आजकल जो कन्हैया कुमार तमाम सत्ता-विरोधी प्रतिष्ठानों की आंखों के तारे हैं, वह भाकपा के ही नेता हैं जो नेता बनने से काफी पहले लालू प्रसाद यादव के पैर छू आये थे.
कल एक प्रेस कांफ्रेस हुई. महागठबंधन की. उसी में मार हो गयी. ‘सन ऑफ मल्लाह’ मुकेश सहनी ने तेजस्वी यादव पर पीठ में छुरा मारने का आरोप मंच से ही लगाते हुए अलग होने की घोषणा कर दी. एक विडंबना उससे भी पहले घट चुकी थी. मंच पर भाकपा-माले के दीपांकर भट्टाचार्य भी थे. उन्हीं लालू प्रसाद के सुपुत्र तेजस्वी यादव के साथ, जिनकी पार्टी के ही कुख्यात शहाबुद्दीन पर कॉमरेड चंदू की हत्या का आरोप है.
उससे भी पहले तेजस्वी ने एक नया बिहार बनाने की बात करते हुए गठबंधन के सहयोगियों की सीटों का जब जिक्र किया, तो सबसे पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सीटों को गिनवाया. कॉमरेड चंद्रशेखर इन दोनों ही वामपंथी पार्टियों के छात्र संगठनों से जुड़े रहे थे.
आजकल जो कन्हैया कुमार तमाम सत्ता-विरोधी प्रतिष्ठानों की आंखों के तारे हैं, वह भाकपा के ही नेता हैं जो नेता बनने से काफी पहले लालू प्रसाद यादव के पैर छू आये थे. विडंबना तभी गश खा चुकी थी, तीन अक्टूबर 2020 को उसका मुज़ाहिरा होना बस बाकी था.
बिहार है कि मानता नहीं. परदा फिर उठा और आज मुकेश सहनी ने दोपहर में प्रेस कांफ्रेंस करते हुए तेजस्वी पर भितरघात, वादाखिलाफी और न जाने क्या-क्या के आरोप लगाते हुए यह खुलासा (?) किया कि राजद के राजकुमार का डीएनए भी खराब है और असल में डील तो 25 सीटों और उपमुख्यमंत्री पर हुई थी.
इधर सदाबहार सियासी मौसम वैज्ञानिक रामविलास पासवान बीमार होकर अस्पताल में हैं, तो उनके सुपुत्र ने शाम का चिराग जलते-जलते नीतीश कुमार के आंगन में थोड़ा सा अंधेरा कर दिया. चिराग पासवान ने जेडीयू के खिलाफ हल्ला बोल 143 सीटों पर लड़ने का ऐलान कर दिया. यह ख़बर वैसे तो फिज़ाओं में परसों से ही तैर रही थी कि चिराग अपनी अलग राह पर जलेंगे.
अंदरखाने की ख़बर यह है कि इस बार सुशासन बाबू को पूरी तरह निपटा देने की योजना बन चुकी है. इसीलिए एक तरफ तो चिराग पासवान को भड़का कर अलग कर दिया गया, दूसरी तरफ वीआइपी के मुकेश सहनी से गठबंधन के मंच पर ही नाटक करवा दिया गया, ताकि अगले दिन के अखबारों में सुर्खियां वही बनें. अगर यह नहीं जाता, तो सुर्खियां बनतीं कि “गठबंधन पक्का हुआ, 10 लाख नौकरियां देंगे पहले हस्ताक्षर से तेजस्वी”!
महागठबंधन की मुश्किलें थमती नहीं दिखती हैं. पप्पू यादव और भीम आर्मी के चंद्रशेखर रावण ने प्रकाश आंबेडकर की बहुजन आगाड़ी के साथ एक गठबंधन बनाया है, तो रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा ने बिहार में बसपा के साथ जुगाड़ भिड़ाया है. कहा जा रहा है कि इस सबके पीछे भी चाणक्य का ही दिमाग है.
खबरें लेकिन ये नहीं हैं. परदे के पीछे का सच यह है कि बिहार में भाजपा अकेले ही चुनाव लड़ रही है और वह भी खुद ही से. चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध नेता इस बार सामने से नहीं, यवनिका के पीछे से सूत्र-संचालन कर रहे हैं.
पहली दिक्कत तो यही है कि भाजपा के कंप्यूटरीकृत, कॉरपोरेटीकृत स्टाइल और पुराने परंपरागत प्रचारकों के बीच कील फंस गयी है. दूसरी बात, ऊंचे दर्जे की पॉलिटिक्स भाजपा के समर्थकों को समझ नहीं आ रही. उनकी शिकायत यह है कि नीतीश कुमार के सामने झुकने, बल्कि लेट जाने की इतनी जरूरत क्या है? इस बार भी बराबरी के बंटवारे से समर्थकों में आक्रोश है. इनका मानना है कि नीतीश और छोटे मोदी की जोड़ी का अब जाना जरूरी है.
संघ के पुराने जानकार बताते हैं कि योजना भी वही है. अंदरखाने चाणक्य ने चिराग को आशीर्वाद दिया है. अगर थोड़ी बहुत सीटें भी चिराग ने ले लीं, तो उसे डिप्टी सीएम बनाकर भाजपा के मुख्यमंत्री की ताजपोशी करायी जाएगी. यही वजह है कि चिराग ने भी पीएम की बढ़ाई की है, लेकिन सीएम के खिलाफ बगावत कर डाली है.
मुश्किल चाचा नीतीश की है कि जाएं तो जाएं कहां. अकेले लड़कर तो उनकी औकात भी मांझी और मुकेश सहनी की ही है. आरजेडी के साथ अभी तक वह हुए नहीं और अब कोई मौका भी नहीं है.
भाजपा मुख्यालय के भीतर बैठने वाले एक पुराने नेता बताते हैं, "देखिए, ये सफेद दाढ़ी और काली दाढ़ी की जो युति है न, बड़ी मारक है. सफेद दाढ़ी वाला भले माफ भी कर दे, लेकिन काली दाढ़ी वाला तो काल है. वह छोड़ता नहीं. नीतीश बाबू को आत्मा की पुकार पर वह भोज छोड़ना महंगा पड़ेगा."
(साभार जनपथ)