कांग्रेस आज संकट में है तो इसका कारण सिर्फ यह नहीं है कि उसमें नेतृत्व का अभाव है.
पिछले कुछ दिनों से राजस्थान सरकार में चल रहे आपसी घमासान ने एक नई ऊंचाई को छू लिया है. सचिन पायलट को उपमुख्यमंत्री के साथ-साथ राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद से भी हटा दिया गया है. मोटे तौर पर यह तय हो गया है कि सचिन पायलट अब कांग्रेस में नहीं रहेंगे. हां, वह विधायक रहेंगे या नहीं इसका फैसला अब फिर से कांग्रेस पार्टी के हाथ में ही रह गया है.
लेकिन यह बात इतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी यह, कि राजस्थान कांग्रेस को छोड़िए, खुद कांग्रेस पार्टी का भविष्य क्या है?
पिछले हफ्ते वरिष्ठ पत्रकार व पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया एडवाइजर हरीश खरे ने द वायर में एक लेख लिखकर कहा था कि गांधी परिवार को न सिर्फ लुटियन्स दिल्ली को खाली करना चाहिए, बल्कि कांग्रेस पार्टी से भी बाहर कर दिया जाना चाहिए. हरीश खरे उस तरह के पत्रकार हैं जिनकी बातों को हवा में नहीं उड़ाया जा सकता है और न ही उन्हें उन दरबारी पत्रकारों में गिना जा सकता है जो मोदी से किसी पद की अपेक्षा में ऐसा कुछ कह सकते हैं. न ही वे टिप्पणीकार रामचन्द्र गुहा की तरह हैं जिन्होंने कुछ साल पहले कहा था कि कांग्रेस को खत्म कर दिया जाना चाहिए (राम गुहा पर हर हफ्ते ‘करामात’ दिखाने का दबाव भी रहता होगा). न ही हरीश खरे योगेन्द्र यादव की तरह कोई राजनीतिक दल चलाते हैं जिन्हें लगता है कि कांग्रेस के खत्म होने पर ही उनकी पार्टी फल-फूल पाएगी. फिर सवाल उठता है कि हरीश खरे जैसे महत्वपूर्ण कमेंटेटर को ऐसा क्यों कहना पड़ रहा है कि राहुल-प्रियंका को कांग्रेस से बाहर हो जाना चाहिए जिससे कि कांग्रेस का लगातार रसातल में जाना रुक जाएगा?
इस सवाल का जवाब अगर सिर्फ राजस्थान, मध्यप्रदेश या फिर कर्नाटक के संकट को ध्यान में रखकर देखेंगे तो पूरी स्थिति को समझना काफी मुश्किल हो जाएगा. हां, यह सही है कि संदर्भ वही रखना होगा लेकिन कांग्रेस की सीमा और समस्या को समझने के लिए पार्टी के भीतर की संरचना को समझना ज्यादा जरूरी है जिससे कि कांग्रेस का संकट समझने में मदद मिले.
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पिछले 73 वर्षों के कांग्रेस को देखें तो हम पाते हैं कि हर समय कांग्रेस पार्टी कोई न कोई सामाजिक और राजनीतिक समीकरण बनाया करती थी. आजादी के तुरंत बाद से ब्राह्मण, मुसलमान और दलित उस पार्टी का स्थायी वोटर हुआ करता था, लेकिन 1989 के बाद पहली बार मुसलमान और दलित उससे छिटका. बीजेपी दूसरी बार (जनसंघ अवतार के बाद) जनता दल के साथ मिलकर अपनी संख्या दो से बढ़ाकर 89 तक ले गयी. स्वाभाविक था कि ब्राह्मणों का एक बड़ा सा भाग कांग्रेस से अलग हटकर बीजेपी व जनता दल की तरफ चला गया था.
1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद ब्राह्मण नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने. गोबरपट्टी के ब्राह्मणों ने उन्हें ब्राह्मण भले ही माना हो लेकिन नेता मानने से इंकार कर दिया. इसका महत्वपूर्ण कारण यह भी रहा कि तब तक भारतीय जनता पार्टी एक बड़ी पार्टी बन गई थी और उस पार्टी का नेतृत्व गोबरपट्टी के ही एक ब्राह्मण अटल बिहारी वाजपेयी के हाथ में था. चूंकि राजीव गांधी की हत्या हो गयी थी, नेहरू-गांधी की विरासत खत्म हो चुकी थी और नेतृत्वविहीन ब्राह्मण समाज ने अपना नेता वाजपेयी को चुन लिया था इसलिए ब्राह्मणों का कांग्रेस की तरफ लौटने का सवाल ही नहीं था. इसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मणों ने सामाजिक रूप से अपने को पूरी तरह कांग्रेस से काट लिया.
वैसे यह कहना भी अर्धसत्य होगा कि बस वही एकमात्र कारण था, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारण तो था ही.बीजेपी ने सवर्णों में अपनी पैठ मंडल आयोग की अनुशंसा का विरोध करके बनायी थी लेकिन यह बात भी उतनी ही सही है कि मंडल के विरोध में राजीव गांधी की मंडली के एसएस अहलूवालिया सीधे राजीव गांधी के निर्देश पर दिल्ली विश्वविद्यालय में मंडल विरोधी आंदोलन को हवा दे रहे थे. कांग्रेस का दुर्भाग्य यह रहा कि राजीव गांधी की पेरंबदूर में लिट्टे ने हत्या कर दी. शायद वह हत्या न हुई होती तो गोबरपट्टी का ब्राह्मण पूरी तरह कांग्रेस से मुंह नहीं मोड़ता.
कांग्रेस पार्टी का दूसरा बड़ा संकट यह भी रहा कि गोबरपट्टी के हर राज्य में कांग्रेस का कोर वोटर उसे छोड़कर अलग पार्टी के साथ चला गया. बिहार में राष्ट्रीय जनता दल बन गया, झारखंड में वह झारखंड मुक्ति मोर्चा बना, उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी व समाजवादी पार्टी बन गयी. कुल मिलाकर पुराना वोटर पार्टी छोड़कर अलग रास्ता चुनता चला गया लेकिन पार्टी ने नये वोटरों को बनाने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया.
जब 2004 में कांग्रेस पार्टी सत्ता में लौटी तो एकाएक मलाई खाने व चाहने वालों को लगा कि कांग्रेस पार्टी के साथ रहकर मलाई खायी जा सकती है. कांग्रेस गठबंधन के साथ दस वर्षों तक सत्ता में रही, लेकिन संगठन स्तर पर कोई काम नहीं हुआ. वैसे भी पार्टी की वैचारिक रूप से कोई प्रतिबद्धता रह नहीं गयी थी. इसका परिणाम यह हुआ कि उसके जो भी कार्यकर्ता थे, अपने को स्थापित करने के लिए जिस किसी भी दल ने अपना हाथ बढ़ाया उसी का हाथ थामकर उसी दल के साथ हो लिए. सबसे अधिक कांग्रेसी बीजेपी में इसलिए गये क्योंकि बीजेपी का चरित्र कांग्रेस के चरित्र से काफी मिलता-जुलता रहा है. इसी को अरुण शौरी जैसे दक्षिणपंथी पत्रकार ‘बीजेपी माइनस काऊ बराबर कांग्रेस’ कहते हैं (बीजेपी-गाय= कांग्रेस).
इसलिए सवाल यह है ही नहीं कि कांग्रेस को बचाया जा सकता था. यहां सवाल यह था कि कांग्रेस किस जाति या समुदाय के साथ गठबंधन करती जिससे कि उसकी डूबती हुई लुटिया को बचाया जा सकता था? क्या उस डूबती हुई नैया को पूरी तरह डुबाने का श्रेय राहुल गांधी को दिया जाना चाहिए? शायद यह कहना राहुल गांधी के साथ नाइंसाफी होगी.
कांग्रेस कार्यसमिति
तब कांग्रेस की इस गति के लिए जिम्मेदार कौन है? यह तो कहना ही पड़ेगा कि इसके लिए जिम्मेदार कांग्रेस का वह जातिवादी खेमा जिम्मेदार है जिसमें आज भी अधिकांश सवर्ण कुंडली मारकर बैठे हुए हैं. कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों को देखिएः 21 लोगों में छत्तीसगढ़ के ताम्रध्वज साहु एकमात्र पिछड़ा और राजस्थान के रघुवीर सिंह मीणा एकमात्र आदिवासी हैं और सारे के सारे सवर्ण हैं. जनाधार वाले नेताओं में राहुल गांधी व प्रियंका गांधी के अलावा तरुण गोगोई, अधीर रंजन चौधरी, एके एंटनी, ओमन चांडी, मल्लिकार्जुन खड़गे व हरीश रावत हैं, जिनका अपना जनाधार है, जो जनता से सीधे संवाद में जा सकते हैं.
हमें इस बात को भी याद रखना चाहिए कि गोबरपट्टी में कुल 211 लोकसभा की सीटें हैं (बिहार-40, उत्तर प्रदेश-80, राजस्थान-25, मध्यप्रदेश-29, छत्तीसगढ़-11, झारखंड-14, दिल्ली-7, उत्तराखंड-5 और हरियाणा में 10 सीटें है.) हम इस बात का अंदाजा लगाएं कि लगभग चालीस फीसदी सीटें जिन राज्यों से आती है और जहां दलितों-पिछड़ों की राजनीति का सबसे ज्यादा उभार है वहां से कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी एक पिछड़ा और एक आदिवासी है!
इसके अलावा कांग्रेस पार्टी के नेताओं का नैतिक और आर्थिक भ्रष्टाचार में पूरी तरह लिप्त होना भी पार्टी के पतन का महत्वपूर्ण कारण रहा है. ऐसा भी नहीं है कि भाजपा या अन्य दूसरी पार्टियों में कम भ्रष्टाचारी हैं. अगर भ्रष्टाचार के बीज देखना चाहें तो हम पाते हैं कि आर्थिक भ्रष्टाचार में वामपंथी दलों को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है जो इसमें आकंठ नहीं डूबा है, लेकिन सत्ता के बिना कांग्रेसी बिन जल मछली की तरह हो जाते हैं और बीजेपी उसे हर तरह से जल मुहैया कराती है.
कांग्रेस आज संकट में है तो इसका कारण यह नहीं है कि उसमें सिर्फ नेतृत्व क्षमता की कमी है. कांग्रेस आज संकट में है तो इसका मुख्य कारण यह है कि नेतृत्व मठाधीशों की गिरफ्त में है जिसे यह नहीं तय करने दिया जा रहा है कि पार्टी का जनाधार वही सवर्ण होगा जो पिछले तीस वर्ष पहले किसी और से गठबंधन कर भाग गया था या फिर दलित-आदिवासी, पिछड़ा व अल्पसंख्यक होगा, जो कांग्रेस की तरफ आना तो चाहता है लेकिन घनघोर मठाधीशों को देखकर दरवाजे पर दस्तक देना भी नहीं चाहता है.
कांग्रेस पार्टी के साथ एक संकट यह भी है कि वह जनता के बीच जाना ही नहीं चाहती है, लेकिन यह संकट सिर्फ कांग्रेस पार्टी का नहीं है बल्कि इस संकट का सामना बीजेपी को छोड़कर सभी राजनीतिक दलों को करना पड़ रहा है, यहां तक कि वामपंथी दलों को भी.
इसलिए जो व्यक्ति कांग्रेस के इस संकट को राहुल-प्रियंका के नेतृत्व का संकट कहकर खारिज करना चाह रहे हैं वे जान-बूझ कर इस तथ्य को नकार रहे हैं कि आज की राजनीति में सबसे अधिक लोकतंत्र सिर्फ कांग्रेस में बचा है, किसी और दल में नहीं. अगर न विश्वास हो तो कोई एक भी वैसा उदाहरण लाकर दिखा दें जिसमें मोदी-शाह के खिलाफ कोई चूं तक का विरोध दिखा हो, नीतीश कुमार के खिलाफ कोई विरोध के स्वर हों, बीजू पटनायक के खिलाफ कोई आवाज सुनाई पड़ी हो, ममता बनर्जी के खिलाफ कोई विरोध हो, जगन मोहन रेड्डी के खिलाफ कोई स्वर हो, चन्द्रशेखर राव के खिलाफ विरोध का स्वर हो, लालू-राबड़ी के खिलाफ कोई मोर्चा हो, अखिलेश यादव के खिलाफ हो या फिर बहन मायावती के खिलाफ?
हां, राजनीति सबसे मुश्किल पेशा है जिसमें 24 घंटे काम करते रहने की जरूरत है, दुर्भाग्य से नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के अलावा आज के दिन किसी में भी यह माद्दा दिखाई नहीं पड़ता है!
(जनपथ से साभार)