कोरोना की मार से नहीं उबर पा रहा हस्तकला का व्यापार, दिन-रात काम करने वाले बैठे हैं खाली

इस कॉलोनी की हस्तकला का कितना महत्व है इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि यहां के कई कुम्हारों को उनकी कला के लिए राष्ट्रपति से अवॉर्ड भी मिल चुका है.

Article image

पश्चिमी दिल्ली में उत्तम नगर के पास स्थित है कुम्हार कॉलोनी. जिसकी देश ही नहीं दुनियाभर में चर्चा होती है. इसकी वजह है इस कॉलोनी के 20 से ज्यादा कुम्हार अपनी हस्तकला के लिए राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित हो चुके हैं. लेकिन कोरोनाकाल में हुए देशव्यापी लॉकडाउन से इन कुम्हारों पर भी काफी प्रभाव पड़ा है. जिसमें दिवाली और दशहरा पर भी सुधार नजर नहीं आ रहा है, जो इस काम वालों के लिए सीजन का समय है.

इस कॉलोनी में कुम्हारों के 400 से ज्यादा परिवार रहते हैं. इसमें अधिकांश राजस्थान से हैं और कुछ हरियाणा से आकर बसे थे. जो यहां पर पहले परंपरागत और अब आधुनिक दोनों तरह के बर्तन बनाते हैं. यहां निर्मित बर्तनों की मांग जितनी देश में है, उतनी विदेशों में भी है. यहां के मिट्टी के बने सामान दुनिया भर में भेजे जाते हैं. इन्हें बनाने के लिए अलग से चिकनी मिट्टी उपयोग में लाई जाती है जो हरियाणा और राजस्थान से आती है.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute
imageby :

कॉलोनी में घुसते ही सड़कों के दोनों तरफ़ सूखी मिट्टी के ढेर लगे दिखाई देते हैं. व्यस्ततम समय में, कुम्हारों के चाक और दरवाज़ों के पीछे से बर्तन थापने की आवाज भी सुनाई देती है. यहां आपको हाथ से बने सैकड़ों बर्तन, दीये, मूर्तियां और अन्य सामान आंगन में और छाए में सूखे नजर आ जाएंगे. फिर इन्हें यहां से घरों की छतों पर बनाई गई पारंपरिक भट्टी में पकाने से पहले, गेरू से रंगने के लिए ले जाया जाता है. घर के बाहर, तैयार वस्तुओं में से कई आगंतुकों और विक्रेताओं के ख़रीदने के लिए भी रखी हुई मिल जाती हैं. उत्तम नगर में कुम्हारों के परिवार की महिलाएं आमतौर पर मिट्टी और मिट्टी की लोई, सांचे और दीया बनाती हैं, मिट्टी के बर्तनों को रंगती और उन पर नक्काशी करती हैं.

कोरोना में हुए लॉकडाउन ने इन कुम्हारों के धंधे पर हुए नुकसान को जानने के लिए हमने इस कॉलोनी का दौरा किया और इस काम से जुड़े लोगों से बात की. 40 साल के मोहन प्रजापति का मिट्टी के सामान बनाने का पुश्तैनी काम है. इससे पहले इनके पिताजी श्रीरामदयाल भी इसी काम को करते थे. वह अपने घर में ही मिट्टी के सामान बनाते हैं और घर से ही दिल्ली सहित पूरे देश में सप्लाई करते हैं. जब हम यहां पहुंचे तो मोहन एक दूसरे कारीगर के साथ मिट्टी को मशीन में डालकर उसकी अंतिम चरण की प्रक्रिया (पतली और मुलायम) में लगे थे.

imageby :

इसके बाद ही मिट्टी सामान के बनने योग्य हो पाती है. घर के बाहर उनकी पत्नी सरोज, मिट्टी के ढेलों को डंडे से कूटकर पतला करने में जुटी हुई थीं. मोहन ने बताया, “जब से होश संभाला है तब से इसी काम में लगे हैं. लॉकडाउन के बाद काम में 40 प्रतिशत की कमी तो है. इस कोरोना के कारण दीपावली पर दियों के ऑर्डर भी कम आए हैं. माल रखा हुआ है लेकिन लोग उठा नहीं रहे हैं. जितनी उम्मीद थी उस तरह नहीं चल रहा.”

मोहन के यहां काम करने वाले दयाराम प्रजापति से जब हमने बात की तो वह सरकार की उपेक्षा से काफी नाराज नजर आए. चाक पर स्टैंड बनाते हुए दयाराम ने बताया, “दादा भी यही काम करते थे और हम भी बचपन से यही कर रहे हैं. लेकिन कोई बदलाव नहीं आया है. सरकार ने हमारी कोई मदद नहीं की. न तो कोई मार्किट दी और न ही कोई सब्सिडी जैसी सुविधा. जबकि ये काम तो सदियों पुराना है पहला बिजनेसमैन और पहला व्यापारी कुम्हार ही था. सरकार ने हमारे लिए कुछ नहीं किया. अगर सरकार मदद करे तो हमारे काम में बहुत कुछ हो सकता है.”

यहीं हमारी मुलाकात 45 वर्षीय ओमकार प्रजापति से हुई. मूल रूप से बिहार के रहने वाले ओमकार एक मूर्ति को अंतिम रूप देकर उसकी फिनिशिंग कर रहे थे. लगभग 20 साल से यह काम कर रहे ओमकार मोहन के यहां मजदूरी करते हैं.

imageby :

उन्होंने बताया कि लॉकडाउन के कारण हालत खराब रहे. काम बंद हो गया था तो वापस बिहार चले गए थे, अभी कुछ दिन पहले वापस आए हैं. मजदूरी भी नहीं मिल पाई थी. ओमकार ने उम्मीद जताई की दिवाली पर काम चलेगा. मोहन के पड़ोस में ही 60 साल के मानसिंह प्रजापति अपने घर के दरवाजे पर पत्नी बिदामी देवी के साथ कंगूरों में लगने वाले छोटे-छोटे मिट्टी के गोले बना रहे थे. पीछे कारीगर मूर्तियो के स्टैंड पर डिजाइन काढ़ रहा था. काफी संख्या में पीछे मिट्टी के तैयार सामान बने हुए थे.

मानसिंह बताते हैं, “जिंदगी गुजर गई, इसी काम में. अभी दिवाली होने के कारण काम तो चला है, लेकिन पहले जैसा नहीं है, आधा मानो. वैसे अब चल रहा है, मेले भी नहीं खुले अभी. बाकि एक समस्या ये है कि नगरपालिका वाले आकर मना करते हैं कि भट्टी बंद करो, प्रदूषण होता है. तो हम यही कहेंगे कि सरकार बस हमारा काम चुपचाप चलने दे. वर्ना सब्सिडी के साथ गैस भट्टी मुहैयै कराए.”

imageby :

“ऐं भैया, यू बताओ! सरकार कह री है कि इन्हें बंद करो. अगर हम ये काम ना करेंगे तो खाएंगे क्या. हमारी कोई नौकरी तो है नहीं, “सरकार से बेहद नाराज दिख रहीं मानसिंह की पत्नी बिदामी देवी ने कहा. मानसिंह के दो बेटे भी इसी काम में हाथ बंटाते हैं. उनके एक बेटे मुकेश को एक सुराही के कारण मेरिट अवॉर्ड भी मिल चुका है.

पूरी कॉलोनी में जहां भी नजर जाती है घर के बाहर अधिकतर महिलाएं मिट्टी को नॉर्मल करने में लगी नजर आ रही थीं. जबकि घर के अंदर पुरुष चाक पर सामान बनाते दिखे. यानी एक बात यहां कॉमन थी कि इस काम में घर के सभी लोग किसी न किसी रूप में शामिल थे. 40 साल के दिनेश कुमार प्रजापति से जब हम उनके घर में मिले तो वह बड़े ध्यान से चाक पर काम करने में लगे हुए थे. पीछे कुछ कारीगर भी काम में व्यस्त थे.

imageby :

नौवीं तक पढ़ाई करने वाले दिनेश ने बताया, “यह हमारा पुश्तैनी काम है, मैं पांच साल की उम्र से ही ये काम कर रहा हूं. जैसे मेरा ये बेटा कर रहा है. (छठी में पढ़ने वाले बेटे दीपांश की ओर इशारा कर कहते हैं) लेकिन अब जैसी हालत है तो हमारे बच्चे ये काम नहीं करेंगे. अब इस काम की वैल्यू खत्म होती जा रही है. सरकार कोई ध्यान देती नहीं. अगर हैंडीक्राफ्ट को बचाना है तो सरकार हमारी मदद करे. मेरा हैंडीक्राफ्ट का कार्ड भी बना हुआ है लेकिन कोई फायदा नहीं मिलता.”

“काम न तो ज्यादा तेज है और न ही मंदा. लेकिन पिछले दिनों के मुकाबले 50 प्रतिशत कम है. पहले यहां 12 लोग काम करते थे अब सात हैं. जो ग्राहक एक बार माल ले गया वह दोबारा नहीं आ रहा. बाकि अभी तो मालिक इस बीमारी से बचा ले तो वही काफी है,” दिनेश ने कहा.

इस कॉलोनी की हस्तकला का कितना महत्व है इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि यहां के कई कुम्हारों को उनकी कला के लिए राष्ट्रपति से अवॉर्ड भी मिल चुका है. 27 साल के नरेंद्र प्रजापति भी उन्हीं में से एक हैं जो खुद 3 इन 1 पॉट के लिए एक स्टेट अवॉर्ड जीत चुके हैं. और इनके पिताजी लच्छीराम को (एक फुट ऊंचे कलश के लिए) उनकी इस हस्तकला के लिए प्रतिभा पाटिल से राष्ट्रपति अवॉर्ड मिल चुका है.

imageby :

नरेंद्र से हमारी मुलाकात उनके घर पर हुई जहां वे अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथ मिले. परिवार की कुछ महिलाएं मिट्टी के सामानों पर रंग और डिजाइन में बिजी थीं. नरेंद्र बताते हैं, “मेरे दादा 1983 में राजस्थान से दिल्ली आए थे. पहले वह मटके बनाते थे लेकिन अब समय के साथ और मॉर्डन चीजें भी हम बनाते हैं, जो छोटी से लेकर 15 फुट तक होते हैं. हमारे मिट्टी से बने सामान देश-विदेश में जाते हैं. मेरे दादा, पिता, चाचा आदि सब इसी काम को करते हैं. मेरे पिताजी और चाचा जी को इस कला के लिए राष्ट्रपति अवॉर्ड भी मिल चुका है.”

नरेंद्र आगे कहते हैं, “सरकार ने हमारे ऊपर ध्यान नहीं दिया. बस हम जहां पड़े हैं वहीं पड़े रहने दिया. और जो अवॉर्ड मिले हैं उनकी भी पहले तो वैल्यू थी जैसे कहीं हैंडीक्राफ्ट वर्कशॉप वगैरह में, लेकिन छह साल से वह भी खत्म हो गई. यहां 400 से ज्यादा परिवार हैं किसी को न तो आज तक कोई सब्सिडी मिली और न ही कोई लोन आदि. इंदिरा गांधी ने कभी बिजली पानी माफ किया था, उसका फायदा भी हमें नहीं मिल पाया. वर्ना अगर सरकार इस कला पर थोड़ा ध्यान दे तो इसे हम बहुत ऊंचाइयों पर ले जा सकते हैं.” “बाकि कोरोना से 50 प्रतिशत मार्किट तो डाउन हो ही गया है. करवा चौथ के पास कुछ तेजी आने की उम्मीद है, वह भी रिसेलर के पास,” नरेंद्र ने कहा.

हम इस गली से निकलकर अगली गली की ओर जाने को बढ़े तो बीच में दीपक प्रजापति घर के बाहर मिट्टी को छलने में छानकर अलग करते नजर आए. पास ही उनकी मम्मी गीता देवी घूंघट करे, डंडे से मिट्टी को पतला कर रही थीं. दिल्ली यूनिवर्सिटी में ओपन से बीए की पढ़ाई कर रहे दीपक खाली समय में इस पुश्तैनी काम में हाथ बंटाते हैं. हालांकि दीपक आगे इस काम को नहीं करना चाहते. उनका सपना आर्मी में जाकर देश सेवा करने का है. और वे इसकी तैयारी भी कर रहे हैं.

imageby :

दीपक ने बताया कि वे मिट्टी के सामान बनाकर पूरे देश में सप्लाई करते हैं. लॉकडाउन के कारण काम में फर्क तो पड़ा ही साथ ही हरियाणा और राजस्थान से जो मिट्टी आती है वह भी मंहगी हो गई है. और दूसरे नगरपालिका वाले भट्टी को रात में चलाने के लिए भी कहते हैं. यहां से निकलकर हम कुम्हार कॉलोनी के दूसरे छोर पर पहुंचे. बीच में काफी मिट्टी के दिए, करवे आदि की दुकान थीं. जिन पर कुछ लोग खरीदारी करने आए हुए थे. हालांकि उस तरह की भीड़ नहीं थी जैसी दशहरे, दिवाली के मौके पर रहती है.

यहां किशोरी लाल प्रजापति से हमारी मुलाकात हुई. 70 साल के किशोरी लाल 1977 में राजस्थान के अलवर से यहां आकर बसे थे. और तभी से अपने छह बेटों के साथ इस काम में लगे हुए हैं. किशोरीलाल ने बताया, “कोरोना में चार महीने तो बिल्कुल बैठे रहे थे. 70 के दशक से इस काम को कर रहा हूं. आज तक इतना मंदा नहीं है, जितना इस बार है. कोई लेने वाला ही नहीं है, बनाकर क्या करें. इस बार तो बच्चों को खाना मिल जाए वही बहुत है. दिवाली-दशहरा पर तो हमें बिल्कुल भी टाइम नहीं मिलता था, रात में भी काम करते थे और अब तो दिन में भी बैठे रहते हैं. हमारा माल मंदा, बाकि सब मंहगा. जो माल 10 रूपए में बिकता था उसे अब सात में बेच रहे हैं क्या खाएं कुम्हार!”

सरकार से किसी सहायता के सवाल पर किशोरीलाल ने कहा, “सरकार के कान पर कोई जूं रेंग नहीं रही, सोच ही नहीं रही. हां, जब वोट आएगा तब सोचेगी. अभी कोई सहायता नहीं, भट्टी बंद करने को और कहते हैं. बस लग रहा है कि आगे हमारा धंधा खत्म ही होगा. अगर हिसाब करें तो इस बार तो घाटा ही घाटा है. इन दो महीनों में हम अगले 4-6 महीने तक की रोटी निकाल लेते थे, लेकिन इस बार वह भी नहीं होगा.” कोरोना लॉकडाउन से छोटे-बड़े सभी कुम्हार प्रभावित हुए हैं. कुछ लोग दिवाली-दशहरा के सीजन में दीए और अन्य सामान खरीदकर बेचने का काम कर लेते हैं.

imageby :

ऐसे ही सड़क के किनारे दिए और अन्य सामान बेच रहे अभिषेक प्रजापति ने हमें बताया कि इस बार कोरोना की वजह से काम काफी ढ़ीला है. बहुत कम माल ही बिक पाएगा, 50 प्रतिशत ही काम है. वहीं परचून की दुकान पर सीजन में दीए और दिवाली के सामान रख बेचने वाले राहुल ने बताया, “पहले यहां आपको खड़े होने को जगह नहीं मिलती. कोरोना से लोगों के पास पैसे की भी तंगी है न तो इस बार 50 प्रतिशत ही काम है.”

कुम्हार कॉलोनी के प्रधान हरिकिशन प्रजापति भी 1976 से इस काम को कर रहे हैं. उनको 1990 में नेशनल और 2012 में शिल्पगुरू अवॉर्ड मिल चुका है. उनके मुताबिक मार्किट में फिलहाल 25 प्रतिशत काम है. नगरपालिका की कुम्हारों की शिकायत पर हरिकिशन ने बताया, “यहीं पास में बिंदापुर ग्राम समिति ने एनजीटी में एक झूठी शिकायत कर दी थी कि ये लोग भट्टी में टायर, प्लास्टिक जलाते हैं. जबकि हम तो लकड़ी का बुरादा जलाते हैं. जिसे एनजीटी ने सुप्रीम कोर्ट में भेज दिया. अब हमने कोर्ट में कहा कि हमें गैस की भट्टियां सब्सिडी पर दी जाएं. सुप्रीम कोर्ट ने एनजीटी, केंद्र और राज्य सरकार को तलब किया है कि अगर ये भट्टी बंद करें तो आप इन को क्या विकल्प उपलब्ध कराएंगे. और बाकि कोरोना की वजह से सुनवाई रुक गई थी तो मामला अटका हुआ है.”

imageby :

हरिकिशन ने बताया कि वे तो अब काम कम ही करते हैं. उनकी बेटी और पत्नी उनका इस काम में सहयोग करती हैं और उनकी पत्नी रामरती को टेराकोटा के बर्तन बनाने की दक्षता साबित करने पर मिनिस्ट्री ऑफ टेक्सटाइल की तरफ से नेशनल अवॉर्ड भी मिल चुका है. जब हम उनसे बात कर रहे थे तो उनकी दो बेटियां सपना और नीतू मिट्टी के छोटे सामानों पर सजावट कर रही थीं. दिल्ली यूनिवर्सिटी से फाइन आर्ट में एमए कर रहीं नीतू ने बताया, “मैं अपनी पढ़ाई के साथ पापा की इस काम में मदद भी करती हूं. क्योंकि मुझे इसमें बहुत दिलचस्पी है.”

नीतू ने बताया कि अभी काम हल्का है, करवाचौथ पर बढ़ने की उम्मीद है. लॉकडाउन और कोरोना में तो लोग डर से भी नहीं खरीद रहे हैं. लगभग चार घंटे तक रहने के दौरान, दिल्ली की इस कुम्हार कॉलोनी में काम करने वाले अधिकतर लोगों ने हमसे यही कहा कि सरकार ने शुरू से अभी तक उनकी उपेक्षा की है. अगर सरकार उन पर कुछ ध्यान देती तो आज वे इस हस्तकला को देश-विदेश में अलग मुकाम पर पहुंचा देते.

Also see
article image‘कोरोना’ के बाउंसर से घायल हुई मेरठ की स्पोर्ट्स इंडस्ट्री
article imageकोरोना वायरस और लॉकडाउन: बैंड-बाजा-बारात की बज गई बैंड
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like