उत्तर प्रदेश में फिल्मसिटी: एक अदद शुद्ध संस्कारी फिल्म इंडस्ट्री की खोज

मकसद भारतीय संस्कृति, सभ्यता की भाजपाई अवधारणा वाली फिल्मों और फिल्मकार खोजना है, लेकिन इतने बंधन में ‘प्रतिभा’ और ‘रचनात्मकता’ अपने आप गौण हो जाती है.

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लखनऊ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मंगलवार, 22 सितम्बर को ‘फिल्म जगत के महानुभावों के साथ वार्ता’ की. उत्तर प्रदेश में एंटरटेनमेंट जोन बनाने की योजना के तहत महत्वाकांक्षी फिल्मसिटी के निर्माण की घोषणा की गई. उन्होंने भारतीय फिल्मों के बारे में अपने विचार रखे और उत्तर प्रदेश की क्षमताएं गिनाई. गौर करें तो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री से नाखुश और असंतुष्ट सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी का यह पहला सीधा आधिकारिक संबोधन था.

योगी आदित्यनाथ ने स्पष्ट संकेत दिया है. उन्होंने अपनी पीड़ा इन शब्दों जाहिर की, “वास्तव में हम जिस समाज में, जिस संस्कृति में और जिस देश में निवास करते हैं, उसके बारे में कितना योगदान दे पा रहे हैं? और उसको अपने अंतःकरण से स्वीकार करते हुए भी कि हम अपने लिए तो कर पा रहे हैं, लेकिन कहीं न कहीं कोई चूक ज़रूर हो रही है. कुछ कारणों से जो अपेक्षा इस इंडस्ट्री से है, वह कहीं ना कहीं हम मिस कर रहे हैं. एक अवसर हमें मिलेगा कि हम फिर से इसको आगे बढ़ाएंगे.”

आगे उन्होंने कहा, “अगर आपका सक्रिय सहयोग मिला तो हम देश के लिए देश की भावनाओं के अनुरूप एक नया मंच दे सकेंगे.” जरा पलटकर देखें तो हर सत्ता फिल्मों के व्यापक प्रसार और प्रभाव का राजनीतिक हित में इस्तेमाल करती रही है. जवाहरलाल नेहरू के समय से इसकी शुरुआत होती है. फिल्म बिरादरी के सदस्यों से उनका मेलजोल था. आजादी के बाद के भारत के नवनिर्माण में नेहरू की सोच और सपनों को हिंदी फिल्मों ने बखूबी चित्रित किया. हिंदी सिनेमा में हम इस दौर को नेहरू युग के नाम से जानते हैं.

फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता, अभिनेत्रियों, निर्माता-निर्देशकों से नेहरू का सीधा संपर्क था. नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री की प्रेरणा से मनोज कुमार ने ‘उपकार’ का निर्माण और निर्देशन किया. ‘उपकार’ के बाद उनकी हर फिल्म में राष्ट्रहित, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रगौरव का अभिमान और गुणगान व्यक्त हुआ. स्थिति यह बनी कि मनोज कुमार को लोग भारत कुमार कहने लगे थे.

इंदिरा गांधी के काल में आपातकाल लागू होने के पहले तक सरकार का फिल्म बिरादरी से दोस्ताना संबंध रहा. एमएस सथ्यु की फिल्म ‘गर्म हवा’ को जब सेंसर ने प्रदर्शन से रोक दिया था तब इंदिरा गांधी के हस्तक्षेप से वह फिल्म रिलीज हो पाई थी.

आपातकाल के दौर में पहली बार फिल्म इंडस्ट्री के भीतर से सत्ता के खिलाफ छिटपुट विरोधी स्वर उठे. फिल्म बिरादरी के कुछ सदस्य और सरकार के प्रतिनिधि आमने-सामने भी हुए. अनेक कलाकारों और निर्देशकों ने सरकार की निरंकुश और जनविरोधी नीतियों का विरोध किया. तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल और फिल्म इंडस्ट्री के प्रतिनिधियों के बीच के विवाद और निर्णयों के बारे में राजनीति और फिल्मों के जानकार जानते हैं.

जनता पार्टी के गठन के समय फिल्मी हस्तियों ने आगे बढ़कर हिस्सा लिया. शत्रुघ्न सिन्हा और देव आनंद की सक्रियता से सभी वाकिफ हैं. बाद की सरकारों और राजनीतिक पार्टियों का फिल्म बिरादरी से मिलना- जुलना जारी रहा. विचार और राजनीति से परे यह संपर्क बना रहा. भारतीय जनता पार्टी ने तो ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ धारावाहिकों के कलाकारों को चुनाव के टिकट ही थमा दिए, उनकी राजनीतिक दक्षता या राजनीतिक अनुभव की परीक्षा लिए बिना ही. जाहिरन बीजेपी का मकसद उनकी लोकप्रियता को भुनाना था. समय-समय पर हर राजनीतिक पार्टी फिल्म बिरादरी के सदस्यों को राज्यसभा के लिए भी चुनती रही. सुनील दत्त, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, विनोद खन्ना,

शत्रुघ्न सिन्हा, राज बब्बर और महानायक अमिताभ बच्चन विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के मंच से सक्रिय राजनीति में रहे. 2013-14 में भाजपा के उभार और देशव्यापी समर्थन के आरंभिक दौर में फिल्म बिरादरी से समर्थन जुटाने के प्रयास में हस्ताक्षर अभियान की तैयारियां चल रही थीं तो दो-चार गिने-चुने सदस्य ही राजी हुए थे. सत्ता में भाजपा के काबिज होने के बाद दक्षिणपंथी सोच के चंद कलाकार और फिल्मकार समर्थन में खुले तौर पर आए. सत्ता के नजदीक रहने के क्रम में कुछ ने अपना झुकाव दिखाया और लाभ उठाया.

याद होगा कि ‘मॉब लिंचिंग’ की खबरों के बाद ‘असहिष्णुता’ के मुद्दे को लेकर अनेक फिल्मी हस्तियों ने अपने पुरस्कार वापस कर दिए थे. अवार्ड वापसी अभियान ने आन्दोलन का रूप ले लिया था. अधिकांश ने दबे या मुखर स्वर से स्वीकार किया था कि देश में सहिष्णुता की परंपरा खतरे में है. आमिर खान, शाहरुख खान, नसीरुद्दीन शाह और अन्य फिल्मी हस्तियों ने अपनी चिंता और आशंका जाहिर की तो उन्हें सोशल मीडिया और सरकारी नाराजगी का शिकार होना पड़ा.

यहीं से सत्ताधारी पार्टी सचेत होने के साथ सक्रिय हुई. फिल्म बिरादरी के लोकप्रिय सदस्यों के बयानों ने तत्कालीन सरकार की छवि को देश- विदेश में धूमिल किया. यह धारणा बनी कि देश की स्थिति सामान्य नहीं है. इसी दौर में सरकार और सत्ताधारी पार्टी ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके से फिल्म इंडस्ट्री को काबू में करने का प्रयास आरम्भ किया. फिल्मी हस्तियों से संपर्क मजबूत करने की कवायद शुरू हो गई. फिल्म से संबंधित संस्थानों और समारोहों में भाजपा समर्थकों की नियुक्ति और भागीदारी सरकार बनने के साथ शुरू हो गई थी.

यों यह कोई नयी बात नहीं थी. सरकार में आई हर राजनीतिक पार्टी अपनी पसंद के व्यक्तियों को ही मौका देती है. कांग्रेस और अन्य पार्टियों के नेतृत्व की सरकारों ने भी यही किया है. फर्क इतना है कि पिछली सरकारों की पसंद और नुमाइंदगी में योग्य व्यक्तियों का चुनाव होता था. जरूरी नहीं रहता था कि वे सत्ताधारी पार्टी के घोषित समर्थक ही हों. वे राजनीतिक रूप से थोड़ा अलग विचारों के भी हो सकते थे. वर्तमान सरकार ने आरंभ से ही सभी पदों पर नियुक्तियां बदली और अयोग्य व्यक्तियों को जिम्मेदारियां सौंप दी, जिनका स्वाभाविक विरोध हुआ और आलोचना भी हुई.

पिछले साल फिल्मी कलाकारों, निर्माताओं और निर्देशकों का एक समूह प्रधानमंत्री से मिलने गया था. इस समूह में दिग्गज और लोकप्रिय हस्तियां शामिल थीं. प्रधानमंत्री ने महात्मा गांधी की 150वीं वर्षगांठ पर फिल्में बनाने का आह्वान किया. उस सम्मेलन की सामूहिक और सेल्फी तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी और ऐसा माहौल बन गया था कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लोकप्रिय चेहरे सत्ता की विरुदावली में शामिल समझ लिए गए थे.

लेकिन वहां से लौटने के बाद ज्यादातर अपने काम-धंधों में लग गए. किसी को न तो फिल्में बनाने की सुध रही न ही प्रधानमंत्री के सुझावों पर विचार करने की फुरसत. फिल्म इंडस्ट्री अपनी रफ्तार से निजी प्राथमिकताओं में मशगूल हो गई. लेकिन इस घटना के बाद कुछ समर्थक अवश्य मुखर हो गए. वे सोशल मीडिया पर एक अलग नैरेटिव गढ़ने लगे. वही इस ताजा मुहिम की पृष्ठभूमि बना.

पिछले साल ही अक्टूबर में राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय के उद्घाटन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं मुंबई आए. उन्होंने मंच से मुस्कुराते हुए पूछा था- ‘हाउ इज द जोश?’ मौजूद आमंत्रितों ने एक स्वर में कहा था- हाई. इसके बावजूद सरकार अपने विचारों और सिद्धांतों से फिल्म बिरादरी को रिझा नहीं पा रही थी. दरअसल हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की असाम्प्रदायिक और सेक्युलर छवि वर्तमान सरकार को नागवार गुजरती है. इसका ही एक नतीजा है आजकल में पेश की जा रही फिल्म इंडस्ट्री एंटी-इण्डियन, ड्रगिस्ट और मुसलिम बहुल छवि.

सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत के बाद इरादतन समाचार चैनलों और राजनीतिक हल्कों से यह आवाज उठी है कि यह आत्महत्या का नहीं, बल्कि हत्या का मामला है. मुंबई पुलिस की जांच पर शक जाहिर किया गया. मामले ने इतना तूल पकड़ा कि बिहार सरकार की अनुशंसा पर मामला सीबीआई को जांच के लिए सौंप दिया गया. फिलहाल तीन केंद्रीय जांच एजेंसियां अलग-अलग कोणों से मामले की तहकीकात कर रही है. हत्या, नेपोटिज्म, डिप्रेशन से आगे बढ़ते हुए अब इस मामले में ड्रग्स का एंगल आ चुका है. कुछ गिरफ्तारियां हुई है. कुछ और लोगों से पूछताछ हो रही है.

हवा में कुछ लोकप्रिय चेहरों के नाम तैर रहे हैं. इस बीच कंगना रनौत ने अपने बयानों से फिल्म इंडस्ट्री की कथित सच्चाई बताते हुए विवाद को अलग दिशा में मोड़ दिया है. वह अपना हित साध रही हैं और पुराना हिसाब चुकता कर लेना चाहती हैं.

इस परिप्रेक्ष्य में कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने बड़ी घोषणा कर दी कि उत्तर प्रदेश के नोएडा में फिल्म सिटी का निर्माण करेंगे. आनन-फानन में मुंबई से ‘फिल्म जगत के महानुभावों’ को आमंत्रित किया गया. दर्जनों महानुभाव पहुंचे और उन्होंने योगी आदित्यनाथ से अपने विचार शेयर किए. उनकी योजनाओं पर ख़ुशी जाहिर की और समर्थन का आश्वासन दिया.

इस वार्ता में बोलते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने फिल्म इंडस्ट्री को लेकर अपनी चिंताएं व्यक्त करते हुए अपनी मंशा जाहिर की. उनके वक्तव्य से स्पष्ट है कि भाजपा फिलहाल फिल्म इंडस्ट्री से क्या चाहती है और उन्हें किस दिशा में ले जाने की कोशिश कर रही है. इस पूरे मामले में मूल दिक्कत यह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद हिंदी फिल्मों के सक्रिय फिल्मकार ना तो उक्त बैठक में शामिल हुए और न उन्होंने कोई प्रतिक्रिया दी.

अगर भारतीय संस्कृति सभ्यता और परंपरा के भाजपाई अवधारणा की फिल्में बनानी हैं तो उसके लिए सक्षम और योग्य निर्देशकों की खोज करनी पड़ेगी. फिलहाल फिल्म इंडस्ट्री से केवल ओम राउत, विजयेन्द्र प्रसाद, विनोद बच्चन और शैलेश सिंह ही ऐसे निर्माता, निर्देशक और लेखक शामिल थे, जो फिल्मों में एक्टिव हैं. बैठक में शामिल बाकी सदस्य फिल्मों के अलग-अलग क्षेत्र के प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं, लेकिन उन्हें फिल्मकार नहीं कहा जा सकता. आमंत्रित मेहमानों की सूची कोई उम्मीद नहीं जगाती. हां, वह सरकार और पार्टी की मंशा ज़रूर जाहिर करती है और संकेत देती है कि निकट भविष्य में क्या हो सकता है?

आने वाले समय में स्थितियां तेजी से बदलेंगी. निश्चित ही फिल्म इंडस्ट्री स्तंभित है. वह चल रही जांच के नतीजों की प्रतीक्षा में है. साथ ही सरकार के रुख और रवैए पर भी उसकी नजर है, जो फिलहाल सकारात्मक नहीं दिख रहा है. जया बच्चन ने संसद में स्पष्ट इशारा किया था कि सरकार का ‘नॉन सपोर्टिव’ रवैया है और फिल्म इंडस्ट्री पर लगातार आरोप लगाए जा रहे हैं और उसे बदनाम किया जा रहा है. यक़ीनन फिल्म इंडस्ट्री निशाने पर है.

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