उत्तराखंड की पहाड़ियों में नरभक्षी तेंदुओं की कहानियां बीसवीं सदी की शुरुआत से ही, जब जिम कॉर्बेट वहां मौजूद थे, मशहूर रही हैं, उनकी 145वीं जयंती 25 जुलाई को थी.
अपने प्राकृतिक आवास खोने के साथ-साथ तेंदुए भोजन की कमी और खुद के शिकार होने का खतरा भी झेल रहे हैं. राज्य के अंदर बाघों की बढ़ी हुई संख्या ने इनको पहाड़ों में ऊपर कि ओर जाने को मजबूर किया है, जिसकी वजह से उनका इंसानों से सामना बढ़ गया है.
पिछले एक दशक में वन्यजीवों और इंसानों के टकराव से उत्तराखंड में 300 से ज्यादा लोगों की मृत्यु हो चुकी है और 2000 घायल हो चुके हैं.
'चमोली के कॉर्बेट' के नाम से मशहूर एक स्कूल के अध्यापक पहाड़ के नागरिकों को जंगली जानवरों के साथ समन्वय बनाकर रहने के लिए जागरूक कर रहे हैं.
लगभग 100 साल पहले वन्य संरक्षक जिम कॉर्बेट ने उत्तराखंड में स्थित रुद्रप्रयाग के लोगों को एक "नरभक्षी" के आतंक से मुक्ति दिलाई थी, जिसने 8 साल में कम से कम 125 लोगों की जान ले ली थी. ऋषिकेश से केदारनाथ के तीर्थ मार्ग पर शिकार करने वाले इस नरभक्षी की कहानी को जिम कॉर्बेट ने अपनी किताब "रुद्रप्रयाग का नरभक्षी तेंदुआ" में विस्तार से दर्ज किया है. कॉर्बेट उस तेंदुए के वजह से फैले हुए डर को समझाते हुए कहते हैं, "रुद्रप्रयाग के नरभक्षी तेंदुए के लगाए हुए कर्फ्यू के अलावा ऐसा कोई कर्फ्यू आज तक नहीं लगा, जिसकी सख्ती को अपनी मर्जी से जनता ने बिना किसी शर्त मान लिया हो."
कॉर्बेट के इस तेंदुए को मारे जाने तक उसकी ख़बरें भारत और कई देश जैसे यूके, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और अमेरिका के अखबारों में भी छप चुकी थीं.
25 जुलाई को कुछ वन्य जीव प्रेमी और प्रकृति प्रेमियों ने जिम कॉर्बेट की 145वीं जयंती मनाई, जिन्होंने उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल के गांव वालों की कई नरभक्षी उसे रक्षा की थी. इसके बावजूद वह बड़ी संख्या में हिमालय के जंगलों में घूमने वाली इन शानदार बिल्लियों को बहुत पसंद करते थे. वह बाघ को एक "बड़े दिलवाला और अदम्य रूप से साहसी जेंटलमैन कहते थे", तेंदुए को वह सबसे सुंदर और सबसे सलीकेदार जानवर मानते थे जो साहस में किसी से भी पीछे नहीं है.
परंतु, तेजी से कम हो रहे तेंदुए की हालत ठीक नहीं है. बार-बार होने वाले प्राकृतिक या इंसानों से सामना होने की वजह से ये कम होते जा रहे हैं. साथ ही साथ उत्तराखंड के गांवों में तेंदुए द्वारा मारे जाने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ी है. जो लोगों को गांव छोड़ कर शहर जाने को मजबूर करती है.
ढलने की क्षमता के बावजूद खतरा
अनुमानित है कि भारत में करीब 12,000-14,000 तेंदुए (जिन्हें पहाड़ी क्षेत्रों में गुलदार भी कहा जाता है) देशभर में फैले हुए हैं और उनमें से आधे संरक्षित वनों या उनके आस-पास रहते हैं. 2018 तक उत्तराखंड में 703 तेंदुए थे. बाघों से इतर, तेंदुए अपने आसपास के वातावरण के अनुकूल खुद को ढाल पाने में बहुत कुशल होते हैं. तेंदुए भारत के वन्य जीवन सुरक्षा कानून-1972 के अनुच्छेद 1 में आते हैं, जिसका मतलब यह है कि बाघ और शेर की तरह ही संरक्षित प्रजाति है और उनका शिकार या अवैध रूप से तस्करी करने पर कड़ी सजा का प्रावधान है.
इतनी सुरक्षा के बावजूद भी वन विभाग के दस्तावेज दिखाते हैं कि नवंबर 2000 में उत्तराखंड के गठन के बाद से वहां पर 1200 से ज्यादा तेंदुए मारे जा चुके हैं. विशेषज्ञ बताते हैं कि तेंदुए अब उन प्रजातियों में से एक है जिन पर विलुप्त होने का खतरा सबसे ज्यादा मंडरा रहा है.
बिवश पांडव जो भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं, उन्होंने मोंगाबे-भारत से बात की. वे कहते हैं, "हालांकि तेंदुआ हमारे आस पास के क्षेत्र में दिख जाया करता है, वैज्ञानिक शोधों ने दिखाया है कि उनकी संख्या गिर रही है. अब हमारे पास बहुत कम तेंदुए बचे हैं जबकि तेंदुए अपने आप को आसपास के वातावरण में छुपा लेने की काबिलियत रखते हैं. जहां बाघों को जीने के लिए पूरी तरह से संरक्षित, बड़े और मानव हस्तक्षेप से अनछुए जंगल चाहिए जिनमें उनके लिए बड़ा शिकार जैसे सांभर या चीतल भी भरपूर संख्या में उपलब्ध हों, वही तेंदुए किसी मानव बस्ती के आसपास भी अपना गुजारा आराम से कर लेते हैं. वह अपना पेट किसी भी चीज से भर सकते हैं यहां यहां तक की पोल्ट्री और अस्पताल के कूड़े से भी."
तेंदुए इस समय अपने प्राकृतिक आवास को खोने, शिकार की अनुपलब्धता और तस्करी के लिए अवैध शिकार इन तीनों खतरों का सामना कर रहे हैं. बिवश समझाते हैं कि तराई के जंगलों में बाघों की बढ़ी हुई संख्या के कारण, तेंदुए मजबूरन उत्तर की ओर उत्तराखंड के पहाड़ी गांव की तरफ पलायन करने को मजबूर हैं जहां शिकार की अनुपलब्धता के कारण उनका इंसानों से टकराव होता है.
मोंगाबे -भारत के पास उपलब्ध जानकारी के अनुसार उत्तराखंड में वन्य जीवन और इंसानों के सामने से होने वाली मौतों में आधी के लिए केवल तेंदुए ही उत्तरदाई हैं. उदाहरण के तौर पर 2012 से 2019 के बीच जंगली जानवरों के हाथों 311 लोगों की मौत हुई, इनमें से 163 यानी आधी से ज्यादा मौतों के लिए तेंदुए जिम्मेदार हैं.
उत्तराखंड के वन विभाग के अनुसार करीब 2000 लोग इसी कालखंड में जंगली जानवरों द्वारा घायल किए गए. इस साल भी जून तक 18 लोग जंगली जानवरों के हाथों अपनी जान गंवा चुके हैं. इन 18 मौतों में से 9 मौतों के जिम्मेदार तेंदुए हैं.
बिवश समझाते हैं, "तेंदुए का इंसानों पर हमला कोई नई बात नहीं है. हमें यह बात कॉर्बेट की कहानियों से पता है कि यह सब 100 साल पहले भी हो रहा था परंतु स्थानीय लोगों के लिए खतरा आज के समय में बहुत बढ़ गया है. लोगों का पहाड़ों से पलायन इसके बहुत से कारणों में से एक है. जैसे-जैसे लोगों ने गांव से शहरों की तरफ पलायन किया तो ऊंची घास, झाड़ियां और पेड़ पौधे उनके घरों में और आसपास उग आए, जिन्होंने तेंदुए के छुपने की संभावना पैदा की और कभी-कभी वह इंसानों पर भी हमला कर देते हैं."
चमोली का कार्बेट
खुशकिस्मती से उत्तराखंड के लोगों के पास कुछ स्थानीय लोग हैं जो केवल लोगों की नरभक्षियों से रक्षा ही नहीं करते बल्कि उन्हें खतरे से सही तरीके से निपटने की शिक्षा भी दे रहे हैं. 56 वर्षीय लखपत सिंह रावत, जो एक स्कूल में अध्यापक हैं, वे वन विभाग को किसी नरभक्षी को पकड़ने या निपटाने में मदद करते हैं. वो "चमोली के कॉर्बेट" के नाम से प्रसिद्ध हैं.
रावत ने लगभग दो दशकों में 50 से ज्यादा नरभक्षियों को ठिकाने लगाया है. उन्होंने मोंगाबे-भारत को बताया,"मैंने पहले नरभक्षी को मार्च, 2002 में मारा था. वह एक तेंदुआ था जिसने मेरे विद्यालय के 12 बच्चों को मार डाला था. उसने चमोली के गांवों में बहुत आतंक मचा रखा था. तब से मैंने अभी तक 52 तेंदुए और दो बाघों को मारा है, जिन्हें वन विभाग ने नरभक्षी घोषित कर दिया था."
वन विभाग के अधिकारियों के अनुसार किसी घोषित नरभक्षी जानवर को भी गोली मारना अंतिम कदम होता है. यह तभी संभव है जब पीड़ित क्षेत्र के डिविजनल वन्य अधिकारी की रिपोर्ट को संज्ञान लेते हुए मुख्य वन्यजीवन वार्डन इस चीज की अनुमति प्रदान करें. स्थापित प्रक्रिया के अनुसार मारने से पहले जानवर को पकड़ने के सभी तरीके अपनाए जाते हैं.
राजीव भर्तरी, जो इस समय उत्तराखंड की बायो डायवर्सिटी बोर्ड के चेयरमैन हैं और उससे पहले राज्य के मुख्य वन्य जीवन वार्डन रह चुके हैं. मोंगाबे ने उनसे बात की, "अधिकतर मामलों में बचाव के लिए उठाए गए कदम पक्का करते हैं कि कोई इंसानी जान या नुकसान नहीं होगा लेकिन जंगली जानवरों से टकराव से बचने के लिए जागरूकता, चौकसी और इंसानी गतिविधियों को ठीक से निर्धारित करने की जरूरत है. अधिकतर मामलों में आवश्यकता नहीं पड़ती परंतु तेंदुओं के साथ यह दिक्कत है और ऐसे मामलों में उनको पहचान करके उन्हें जल्द से जल्द खत्म कर देना ही एकमात्र उपाय बचता है."
रावत, जिन्हें नरभक्षी हो चुके तेंदुए को गोली मारने का काम कई बार मिल चुका है, कहते हैं कि उन्हें इस काम से कोई खुशी नहीं मिलती.
वे बताते हैं, "मुझे अपने मन में दुख महसूस होता है. इतने सुंदर और शानदार जानवर को मारना हमेशा ही एक दर्द भरा काम है क्योंकि वे प्रकृति की आहार श्रंखला के मुख्य सदस्य हैं. उनकी इस परिस्थिति के लिए हम ही उत्तरदाई हैं क्योंकि हमने ही उनके आवासों को खत्म किया और इन जानवरों के लिए जंगल में कोई शिकार नहीं बचा है. वो जाएंगे कहां? वह अपने चारों तरफ इंसानों को देख रहे हैं और जब खाने को कुछ नहीं मिलता तो हमला भी कर देते हैं."
राजीव भर्तरी के अनुसार इंसानों की लापरवाही और कूड़े को ठीक से ठिकाने ना लगाना, इन दो चीजों ने हालात और भी खराब किए हैं.
राजीव जोर देकर कहते हैं, "पहले लोग जंगली जानवरों से दूरी बनाकर रखते थे पर आजकल लोग हाथी और बाकी जानवरों के साथ अपने स्मार्टफोन से सेल्फी लेने में ज्यादा रुचि दिखाते हैं. हमने तेंदुए और बाघों के पास से लिए गए वीडियो देखे हैं. दूसरा, किसी भी इंसानी बस्ती के आसपास कूड़ा करकट को ठीक से ठिकाने ना लगाना बंदरों और हिरणों को आकर्षित करता है. तेंदुए इनका पीछा करते हुए बस्ती तक आते हैं और कई बार इंसानों पर हमला भी कर देते हैं."
जंगली जानवरों के समानांतर जीवन कैसे बिताएं
जिंदगी बिताने लायक परिस्थितियां बनाने के लिए बहुत से कदमों का उठाया जाना आवश्यक है. लोगों में जानकारी बढ़ाना और वन्य सुरक्षाकर्मियों को इन मुद्दों के लिए संवेदनशील बनाना जिससे वन विभाग सही अफ़सर और उपकरण उपलब्ध कराऐ. पशु चिकित्सकों की कमी मानव और वन्य जीवन के टकराव को समझने में एक बड़ी रुकावट है.
राजीव भर्तरी समझाते हैं, "हमारे पास 8 पशु चिकित्सक हैं पर दुर्भाग्य से वह केवल नैनीताल, हरिद्वार और देहरादून जिलों में ही उपलब्ध हैं. हमें और पशु चिकित्सक चाहिए क्योंकि हमें तुरंत हरकत में आने वाली टीमों की आवश्यकता है. विभाग को चिकित्सकों की आवश्यकता है क्योंकि किसी हमले के मामले में वही बता सकते हैं कि जानवर के साथ क्या दिक्कत है जिसने उसका व्यवहार बदला. वही हमें बता पाएंगे के जानवर को केवल पकड़ना काफी है या उसे मारना जरूरी है या केवल उसका इलाज करके उसे जंगल में छोड़ दिया जाए और वह ठीक हो जाएगा."
राजीव ने रेडियो कॉलर लगाने की बात पर भी बल दिया क्योंकि उससे जानवरों के बर्ताव को समझने में मदद मिलती है. वे स्वीकार करते हैं कि उपकरण एक साल से विभाग के स्टोर में पड़े हैं लेकिन उत्तराखंड में अभी तक एक भी तेंदुए को कॉलर नहीं लगाया गया.
इसके दूसरी तरफ लखपत रावत नरभक्षियों के व्यवहार को अपने अनुभव से समझते हैं. वह गांव वालों को नरभक्षियों को पहचानने के तरीके बताते हैं जिससे जानें बच सकें.
रावत आगाह करते हुए कहते हैं, "जब एक तेंदुआ जब नरभक्षी बन जाता है तो उसके मन से इंसान का डर निकल जाता है और वह बहुत ज्यादा आक्रामक हो जाता है. एक नरभक्षी तेंदुआ इंसानी बसावट के पास लगभग शाम को 6 से 9 के बीच आता है जबकि साधारण तेंदुए जो कुत्ते या अन्य जानवरों को पकड़ने आते हैं, वो रात में 11 के बाद आते हैं. दिन छिपने के बाद लोगों को अपने बूढ़े और बच्चों को बिना देखरेख के बाहर नहीं छोड़ना चाहिए."
रावत, जिन्होंने 10 जुलाई को रुद्रप्रयाग के पास नरायन बागड़ गांव में एक नरभक्षी तेंदुए को मारा, कहते हैं कि आदमी, औरत और बच्चे, हम सभी को अपनी जीवनशैली खुद को तेंदुए से बचाने के लिए अनुशासित करनी चाहिए.
वे आगे कहते हैं, "कुछ बहुत साधारण सी चीजें हैं जिन्हें हम कर सकते हैं. जैसे कि महिलाएं जब भी जंगल में घास काटने जाएं तो वह तीन या चार के झुंड में ही जाएं और उनमें से कम से कम एक हमेशा सुरक्षा की ड्यूटी करे जब बाकी और लोग घास काट रहे हों. अगर तेंदुए को लगा कि उसे कोई देख रहा है तो वह कभी हमला नहीं करेगा."
जिम कॉर्बेट को श्रद्धांजलि
जिम कॉर्बेट को गुजरे हुए करीब 65 साल बीत चुके हैं लेकिन आज भी रावत और उनके जैसे कुछ लोग उनकी कहानियों को याद रखे हुए हैं. स्थानीय लोग और सरकार दोनों ही इन लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करते हैं.
राजीव भर्तरी बताते हैं, "मैं लखपत सिंह रावत और जॉय हुलकी (एक और स्वयंसेवी) को जानता हूं. वह हमारे लिए एक संस्थागत स्मृति का काम करते हैं क्योंकि जो उन्हें अपने असीम अनुभवों से पता है और वे हमें सिखा सकते हैं, वह किसी भी सरकारी रिपोर्ट या कागज को पढ़कर नहीं जाना जा सकता. यह लोग बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं."
लखपत सिंह रावत, जिन्हें लोग उनके योगदान के लिए अक्सर चमोली का कॉर्बेट कह कर संबोधित करते हैं, कहते हैं कि वह बहुत खुश और सम्मानित महसूस करते हैं जब लोग उनकी तुलना जिम कॉर्बेट से करते हैं. पर रावत के शब्दों में, "पर वे (जिम कॉर्बेट) एक महान व्यक्ति थे. उन्होंने अपना जीवन, बहुत कम संसाधन होते हुए भी गरीब पहाड़ियों के लिए खतरे में डाला और वह उन्हें प्यार करते थे. आज हमारे पास दूर से मार करने वाली राइफल, रात में देख सकने की क्षमता और लाइटें हैं. पर कॉर्बेट ने यह काम बिना इन सहूलियतों के किया था. उनकी याद में हम केवल नतमस्तक ही हो सकते हैं."
(मोंगाबे इंडिया से साभार)