यात्रा वृत्तांत: चीन-भारत टकराव के संदर्भ से

चीन अपने प्रत्येक पड़ोसी के खिलाफ घृणा और विद्वेष लेकर खड़ा हुआ है. उसका ख्याल है, सब ने उसे प्रताड़ित किया है, सबसे उसे प्रवंचना मिली है.

Article image
  • Share this article on whatsapp

किताब के बारे में –

बांग्ला के सुख्यात यायावर-कथाकार प्रबोध कुमार सान्याल ने अपनी उत्तर हिमालय-यात्रा का रोमांचक और कलात्मक विवरण प्रस्तुत किया है.लेखक सामान्य-सी दिखने वाली बात को भी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखता है और तब उसके अर्थ या महत्व बदल जाते हैं. जैसे कि भारत का चीन और नेपाल के साथ अभी जो सम्बन्ध है,ऐसी परिस्थिति आ सकने की सम्भावना प्रबोध कुमार सान्याल 1965 से पहले देख चुके थे. इस किताब में वह सब विस्तार से पढ़ने को मिलेगा. प्रस्तुत अंश में लेखक लेह की भौगोलिक परिस्थितियां तथा चीनी सैनिकों के आक्रमण की तफ्सील है.

पुस्तक अंश:

1940 तक लेह व्यापार का बहुत बड़ा केन्द्र था. उस समय तक सीमा-विवाद नहीं शुरू हुआ था. यारकन्दी और तिब्बतियों के अलावा लेह के बाजार में दार्द, नागरी, हून, चानथानी आदि भी आते थे. और इधर कश्मीरी, पंजाबी, डोगरा, लद्दाखी- सभी रहते. नामदा, चरस, पशमीना और पशम की खरीद-बिक्री की होड़ मच जाती थी. कश्मीर में सदा से ही पशम कम होता है. लेह के शहर-बाजार में पशमीना- भेड़ा, बकरी, गधा, घोड़ा आदि बिका करते थे. कस्तूरी की मांग भी कम नहीं थी. भारत से गेहूं, जौ, मिट्टी का तेल, दियासलाई, तख्ते, सूती कपड़े और तरह-तरह की मनिहारी चीजें बिकती थीं.

मई से अक्टूबर तक- यानी बर्फ गलने की शुरुआत से दूसरे साल बर्फ गिरना आरम्भ होने तक ऐसी एक भीड़ और हाट-बाजार वहां जम-जम करता था, जिसका चेहरा मध्ययुगीय था. इन्हीं में एक पण्य-सामग्री होती थी- स्त्रियां. कोई जवान, कोई सुन्दरी, कोई अच्छा नाचती या गाती, कोई या तो नई गिरस्ती बसाने की इच्छुक- इन पर टीका-टिप्पणी, बातचीत चलती, और इसमें भी वही मध्ययुग वाला मनोभाव काम करता. सारे मध्य एशिया में लोगों की लेन-देन, औरतों की खरीद-बिक्री बहुत दिनों से प्रचलित है. पामीर अंचल में, यारकन्द और खोतान में, ताजिकिस्तान और सिनकियांग के अन्यान्य अंचल में भी हजारों-हजार कश्मीरी, लद्दाखी यहां तक कि पंजाबी परिवार मौजूद हैं. औरतें ही नहीं, हजारों-हजार मर्द भी.

उजबेकिस्तान के विभिन्न इलाकों में मैंने जिन्हें देखा है, क्या मर्द और क्या औरत- उन्हें अफगानी, कश्मीरी या भारतीय रूप में पहचानने में देर नहीं लगी. लेह शहर में भी यही हाल है-नाना युग में विभिन्न सम्प्रदाय वहां पहुंचे हैं. वे यहां-वहां, पहाड़ों या बस्तियों में भेड़ों के झुंड लेकर बस गए हैं. समय पर बौद्ध समाज में उन्हें जगह भी मिल गई. आज तक भी, युद्ध-विग्रह की इस परेशानी के बावजूद लद्दाख की अर्थनीति का मूल स्वरूप, भेड़-बकरी-केन्द्रित है.

पहाड़ों की अली-गली या छोटी-छोटी बस्तियों में यहां-वहां जमे लोगों के परिमाण यही बताते हैं. उस दिन एक ऊंचे फौजी अधिकारी ने हंसकर कहा, ‘1962 की चीनी चढ़ाई के समय जवानों को स्वेटर भेजने के लिए भारत में एक शोर-सा पड़ गया था- वह नितान्त हास्यकर था! उस झोंक के समय लोगों को यह समझा सकना कठिन था कि हम ऊन और स्वेटरों के ही मुल्क में रह रहे हैं! उनकी हमें कतई जरूरत नहीं!’

‘तो फिर विशेष जरूरी कौन-सी चीज थी?’

फौजी अफसर हंसे. बोले, ‘उसकी आज भी जरूरत है! शाम के चार बजे से रात को नींद न आ जाने तक जवानों को भुलाए रखने के लिए इस बर्फ और मरुभूमि में कुछ है भी? खेलने योग्य मैदान है? सिनेमा-थियेटर है? वेराइटी प्रोग्राम का कोई केन्द्र है क्या? स्वेटर के बदले जादूगर भेजते तो ठीक था!’

फिल्म दिखाने की ज्यादा जरूरत है. ताश-पासा-कैरम-शतरंज-नाच-गान- जवान इन चीजों से खुश होते हैं! मनोरंजन चाहिए जनाब, मनोरंजन! जो हर वक्त हथेली पर जान लिये हुए हैं, उनके लिए मनबहलाव और आनन्द का उपाय करना हमारा मुख्य काम है. लेकिन हमारे बच्चे बड़े अच्छे हैं- हर असुविधा ये हंसकर झेल लेते हैं! जाड़े में रुक जाइए, देखिएगा, कैसी असाधारण और भयानक है उनकी जीवन-यात्रा!

मैंने पूछा, ‘लड़ाई की हालत कैसी लग रही है?’

भले आदमी जोर से हंस उठे. बोले, ‘आप शायद चीनियों की कह रहे हैं? उस बार औचक ही पीछे से सिर पर लाठी मारकर उन्होंने बहादुरी लूट ली थी! शायद अच्छा ही किया था! शाप का वरदान हुआ! इट वाज़ ए बून इन डिसगाइस! अब अगर कोई उकसाकर उन्हें फिर से मोर्चे पर उतार दे तो हमें खुशी ही हो!’

हो-हो करके फिर वे एक बार आत्मविश्वास की हंसी हंसे. बोले, ‘अब उनमें युद्ध का वह हौसला नहीं दिखाई दे रहा है! बट वी आर प्रिपेयर्ड टू द टीथ!’

लेह शहर इस समय युद्ध की सीमा बना था- लेहू तहसील में भारत और चीन आमने-सामने खड़े थे. दोनों के बीच सिर्फ मुजताग काराकोरम खड़ा था. फलस्वरूप चारों ओर पहाड़ी दीवार-घिरी उपत्यका में लड़ाई की जबर्दस्त तैयारी में विस्मय की बात नहीं. लेकिन कश्मीर की सिविल सरकार यहां अपनी स्वकीयता से चलती है. उसके लिए असैनिक विमान और ट्रकों की भरमार है- और-और तरह की सवारियां हैं. लेकिन रास्ता वही एक. श्रीनगर से जोषीला,कारगिल, खलात्से से लेह और नुबरा. यह कश्मीर और लद्दाख के बीच की प्रमुख सड़क है-उसका प्राण-सूत्र.

कश्मीर की युद्धविराम-रेखा से दक्षिण की ओर अगर पाकिस्तान इस रास्ते को रोक दे, तो लद्दाख की आफतों की सीमा न रहे. इस बात को भारत और पाकिस्तान दोनों ही जानते हैं. लद्दाख को अलग कर देने का मतलब है- चीन को आमंत्रित करना. शरीर के जिस हिस्से में लहू की गति बन्द हो, वह अंग लकवाग्रस्त और पंगु होता है. वैसे में चीनियों के लिए सेना और लड़ाई के सामान लाने की कोई रोक ही नहीं रह जाएगी और लद्दाख का पतन वैसे में अनिवार्य हो जाएगा. महज इसी एक कारण से लद्दाख में उत्कंठा, बेचैनी और अनिश्चयता का अन्त नहीं!

मैं समर के उस विशाल आयोजन में ही लद्दाख में घूम रहा था. मैं बहुत साफ-साफ ही समझ रहा था कि चीन के नये शासकों से पाकिस्तान की मिताई को जो लोग अस्वाभाविक समझते हैं, वे भ्रान्त हैं. पाकिस्तान द्वारा लिया गया कश्मीर का इलाका और चीन अधिकृत सिनकियांग- दोनों ही मिले हैं पामीर में. इस पार से उस पार की दोस्ती सदा की है. रंग, संस्कृति, भोजन, सामाजिक जीवन, भाषा और वर्णमाला, प्रथा और परिपाटी दोनों की एक ही है. उस अजानी दुनिया से महाराजा गुलाबसिंह से लेकर राज्यपाल कर्णसिंह तक- किसी का भी कोई परिचय नहीं. वह एक अलग ही दुनिया है.

चीन को पाकिस्तान से मिताई की जरूरत है. चीन की जनसंख्या उसकी जरूरत से बहुत ज्यादा है. उसे जगह-जगह उपनिवेश बसाना पड़ेगा. वियतनाम, इंडोनेशिया, कम्बोडिया, स्याम, मलाया, बर्मा- तमाम वह केवल अपने आदमियों को घुसाता जा रहा है. अभी वह तिब्बत, चानथान, खोतान, सिनकियांग और पामीर के विभिन्न इलाकों में अपने लोगों को भर रहा है. अब उसने अरब और अफ्रीका में जाना शुरू किया है. इसी बीच वह अफ्रीका में उपनिवेश बसाने लगा है. फिलहाल पाकिस्तान से प्रेमभाव जमाकर उसने पूर्वी पाकिस्तान के विभिन्न जगहों में घूमना शुरू कर दिया है!

साम्राज्यवादी अंग्रेज एक समय सबसे पहले पादरी भेजा करते थे और विस्तारवादी चीन आज हिटलर की नकल करके सबसे पहले रसोइया भेजता है (चीनी होटल की रसोई बहुत अच्छी होती है), धोबी (चीनी डाइक्लिनिंग बहुत उत्तम होती है), मोची (चीनी मोची के जूते बड़े जनप्रिय हैं), नाई (चीनी सैलून की बाल-कटाई सभी देशों में मशहूर है), बढ़ई (लकड़ी की कारीगरी में चीनी बढ़ई बेजोड़ होते हैं). ऐसा सुनने में आता है, चीनी लोग पूर्वी बंगाल में जगह-जगह जम रहे हैं. अर्थनीति का एक बड़ा हिस्सा उनके प्रभाव में आने के बाद राजनीतिक प्रभाव की बात उठेगी या नहीं, अभी भी कहना मुश्किल है.

लेकिन इसका जवाब मैंने 1957 में बर्मा घूमते समय पाया था. रंगून हाईकोर्ट के तत्कालीन प्रधान विचारपति महोदय ने कृपा करके मुझे आधे घंटे का समय दिया था मिलने का. मैंने उनसे पूछा था, ‘यह तो बर्मा है, लेकिन यहां चीनियों का इतना प्रभाव क्यों देख रहा हूं?’

मेरा सवाल समझकर वे हंसे, ‘क्या देख रहे हैं?’

मैंने कहा, ‘चावल का अधिकांश व्यवसाय, ज्यादातर अखबार, ज्यादातर वाणिज्य-व्यापार, आयात-निर्यात, दुकानें और आढ़त, काम-काज, सवारी-शिकारी यहां तक कि बहुतेरे घर-द्वार, विषय-सम्पत्ति, सब चीनियों के हाथ में! टिम्बर का व्यवसाय वही करते हैं, जंगलों का ठेका उन्हीं के हाथ में है- बर्मा सरकार सिर्फ शुल्क पाती है. ज्यादातर अखबारों के मालिक वही हैं. कृपा करके आप इस पर कुछ रोशनी दें.’

मेरी ओर देखते हुए न्यायाधीश महोदय ने कहा, ‘आपका अनुमान गलत नहीं है.’

मैंने डरते-डरते कहा, ‘बीस या पच्चीस साल के बाद बर्मा की राजनीतिक शक्ल क्या हो जाएगी, सोचा है आपने?’

‘बीस साल!’ न्यायाधीश बोले, ‘बर्मा तिब्बत का ही स्वगोत्री है, जानते हैं न! पन्द्रह साल बहुत हैं. फिर एक बार आकर देख लीजिएगा!’

मैं मुस्कुराकर वहां से चल दिया था.

पाकिस्तान से दोस्ती करने के फलस्वरूप पश्चिम-दक्षिण काराकोरम के तीन हजार वर्गमील का इलाका चीन को मिल गया है. इसके सिवा पाकिस्तान-अधिकृत हूनजा, नागर, उत्तर बालटिस्तान के और भी चार हजार वर्गमील के इलाके के लिए चीन-पाकिस्तान में बातें चल रही हैं. यानी गिलगित पाकिस्तान की अन्तिम सीमा रहेगा! कहना फिजूल है कि पाकिस्तान शायद चीन की बात रखने को मजबूर होगा.

चीन अपने प्रत्येक पड़ोसी के खिलाफ घृणा और विद्वेष लेकर खड़ा हुआ है. उसका खयाल है, सबने उसे प्रताड़ित किया है, सबसे उसे प्रवंचना मिली है. फिलहाल सिनकियांग से अणु-बम के विस्फोट से अपनी घृणा को जिस प्रकार एक ओर उसने शब्दायमान किया है, उसी प्रकार दूसरी ओर उसने होशियार भी किया है- सोवियत यूनियन, भारत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, तिब्बत और सिनकियांग को. वह आवाज उनकी घृणा और विद्वेष की है, आक्रोश और अहं की है, गुस्सा और पिछले युग के अपमान-बोध की है. और इसके ठीक विपरीत यह देखता हूं कि पाकिस्तान का जन्म हिन्दू-मुसलमानों की साम्प्रदायिक घृणा, विद्वेष, हिंसा और आत्मग्लानि से हुआ है. अभिशापित भारत की अन्दरूनी जाति और वर्ण-विद्वेष, श्रेणी और सम्प्रदाय-विद्वेष, छुआछूत, आपसी फूट- भारत के इन ऐतिहासिक कलंकों को लेकर चर्चिली जमात का बनाया पाकिस्तान उठ खड़ा हुआ है.

आज दो विद्वेष और दो आक्रोश हिमालय के उत्तर चरित में परस्पर हाथ मिला रहे हैं! दो घृणा और दो आत्माभिमान अगल-बगल उठ खड़े हुए हैं. लेकिन इन दोनों की प्रकृति दो तरह की है. एक तो हमारा अपना ही आदमी है, हमारा आत्मज, सहोदर. दूसरा एक नितान्त दूसरी दुनिया का है, जिनके चिन्तन और मनोवृत्ति से हमारा मेल नहीं के ही बराबर है.

दो विरूप और विपरीतमुखी शक्तियां एक साथ लद्दाख और कश्मीर में उठ खड़ी हुई हैं. कश्मीर में भी चीन और लद्दाख में भी पाकिस्तान! भारत यहां दोनों के आमने-सामने आकर खड़ा हुआ है. खड़ा होकर वह गौर कर रहा है, दोनों का लक्ष्य दो प्रकार का है.

मैं आज इन तीन शक्तियों के केन्द्रबिन्दु पर खड़ा हूं. अपनी यह लद्दाख-यात्रा समाप्त करने से पहले मैं सामने की ओर भविष्य को देख रहा हूं, जो मेरी ही तरह बहुतों की नजरों में अस्पष्ट आशंका से धुंधला है. मगर यह आशंका क्यों है, मैं नहीं जानता. सिर्फ इतना ही जानता हूं कि भारत का पिछला इतिहास अच्छा नहीं है. उसी इतिहास को याद करके यह दुर्भावना मन में आती है कि ‘पिछला मैं मुझे आगे की तरफ ठेल रहा है.’

किताब का नाम – उत्तर हिमालय चरित

लेखक – प्रबोधकुमार सान्याल

प्रकाशन – राजकमल प्रकाशन

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute
Also see
article imageचीन से निपटने के कुछ मौलिक तरीके और रुबिका लियाकत की छठीं इंद्री
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like