“मुझे पता नहीं कि भारत देश कितने दिनों तक इस रास्ते पर चलेगा”: साईबाबा को अरुंधति रॉय का पत्र

"यह अन्याय बहुत लंबा नहीं चलने वाला है. जेल के दरवाजे खुलेंगे और आप हमारे बीच आएंगे".

WrittenBy:अरुंधति रॉय
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सेवा में, प्रोफेसर जीएन साईबाबा अंडा सेल, नागपुर सेंट्रल जेल नागपुर, महाराष्ट्र

प्रिय साई,

सबसे पहले मैं माफी मांगती हूं कि मैं अरुंधति लिख रही हूं न कि अंजुम. आपने तीन साल पहले उन्हें खत लिखा था, तो निश्चय ही उसे आपको जवाब देना बनता है लेकिन मैं क्या कह सकती हूं- वाट्सएप और ट्विटर की भागमभाग के इस दौर में भी उसके समय की समझ आपकी-मेरी समझ से बिल्कुल अलग है. वह सोचती है कि तीन साल कोई इतना भी वक्त नहीं हो गया कि एक चिट्ठी का जवाब दे ही दे (न भी दे). फिलहाल, उसने खुद को जन्नत गेस्ट हाउस के एक कमरे में बंद कर लिया है और हर समय गाती रहती है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इतने वर्षों के बाद उसने फिर से गाना शुरू कर दिया है. उसके दरवाजे के बगल से गुज़रते हुए उसका गाना सुनना जिन्दगी में सुखद एहसास देता है. हर बार जब वह ‘तुम बिन कौन खबरिया मोरी लेत’ गाती है, दिल टूटने का एहसास करा जाती है. और इसी गीत से मुझे आपकी याद भी आ जाती है. वह जब भी गाती है, मुझे यकीन है कि वह आपके बारे में सोचते हुए ही यह गाती है. इसलिए अगर वह आपके खत का जवाब नहीं दे पाई है तो यह समझ लीजिए कि वह प्रायः आपके लिए ही गाती है. अगर आप ठीक से अपना ध्यान केन्द्रित करें तो शायद आप उसे सुन भी सकते हैं.

जब मैं ‘आपके और मेरे’ समय की समझ के बारे में बोल रही थी तो निश्चित रूप से मैं यह गलत कह रही थी क्योंकि आप कुख्यात अंडा सेल में आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे हैं, इसलिए आपके समय की समझ अंजुम से मेल खाती है न कि मुझसे. या ऐसा भी हो सकता है कि उसके समय की समझ बिल्कुल ही अलग हो. मुझे हमेशा से लगता रहा है कि अंग्रेजी का जो यह ‘समय कट रहा है’ मुहावरा है, उसका जिस रूप में प्रयोग किया जाता है उससे बिल्कुल अलग बहुत ही गहरा अर्थ होता है. खैर, उस अवैचारिक टिप्पणी के लिए माफी चाहती हूं. अंजुम भी अलग तरह से, अपनी कब्रगाह में, ‘कसाई की तकदीर’ मानकर आजीवन कारावास काट रही है लेकिन निश्चित रूप से, वह सलाखों के पीछे नहीं है या उसके साथ एक जीवित जेलर नहीं है. उसका जेलर जालिम है और जाकिर मियां की यादें हैं.

आप कैसे हैं, यह मैं आपसे इसलिए नहीं पूछ रही हूं क्योंकि वसंता ने मुझे आपके बारे में सब कुछ बता दिया है. मैंने आपकी सारी मेडिकल रिपोर्ट तफसील से देखी है. यह कल्पनातीत है कि उन्होंने आपको जमानत नहीं दी है या फिर पेरोल भी नहीं दिया है. हकीकत तो यह है कि कोई ऐसा दिन नहीं बीतता है जिस दिन मैं आपके बारे में सोचती नहीं हूं. क्या अब भी वे अखबार सेंसर करके देते हैं या पढ़ने के लिए किताबें नहीं देते हैं? रोज़ाना काम में जो कैदी आपकी मदद करते हैं वे क्या आपके साथ उसी सेल में रहते हैं? वे क्या शिफ्ट में आपके साथ रहते हैं? उनका व्यवहार दोस्ताना है? वे आपके व्हीलचेयर को कैसे संभालते हैं?

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मैं यह इसलिए जानती हूं कि क्योंकि इसकी मांग की गई थी जब वे आपको गिरफ्तार कर रहे थे- जब आप अपने घर वापस जा रहे थे तो रास्ते से आपका अपहरण कर लिया गया था जैसे कि आप कुख्यात अपराधी रहे हों (हम इसके लिए आभारी हो सकते हैं कि उसने ‘अपने बचाव में’ आपके साथ विकास दूबे जैसा बरताव नहीं किया कि आप उसकी बंदूक छीनकर एक हाथ में व्हीलचेयर समेटकर भागने की कोशिश कर रहे थे. मुझे लगता है कि अब हमारे पास एक नई साहित्यिक शैली होनी चाहिए, जो अभी नहीं है- ‘खाकी फिक्शन’. इस विषय पर हर साल एक वार्षिक लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन करना चाहिए क्योंकि अब इस विषय पर बहुत कुछ है. इसकी पुरस्कार राशि भी अच्छी होगी और कुछेक तटस्थ न्यायालयों में से कुछ अधिक तटस्थ न्यायमूर्ति यहां भी उत्कृष्ट सेवा देंगे).

मुझे वो दिन बहुत ही अच्छी तरह याद हैं जब आप टैक्सी लेकर मुझसे मिलने के लिए आते थे और टैक्सी ड्राइवर सड़क पार करा के व्हीलचेयर से मेरे फ्लैट तक आपको चढ़ाने में मदद करता था. आजकल उन सभी सीढ़ियों पर आवारा कुत्तों का वास हो गया है. लीला और सीला का बाप चड्ढा साहब और उसकी जिप्सी मां. वे सब कोविड लॉकडाउन के दौरान पैदा हुए थे और ऐसा लगता है कि सबने मिलकर हमें गोद ले लिया है. लॉकडाउन के खतम होने के बाद हमारे सभी टैक्सी ड्राइवर दोस्त यहां से चले गए हैं. अब उनके पास कोई काम ही नहीं है. टैक्सियां वहीं खड़ी हैं और उन पर धूल की परतें जम गई हैं. पेड़-पौधों ने जड़ें जमानी शुरू कर दी हैं और अब तो उसमें पत्ते भी निकल आए हैं. बड़े शहरों की गलियां छोटे कामगारों से सूनी हो गई हैं. सभी तो नहीं. लेकिन बहुत ज्यादा. लाखों की तादाद में.

आपने मुझे जो अचार बनाकर दिया था, उन डब्बों को मैं अब भी रखे हुए हूं. मैं आपके बाहर आने का इंतजार कर रही हूं। आपके जेल से बाहर आने के बाद ही उसे खोलकर एक साथ खाएंगे. तब तक तो यह पूरी तरह पक गया रहेगा.

मैं आपकी वसंता और मंजिरा से कभी-कभार ही मिलती हूं क्योंकि हमारे साझे दुख का बोझ उन मुलाकातों को बहुत बोझिल बना देता है. यह सिर्फ उदासी भरा नहीं होता है. इसमें गुस्सा, असहायता और मेरे खुद के हिस्से की शर्मिंदगी भी जुड़ी होती है. शर्मिंदगी इस बात की होती है कि मैं बहुसंख्य इंसानों का ध्यान आपके हालात से जोड़ नहीं पाई. यह किस कदर की क्रूरता है कि एक व्यक्ति घोषित तौर पर 90 फीसदी शारीरिक रूप से अक्षम है और वह जेल में बंद है. आपको बेतुके किस्म के अपराध की सजा से इस स्थिति में पहुंचा दिया गया है. शर्मिंदगी इस बात के लिए भी है कि हम बहुत तेजी से न्याय व्यवस्था के उलझे हुए रास्ते की मदद से आपकी अपील में कुछ भी नहीं कर सके. न्याय व्यवस्था का यही वह रास्ता है जो सजा की प्रक्रिया के रूप में तब्दील कर दिया गया है. वैसे मैं निश्चिंत हूं कि अंततः सर्वोच्च न्यायालय आपको बरी कर देगा, लेकिन जब यह प्रक्रिया पूरी होगी तब तक आप और आपके जैसे लोग न जाने कितना कुछ भुगत चुके होंगे.

भारत में कोविड-19 एक के बाद एक जेलों में लगातार फैलता जा रहा है. इसमें आपकी जेल भी शामिल है. वे इस बात को बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि आपके आजीवन कारावास की सजा कितनी आसानी से मौत की सजा में तब्दील हो जा सकती है.

कई ऐसे व्यक्ति, जो हम-दोनों के दोस्त हैं- छात्र, वकील, पत्रकार, कार्यकर्ता- जिनके साथ हमने ठहाके लगाए हैं, मिल-बांट कर रोटियां खायी हैं और चीख-चीख कर बहस की है, वे भी अब जेल में हैं. मुझे नहीं मालूम कि आपको वीवी (मैं वरवर राव की बात कर रही हूं, यह भी हो सकता है जेल सेंसर इसे कोई कोड समझ ले) के बारे में जानकारी है या नहीं?

वरिष्ठ कवि वरवर राव

81 साल के इस महान बूढ़े कवि को जेल में बंद करके मानो कि जेल में एक आधुनिक स्मारक सजा कर रख दिया गया है. उनके स्वास्थ्य की जो खबरें आ रही हैं वे विचलित करने वाली हैं. पहले लंबे समय से उनके खराब स्वास्थ्य की उपेक्षा की जाती रही और उसके बाद वे अब कोविड से संक्रमित हो गए हैं. अब उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया है. उनके परिवार के लोग जो उनसे मिले, उन्‍होंने बताया कि वे बिस्तर पर अकेले ही लेटे हुए थे. उनकी देखभाल करने वाला वहां कोई नहीं था और चादरें गंदी पड़ी हुई थीं. वे रुक-रुक कर बोल रहे थे. चल पाने की स्थिति में नहीं रह गए थे. बेजोड़!

वीवी! वह व्यक्ति जो हजारों-लाखों को संबोधित करने में एक क्षण भी नहीं लगाता था, जिसकी कविताओं ने आंध्र, तेलंगाना और पूरे भारत के लाखों-करोड़ों इंसानों को कल्पनाओं की ऊंचाइयों तक पहुंचाया. मुझे वीवी की जिंदगी को लेकर सचमुच चिंता हो रही है. ठीक वैसे ही, जैसे आपकी जिंदगी को लेकर चिंता हो रही है. भीमा कोरेगांव केस के अन्य दूसरे आरोपी- ‘भीमा कोरेगांव 11’, के हालात भी बहुत ठीक नहीं हैं. उन्हें भी कोविड-19 होने की आशंका बहुत प्रबल है. वर्नन गोंजाल्विस, जो जेल में वीवी की देखभाल कर रहे हैं, को भी कोरोना से संक्रमित होने की गंभीर आशंका है. गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबडे को भी तो उसी जेल में रखा गया है, लेकिन बार-बार, हर बार न्यायपालिका जमानत की अर्जी खारिज कर दे रही है. और अब गोहाटी जेल में बंद अखिल गोगोई कोविड से संक्रमित हो चुके हैं.

हमारे ऊपर किस तरह के तंगदिल, क्रूर और कमजोर दिमाग (या सीधे कह दें दुर्दांत मूर्ख) वाले लोग शासन कर रहे हैं. हमारे जैसे इस विशाल देश की सरकार कितनी दयनीय हो चुकी है जो अपने ही लेखकों और विद्वानों से इस तरह डर गई है.

कुछ महीने पहले की ही तो बात है जब लगा था कि हालात बदल रहे हैं. लाखों लोग सीएए और एनआरसी के विरोध में सड़क पर उतर आए थे, खासकर छात्र-छात्राएं. यह रोमांचक अनुभव था. इसमें कविताएं थीं, संगीत था और प्रेम था. अगर यह क्रांति नहीं था तो कम से कम यह विद्रोह तो था ही. आप होते तो आपको भी मजा आता.

लेकिन इसका अंत बहुत बुरा हुआ. उत्तर-पूर्वी दिल्ली में फरवरी में 53 लोग मार दिए गये और इसका सारा आरोप पूरी तरह शांतिपूर्ण सीएए-विरोधी आंदोलनकारियों के ऊपर डाल दिया गया. हथियारबंद निगरानी गिरोह, जो आसपास के मजदूर इलाकों में दंगा, आगजनी और हत्याएं कर रहे थे और जिसे हमेशा ही पुलिस का सहयोग मिला है, के आये वीडियो से स्पष्ट होता है कि यह सुनियोजित हमला था. तनाव तो कुछ दिनों से बना हुआ था और स्थानीय लोग भी तैयार थे. वे लोग लड़े भी, लेकिन जैसा कि हमेशा से होता रहा है, पीड़ितों को उत्पीड़क बना दिया गया. कोविड तालाबंदी के आवरण में सैकड़ों युवाओं, जो ज्यादातर मुसलमान हैं और जिसमें से बहुसंख्य विद्यार्थी हैं, उन्हें दिल्ली और उत्तर प्रदेश से गिरफ्तार कर लिया गया है. यह बात भी फैल रही है कि पकड़े गये कुछ युवाओं पर दबाव डालकर अन्य दूसरे वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को उसमें शामिल किए जाने की योजना बनाई जा रही है जिनके खिलाफ पुलिस के पास कोई सबूत नहीं है.

कथाकार एक नई कहानी को विस्तार देने में व्यस्त है. कथासूत्र यह है कि जब राष्ट्रपति ट्रम्प दिल्ली में मौजूद थे उस वक्त दिल्ली में नरसंहार करके केन्द्र सरकार को शर्मिंदगी में डालने का एक बड़ा षडयंत्र रचा गया. इन योजनाओं की तैयारी की तिथि जब पुलिस सामने लेकर आई तो पता चला कि वे तिथियां तो ट्रम्प की यात्रा का फैसला तय होने के पहले की हैं- मतलब किस तरह से सीएए विरोधी कार्यकर्ता व्हाइट हाउस के भीतर तक घुसे हुए थे! और, यह षडयंत्र था किस तरह का? प्रदर्शनकारियों ने खुद को ही मार लिया जिससे कि सरकार की साख पर बट्टा लगाया जा सके?

सब कुछ सिर के बल खड़ा है. मारा जाना ही अपराध हो गया है. वे आपकी लाश के खिलाफ केस दर्ज कर लेंगे और आपकी आत्मा को पुलिस स्टेशन आने का समन जारी करेंगे. जब मैं यह लिख रही हूं उसी समय अररिया, बिहार से खबर आ रही है कि एक महिला, जिसने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी कि उसके साथ गैंगरेप हुआ है- उस महिला और उसके साथ आई महिला कार्यकर्ता को गिरफ्तार कर लिया गया है.

बिहार में पुलिस की कार्रवाई के खिलाफ प्रदर्शन

कुछ ऐसी बेचैन करने वाली घटनाएं घटित हो रही हैं जिसमें जरूरी नहीं है कि खून बहे, उन्मादी भीड़ हत्या करे, सामूहिक नरसंहार हो या फिर बड़े पैमाने पर लोगों को सलाखों के पीछे डाल दिया जाए. कुछ ही दिन हुए, कुछ लोगों ने या कह लीजिए गुंडों ने इलाहाबाद में जबरदस्ती एक गली में निजी घरों को भगवा रंग में रंग दिया और उन घरों पर बड़े-बड़े हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीरें बना दीं. कुछ कारणों से मुझे सिहरन सी महसूस हो रही है.

सच पूछिए तो, मुझे पता नहीं चल रहा है कि भारत देश कितने दिनों तक इस रास्ते पर चलेगा.

जब आप जेल से बाहर निकलेंगे तब आप पाएंगे कि यह दुनिया कितनी बदली हुई है. कोविड-19 और रुग्ण सोच वाली हड़बड़ी में की गई तालाबंदी ने तबाही मचा दी है. इसके शिकार सिर्फ गरीब ही नहीं हुए हैं बल्कि मध्यवर्ग भी हुए हैं. हिंदुत्व ब्रिगेड के लोग भी इसकी जद में आए हैं. क्या आप इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि महीनों तक चलने वाली देशव्यापी कर्फ्यू जैसी तालाबंदी लगा देने के लिए 138 करोड़ लोगों को सिर्फ चार घंटे (रात्रि के 8 बजे से मध्यरात्रि के 12 बजे तक) की मोहलत दी गई थी? सारी चीजें थम गई थीं- राह चलते मुसाफिर, सामान, मशीन, बाजार, फैक्ट्री, स्कूल, विश्वविद्यालय! चिमनियों से उठता धुआँ, सड़क पर चलते हुए ट्रक, शादियों में आये हुए मेहमान, अस्पतालों में दवा कराते मरीज, वहीं के वहीं ठहर गए. कोई नोटिस तक जारी नहीं हुआ. यह विशाल देश वैसे ही धक्क से बंद हो गया जिस तरह बैट्री से चलने वाले खिलौने की सुई को कोई अमीर बिगड़ैल बच्चा एकदम से खींचकर बाहर फेंक दे. क्यों? क्योंकि वह ऐसा कर सकता है.

कोविड-19 एक ऐसे एक्स-रे में तब्दील हो चुका है जिससे व्यापक संस्थानिक अन्याय- जाति, वर्ग, धर्म और लैंगिक- जिनसे हमारा समाज ग्रसित है, साफ-साफ दिखाई देने लगा है. और यह तबाहीपूर्ण तालाबंदी योजना की बदौलत हुआ है. अर्थव्यवस्था ढह जाने की कगार पर है जबकि वायरस अपनी राह पर है और बढ़ता जा रहा है. ऐसा लग रहा है मानो ठहराव की सतह से ऊपर चल रहे विस्फोटों के साथ हम जी रहे हैं. इस दुनिया के टूटे-बिखरे हर टुकड़े, जिनके बारे में हमें पता है, सब कुछ हवा में लटके हुए हैं… हम अब भी नहीं जान पाए हैं कि ये टूटी-बिखरी दुनिया कहां आकर गिरेगी और किस हद तक नुकसान कर जाएगी.

लाखों मजदूर शहरों में ठहर गये. उनके लिए न आवास था, न भोजन था, न पैसे थे और न ही परिवहन की व्यवस्था थी. वे अपने गांव पहुंचने के लिए सैकड़ों और हजारों किलोमीटर पैदल ही निकल पड़े. जब वे चल रहे थे तब भी उन्हें पुलिस के हाथों मार खानी पड़ रही थी और उन्हें अपमानित होना पड़ रहा था. इस निर्गमन में वैसा कुछ था जिसने मुझे जॉन स्टाइनबेक की ‘द ग्रेप्स ऑफ रैथ’ की याद दिला दी. इस किताब को मैंने अभी हाल में ही पढ़ा है. क्या किताब है! उपन्यास में जो घटित होता है (इसमें अमेरिका में मंदी के दौरान हुए विशाल देशांतर गमन का वर्णन है) और हमारे यहां के बीच जो भेद है वह यही दिखाता है कि भारत की जनता में गुस्से का बिल्कुल अभाव था. हां, कभी-कभार गुस्सा विस्फोट में जरूर बदला लेकिन वह वैसा कभी नहीं हुआ जिसे नियंत्रित नहीं किया जा सके. यह सिहरा देने वाली बात थी कि लोगों ने तबाही को स्वीकार कर लिया. कितनी आज्ञाकारी जनता है. यह शासक वर्ग (और जाति) के लिए बहुत ही सहज हो जाता है. इससे पता चलता है कि ‘जनता’ में भुगतने और सहने की कितनी भयानक क्षमता है, लेकिन आशीर्वाद या श्राप को झेलने की जो क्षमता है, यह क्या है? कैसा गुण है या अभिशाप है? इसपर मैंने काफी मनन किया.

जब लाखों मजदूर महान यात्रा (लॉंग मार्च) पर निकल पड़े थे तब टीवी चैनल्स और मुख्यधारा की मीडिया ने अचानक ही ‘प्रवासी मजदूर’ की अवधारणा खोज निकाली. ढेर सारे कॉरपोरेट-प्रायोजित मगरमच्छी आंसुओं को इन प्रवासी मजदूरों के शोषण के लिए बहाया जाने लगा. रिपोर्टर अपने माइक्रोफोन को चल रही जनता के मुंह में ठूंस कर पूछने लगे, ‘आप कहां जा रहे हैं? आपके पास कितने पैसे बचे हैं? आप कितने दिनों तक चलते रहेंगे?’

लेकिन आप और आप जैसे दूसरे लोग जो जेलों में बंद हैं, इसी मशीन के खिलाफ आंदोलन करते रहे हैं जो ऐसी ही उजाड़ और गरीबी को जन्म देती है. वही मशीन जो पर्यावरण का विनाश करती है और लोगों को जबर्दस्ती गांवों से उजाड़ती है. आप जैसे लोग ही तो न्याय की बात करते हैं. और, बिल्कुल इन्हीं टीवी चैनलों पर, वे ही पत्रकार और टिप्पणीकार उन्हीं मशीनों का गुणगान करते हैं. वे ही आप पर इल्जाम लगाते हैं, आपको दागदार बनाते हैं और बदनाम करते हैं. और अब देखिये, वही मगरमच्छी आँसू बहा रहे हैं. वे भारत के अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद के ऋणात्मक 9.5 फीसदी विकास दर से डरे हुए हैं- जबकि आप जेल में बंद हैं.

चीन की सेना हमारी सीमा में घुस आई है. लद्दाख में कई बिंदुओं पर उसने वास्तविक नियंत्रण रेखा को पार कर लिया है… बातचीत जारी है. जो भी हो, भारत जीत रहा है, लेकिन सिर्फ भारतीय टेलीविजन पर.

इन बहते आंसुओं के बीच भी सरकार के नहीं झुकने की बात पर मीडिया उसकी तारीफ में जुटा हुआ है. कई बार तो उत्साही स्वागत की बाढ़ ही आ जाती है. तालाबंदी के दौरान मैंने पहला उपन्यास वैसीली ग्रासमैन का स्टालिनग्राद पढ़ा. (ग्रासमैन लाल सेना की अग्रिम कतार के सिपाही थे. उनकी दूसरी किताब ‘लाइफ एंड फेट’ (जीवन और भाग्य था) जिससे सोवियत सरकार नाराज हो गई थी और पांडुलिपि को ‘गिरफ्तार’ कर लिया गया था- जैसे कि वह इंसान हो.) यह जीवट से भरी महत्वाकांक्षी किताब है. ऐसी जीवटता सृजनात्मक लेखन की कक्षाओं में नहीं पढ़ाई जा सकती. खैर, जिन कारणों से इस किताब का मेरे मन में विचार आया वह अद्भुत तरीके से किया गया वह वर्णन है जिसे एक वरिष्ठ नाजी जर्मन ऑफिसर ने रूस में अग्रिम मोर्चे की लड़ाई से भागने के बाद बर्लिन पहुंचने पर किया है. जर्मनी के लिए युद्ध शुरू से ही गलत दिशा में मुड़ गया था और वह अफसर हिटलर को इस बात को बताना चाह रहा है, लेकिन जब वह हिटलर के सामने आता है तब वह अपने मालिक से इस कदर घबरा जाता है और इतना रोमांचित हो जाता है कि उसका दिमाग पूरी तरह काम करना बंद कर देता है. वह लगातार इस बात की कोशिश कर रहा है कि कैसे हिटलर को खुश कर दिया जाये, कुछ ऐसा कह दिया जाये जो उसे पसंद आवे.

वैसीली ग्रासमैन का स्टालिनग्राद

बिल्कुल यही वह बात है जो हमारे देश में हो रहा है. पूरी तरह सक्षम लोगों का दिमाग डर और चापलूसी करने की इच्छा से सुन्न पड़ गया है. हमारा सामूहिक विवेक गिरवी रख दिया गया है. वास्तविक खबर को कोई भी मौका नहीं मिल पा रहा है.

बहरहाल, महामारी तेजी से आगे फैल रही है. यह महज संयोग नहीं है कि इक्कीसवीं सदी में इस महामारी से दुनिया में सबसे अधिक प्रभावित देशों की घुड़दौड़ में जीत हासिल करने वाले देशों की कमान तीन जीनियस लोगों के हाथ में है- मोदी, ट्रम्प और बोल्सोनारो. उनका सिद्धांत, दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री (भाजपा के इर्द-गिर्द ऐसे मंडरा रहे हैं मानो पराग पर मधुमक्खी) के अमिट शब्दों की तरह हैः अब तो हम दोस्त हैं न?

ऐसा लगता है कि नवम्बर में होने वाले चुनाव में ट्रम्प हार जाए, लेकिन भारत में ऐसा कोई लक्षण नहीं दिख रहा. विपक्ष भुरभुरे की तरह बिखर रहा है. नेता शांत हैं, झुके हुए हैं. चुनी हुई राज्य सरकारों को इस तरह गिराया जा रहा है जैसे कॉफी के कप में उठते हुए झाग को फूंक कर हटा दिया जाता है. गद्दारी और दलबदल को दैनिक समाचारों में उल्लास का विषय बनाकर पेश किया जा रहा है. विधायकों का हांकना अनवरत जारी है और उन्हें छुट्टी बिताने वाले रिजोर्ट्स में ले जाकर बंद करके रखा जाता है जिससे उन्हें घूस देकर खरीदा न जा सके. वैसे मेरा मानना है कि जो बिकने के लिए तैयार हैं उनकी बोली सार्वजनिक तौर पर लगनी चाहिए जिससे कि उसकी ऊंची कीमत लगाई जा सके. आपका क्या कहना है? क्या उनसे किसी को कोई लाभ होगा? खैर, छोड़िये उन्हें. आइए, हम वास्तविक बातों से रूबरू होंः वास्तव में, हम एकपार्टी लोकतंत्र में दो व्यक्तियों द्वारा शासित हैं. मैं नहीं जानती कि कितने लोग इसे जानते हैं कि यह विरोधाभासी एकता है.

तालाबंदी के दौरान बहुत से मध्यमवर्गीय लोगों ने शिकायत की कि वे जेल जैसा महसूस कर रहे हैं, लेकिन आप लोग जानते हैं कि यह बात सच्चाई से कितनी दूर है. ये लोग अपने घरों में अपने परिवारों के साथ हैं (हालांकि बहुत से लोग, खासकर महिलाओं ने सभी तरह की हिंसा को झेला है). वे अपने प्रिय लोगों के साथ बातचीत कर रहे थे. वे अपना काम भी कर रहे थे. उनके पास फोन था. उनके पास इंटरनेट था. उनकी हालत आप जैसे लोगों की तरह नहीं थी और न ही उनकी हालत कश्मीर की जनता की तरह थी जो एक खास तरह की आसन्न तालाबंदी और इंटरनेट बंदी में पिछले साल के 5 अगस्त से ही है जबसे धारा 370 को खत्म किया गया और जम्मू-कश्मीर से उसका विशेष दर्जा और राज्य होने को ही छीन लिया गया.

यदि दो महीने की तालाबंदी ने भारत की अर्थव्यवस्था पर इस कदर असर डाला है तो आप कश्मीर के बारे में सोच सकते हैं जहां साल भर से बहुत बड़े हिस्से में इंटरनेट बंदी के साथ-साथ सैन्य लॉकडाउन भी चल रहा है. व्यापार विनाश के कगार पर है, डॉक्टरों पर मरीजों को देखने का जबर्दस्त दबाव है, छात्र ऑनलाइन कक्षाओं में भी उपस्थिति नहीं बना पा रहे हैं. साथ ही, 5 अगस्त से पहले ही हजारों कश्मीरियों को जेल में डाल दिया गया है. यह पूर्व-तैयारी थी- सुरक्षा कारणों से की गई गिरफ्तारियां. सारी जेलें ऐसे लोगों से भरी हुई हैं जिन्होंने कोई अपराध ही नहीं किया है, अब उन्हें कोविड हो रहा है. यह सब कैसा लगता है?

धारा 370 को खत्म करना हेकड़ी का नतीजा है. इसे ‘एक बार और अंतिम बार’- जैसा कि बताकर डींग हांकी जा रही है- के लिए हल करने के बजाय एक ऐसी स्थिति में ला दिया है जिससे पूरे क्षेत्र में कुलबुलाहट पैदा हो गयी है. बड़ी चट्टानें हिल रही हैं और खुद को पुनर्व्यवस्थित कर रही हैं. इन बातों को जानने वाले लोग जानते हैं कि चीन की सेना ने सीमा पार कर ली हैः वास्तविक नियंत्रण रेखा भी और लद्दाख के बहुत से बिंदुओं को भी पार किया है और रणनीतिक पोजीशन पर कब्जा जमा लिया है. चीन के साथ युद्ध पाकिस्तान के साथ युद्ध से बिल्कुल अलग है. इसीलिए, आमतौर पर छाती ठोंक कर बात कहने का बहुत कम महत्व है- यह ठोंकने से ज्यादा प्यार से थपथपाने जैसा हो गया है. बातचीत चल रही है. जो भी हो, भारत जीत रहा है भारत के टीवी चैनलों पर. लेकिन टीवी से इतर एक नई दुनिया बनते हुए दिखाई दे रही है.

इतनी लंबी चिठ्ठी लिखने की अपेक्षा मुझे नहीं थी लेकिन यह कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया. अब मैं विदा लेती हूं. मित्र, आप साहस रखिए और धैर्य भी रखिए. यह अन्याय बहुत लंबा नहीं चलने वाला है. जेल के दरवाजे खुलेंगे और आप हमारे बीच आएंगे. जो चल रहा है वह बहुत लंबा नहीं चल सकता है. अगर वह वैसा ही चलता रहे, तो जिस गति से हम चले आ रहे हैं, नष्ट होने की गति वह खुद ही पकड़ लेगा. हमें कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. अगर ऐसा होता है तो यह एक भयानक त्रासदी होगी और इसका परिणाम अकल्पनीय होगा. लेकिन इस तबाही के मंजर में भी आस है, कुछ तो अच्छा होगा और बुद्धिमत्ता की जीत होगी.

सप्रेम

अरुंधति

(साभार - जनपथ)

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