मामले में पुलिस ने सबूत ना होने का दावा कर क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी थी. उस समय बीजेपी सत्ता में थी.
प्रवासी मजदूर, पालघर, सुशांत सिंह राजपूत मामला और मुंबई पुलिस कमिश्नर समेत कई मुद्दों की मदद से अर्नब महाराष्ट्र सरकार पर निशाना साध रहे हैं लेकिन इस दौरान वह बीजेपी पर नरम दिख रहे हैं.
लेख में आगे लिखा गया हैं कि, “भले ही हम अर्नब की पत्रकारिता से सहमत ना हो लेकिन सवाल उठता है पुलिस को 2018 के इस मामले में ऐसा कौन सा सबूत मिल गया था कि उन्हें इस तरह जल्दबाजी में गिरफ्तारी करनी पड़ी? कैमरे के सामने यह इतना बवाल किया गया क्या इस मामले में समन देने से काम नहीं हो सकता था?”
टीआरपी केस में जिस तरह से पुलिस द्वारा रिपब्लिक टीवी के पत्रकारों को समन कर पूछताछ करना दिखाता है कि यह कार्रवाई राजनीति से प्रेरित है. वहीं गृहमंत्री से लेकर अन्य मंत्रियों के आपातकाल वाले ट्वीट भी दिखाते हैं कि यह मामला राजनीतिक हो चुका है. इस तरह के बयान उस समय नहीं दिखते, जब बीजेपी शासित राज्यों में पत्रकारों को यूएपीए के तहत जेल में डाला जाता है या उन्हें प्रताड़ित किया जाता है. हालांकि लोकतांत्रिक आदर्शों की रक्षा के लिए इस तरह के बयान देखकर खुशी होती है.
इस पूरे मामले में शिवसेना समर्थित महाराष्ट्र सरकार की इमेज खराब हो रही है. एक ऐसे समय में जब असहमति की जगह कम हो रही हैं और बोलने की स्वतंत्रता को और सुरक्षा की जरूरत है ऐसे में एक महत्वपूर्ण विपक्षी शासित राज्य की सरकार के पास खुद को प्रोजेक्ट करने का अवसर था कि राज्य में अभिव्यक्ति की आजादी है और सरकार प्रतिशोध के साथ काम नहीं करती.
जिस तरह से सुशांत सिंह मामले में सोशल मीडिया ट्रोल के खिलाफ एफआईआर दर्ज किया गया है और चार लोगों को गिरफ्तार किया गया है उससे लोगों के विचारों का स्थान खत्म हो जाएगा, जहां स्वतंत्र पत्रकारिता पनपती है.
यह चिंता की बात है ना सिर्फ पत्रकारों के लिए बल्कि उन सभी नागरिकों को, जो मीडिया में बिना किसी का पक्ष लिए सूचना देते है. जो कमजोरों के लिए बोलते हैं और जिसकी आवाज कोई नहीं बन सकता उनकी आवाज बन कर सामने आते हैं.
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