बच्चों की शिक्षा पर चिंताग्रस्त साथियों को सुकमा से एक ग्रामीण शिक्षक का खुला पत्र.
मेरे प्रिय साथियों,
मुझे यकीन है आप सभी कोरोना महामारी के चलते बच्चों की शिक्षा को लेकर बहुत चिंतित होंगे. भारत में लगभग 25 करोड़ बच्चे पहली से 12वीं तक 15.5 लाख स्कूलों में पढ़ते हैं. इनमें 70% स्कूल सरकारी हैं. विश्व भर में कोविड-19 से बचाव के लिए लोगों के किसी भी जगह इकठ्ठा होने पर पाबंदी लगा दी गयी और ज़ाहिर सी बात है स्कूलों और आंगनबाड़ियों को भी बंद कर दिया गया.
स्कूलों के बंद हो जाने पर बच्चे, उनके अभिभावक, शिक्षक, प्रशासन और गैर-सरकारी सामाजिक संस्थाएं एक नए प्रश्न से जूझने लगे हैं: अब बच्चे सीखेंगे कैसे? या शायद ज्यादा उपयुक्त वाक्य हो: अब हम बच्चों को सिखाएंगे कैसे? (यहां पर मुख्य रूप से स्कूली शिक्षा की बात होती दिखाई दे रही हैं) इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण प्रश्न हैं कि बच्चों पर इस लॉकडाउन का शारीरिक और मानसिक रूप से क्या प्रभाव पड़ेगा? ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में ये प्रभाव अलग होंगे या एक जैसे? पर इस तरीके के गहरे सवाल पर फिलहाल चर्चा कम है.
सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं की तरफ से तीव्र प्रतिक्रिया देखने को मिली है. चूंकि लॉकडाउन की वजह से ज़्यादातर लोग अपने-अपने घरो में सिमट कर रह गए, ऑनलाइन माध्यम को आज़माने की एक तूफानी लहर दौड़ी. कोई इस माध्यम का प्रयोग कर पाठ पढ़ाने लगा, कोई कहानी सुनाने लगा तो कोई गणित के खेल खिलाने लगा.
क्या आपको पता है कि यूट्यूब पर इतने वीडियोज़ हैं कि बिना पलक झपके अगर आप लगातार देखते रहें तो सारे वीडियोज़ देखने में 60000 साल से भी ज्यादा लगेंगे. खैर, फिर भी नए वीडियो बनाने की ज़रुरत पड़ी और बहुतायत में लोगों ने बनाई और बना ही रहे हैं.
मैंने भी बनाई. खूब कहानियां पढ़ी और सुनाई. लोगों ने देखी और बच्चों को मज़ा आया. थोड़ा बहुत शायद कुछ सीख भी लिया हो. मैंने लॉकडाउन सुनते ही यह करने का निश्चय कर लिया था और इसके पहले दिन से ही यूट्यूब पर वीडियोज़ पोस्ट करना शुरू कर दिया. यह मेरी बिना सोची-समझी प्रतिक्रिया थी. चूंकि मैं पुस्तकों और पुस्तकालयों से बेहद प्यार करता हूं (पुस्तकालय-स्कूल व सार्वजनिक-बंद होने की वजह से बच्चों को पुस्तकें पढ़ने का मौका नहीं मिल रहा है) सो मैंने सोचा कि इन्टरनेट के माध्यम से बच्चों को कहानियां सुनाऊंगा. और लगभग 40 दिनों में मैंने यह समाप्त भी कर दिया. मुझे लगता है पूरे देश में यह शिक्षा के नज़रिए से देखें तो सबसे तेज़ प्रतिक्रियाओं में से एक रहा होगा.
हालांकि ये बात जल्द ही सबकी नज़र में आ गयी कि भारत के ज़्यादातर बच्चों के पास या तो कोई इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे मोबाइल व कंप्यूटर नहीं हैं या फिर इन्टरनेट की बड़ी समस्या है. घर पर मोबाइल होने का कतई मतलब नहीं कि बच्चा उसमे वीडियो देख सके और कुछ सीखे-पढ़े. बहुत से गांवों में तो बिजली भी अपने मनमर्जी आती-जाती है.
मेरी यूट्यूब पर सुनाई-पढ़ी कहानियां भी शहरी बच्चों तक ही पहुंच पाई. ख़ास करके उन बच्चों तक जिनके मां-बाप इस बदलाव के चलते अपने बच्चों को मोबाइल वगैरह खरीद कर दे रहे हैं. मैं पहली लड़ाई ही हार गया. जिन बच्चों को मैं 5 साल से जानता हूं उन तक ही नहीं पहुंच सका.
कुछ समझदार लोगों ने ये बात पकड़ ली और ऑफलाइन तरीके पर भी सोचना शुरू किया गया. इसपर मैं बाद में आऊंगा.
हम सुकमा जिले में काम करते हैं और लगभग 5 सालों से यहां रह रहे हैं. इतना तो जानते हैं कि बच्चों के पास मोबाइल नहीं है.पालक के पास इक्का-दुक्का मिल जाएगा. युवा पीढ़ी के पास डब्बा फोन मिलेगा और एक-आध के पास टच स्क्रीन. पर उससे बड़ी बात ये है कि ज़्यादातर गांव में नेटवर्क नहीं पकड़ता है और अगर पकड़ भी ले तो बहुत कमज़ोर. इन्टरनेट उपयोग कर पाने के लिया अच्छे नेटवर्क सिग्नल की ज़रुरत पड़ती है जो रोड से जुड़ते कुछेक गांवों में ही संभव है.
ये तो पक्का था कि यहां कोई ऑनलाइन कार्यक्रम नहीं चलने वाला. अगर कोई चलाने का दावा करे तो उसे मेरा सलाम. कार्यक्रम चलाने का ये मतलब नहीं कि मेरे पास महंगा मोबाइल है तो मैं किसी गांव जाकर कभी-कभार एक-दो वीडियो बच्चों को बैठाकर ज़बरदस्ती दिखा दूं. पर हां! जिनके पास सम्पूर्ण सुविधा है उन लोगों तक तो हमेशा ही पहुंचा जा सकता है इसलिए इन ऑनलाइन कार्यक्रमों से कुछ-न-कुछ गांव के बच्चे फायदा उठा ही रहे होंगे. बस कंटेंट अच्छा होना चाहिए. सुकमा जैसे हज़ारों गांव हैं जहां ऑनलाइन कार्यक्रम चलाना बेतुकी बात है. और यह कहने के लिए मुझे आंकड़ा दिखाने की कोई ज़रुरत नहीं है. अगर आप भारत को ज़रा भी समझते हैं और थोड़ा बहुत घूमे हैं तो आप इस तरीके का अंदाजा सटीक तरह से लगा सकते हैं.
प्रतिक्रिया की बात हो रही है तो यह भी हुआ कि कुछ राज्य सरकारों ने ऑनलाइन शिक्षा पोर्टल लॉन्च कर दिया. अब राज्य सरकारों को केंद्र सरकार के सामने चमकने के लिए कुछ तो करना ही था. शिक्षकों ने धड़ा-धड़ घर बैठे वीडियो वगैरह तैयार कर अपलोड कर दिया और लो! ऐसा कीचड़ आपने शायद ही कहीं देखा हो. इतने घटिया वीडियो तैयार किए गए कि बच्चा देखकर कहीं मोबाइल ना तोड़ दे. कोई बिस्तर पर लेटे पन्ने पलटता हुआ कुछ बडबड़ा रहा था तो कोई पुस्तक में दिए किसी पाठ को रेलगाड़ी की तरह तेज़ रफ़्तार में पढ़ता ही चला जा रहा था.लेकिन सोचने वाली बात यह है कि कितने ही बच्चे होंगे जो इन ऑनलाइन पाठों को देख-सुन पाएंगे? एक ज़रूरी बात यह है कि यह सब कुछ सरकारी स्कूलों के बच्चों के लिए एक प्रयास है. गांव के तो ज़्यादातर बच्चे इन्हीं स्कूलों में जाते हैं. शहर का एक हिस्सा जो कई हद तक उत्पीड़ित और मजबूर होता है वही सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को भेजता है.
गांव के बच्चों से तो स्कूल वैसे भी हिंसात्मक व्यवहार करते हैं. हर जगह शिक्षकों का समुदाय बच्चों को मारने-डांटने, नीचा दिखने, कमज़ोर बताने में लगा रहता है. अब घटिया वीडियो बनाकर ये सिद्ध कर रहे हैं कि इन्हें परवाह ही नहीं बच्चे सीखें या ना सीखें. जो आदेश आया है उसका पालन कर अपनी नौकरी बचा लो बस.ये बात मान क्यों नहीं लेते कि ऑनलाइन माध्यम पर पठन-पाठन कैसे हो, ये सीखने की ज़रुरत है और इसपर काम करें. ये कक्षा में बच्चों के सामने पढ़ाने से अलग है. कैमरा पर पढ़ाना आसान नहीं. लेकिन नहीं, गुरु कभी सीखता नहीं सिर्फ सिखाता है. पर ठीक ही है. ये बदबूदार पाठ शायद ही बच्चों तक पहुंचेंगे. और अगर पहुंच भी गए तो बच्चे शायद बोर होकर देखना ही छोड़ दें. कोई ज़बरदस्ती करवा ले तो बात अलग है.
भारत सरकार के प्रोग्राम स्वयं (SWAYAM) को भी रौशनी मिली. यहां कक्षा 9वीं से लेकर स्नातकोत्तर तक पढ़ने के लिए सामग्री है. कोई भी मुफ्त में इसका लाभ उठा सकता है. मैंने कुछ वीडियोस देखने की कोशिश की पर नींद आ गयी. ये पहली बार नहीं है जब मैंने भारत में बने मैसिव ओपेन ऑनलाइन कोर्सेस की गुणवत्ता पर प्रश्न किया हो. एमएचआरडी ने ऐसे 19 अलग-अलग मंच तैयार किये हैं जहां सीखा-पढ़ा जा सकता है. ये अच्छी कोशिश है. पर हमारे देश में डिजिटल लर्निंग की आधारिक संरचना के स्तर को सुधारने के लिए बहुत काम करना होगा.
वित्तमंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण ने मई महीने में एक बड़े ही व्यापक पहल की घोषणा की.पीएम ई-विद्या (जिसके अंतर्गत स्वयं और बाकि शिक्षा /शिक्षण सम्बन्धी मंच हैं) और साथ ही मानव संसाधन मंत्री श्री रमेश पोखरियाल निशंक ने “वन नेशन, वन डिजिटल प्लैटफॉर्म” और “वन क्लास, वन चैनल” जैसी बातें सामने रखी. स्कूली शिक्षा से लेकर कॉलेज की पढ़ाई तक ई-लर्निंग को मुमकिन बनाने के लिए अनेक प्रोग्रामों को सामने लाया गया. साथ-ही साथ बच्चों को मनोसामाजिक सहयोग देने के लिए भी पहल की गयी. यह सब पढ़कर मुझे अच्छा लगा. हमारी सरकार कुछ हद तक तो बच्चों के लिए चिंतित है.ई-लर्निंग पर टिप्पणी करते हुए,अश्विन जयंती, जो आईआईआईटी हैदराबाद, में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, उन्होंने द हिंदू अखबार में एमओसीसीपर बड़ी सही बात लिखी है.
कुछ राज्य सरकारों जिन्होंने टीवी का माध्यम चुना उनमें से केरल भी एक है. केरल के कुछ दोस्तों ने मुझे बताया कि वहां TV ज़्यादातर लोगों के घर पर है इसलिए जो कुछ भी पढ़ाया जाएगा वो लगभग सभी बच्चों तक पहुंच जाएगा. यूट्यूब पर भी यह कंटेंट साथ-ही-साथ डाला गया. मुझे इनके पढ़ाने में गुणवत्ता नज़र आई. अच्छी पहल लगी केरल सरकार की. ठीक ऐसी ही कुछ राज्यों में रेडियो को भी चुना गया जो मुझे कुछ हद तक अच्छी पहल लगी. लेकिन सिर्फ टीवी पर देखकर या रेडियो सुनकर बच्चे कितना सीख-समझ सकते हैं उस पर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझ बनाना ज़रूरी है. बच्चे कोई बिंदु नहीं समझ पाने पर प्रश्न कैसे पूछेंगे? टीवी पर तो एक स्क्रिप्ट के साथ शिक्षक पढ़ा देंगे पर वह ये कैसे जान सकेंगे कि बच्चे समझ भी रहे हैं या नहीं? एक तरफ हम छोटे बच्चों को कोई भी चीज़ सिखाने के लिए मल्टीसेंसरी अप्रोच की बात करते हैं, अब तो टीवी, रेडियो या मोबाइल पर ऐसे पीडेगॉजिकल प्रैक्टिस की बात ही ख़त्म हो जाएगी. कुल मिलाकर यहां बात ऐसी है कि सभी कोशिश कर रहे हैं. कुछ नहीं से कुछ-कुछ तो अच्छा ही हैं ना.
शहरों के बहुत से निजी स्कूलों (और बहुत सी गैर-सरकारी संस्थाएं जो बच्चों के साथ काम करती है) ने ज़ूम कॉल, गूगल क्लासरूम, व्हाट्सएप इत्यादिपर बच्चों की क्लास लगानी शुरू कर दी. मैंने अपने कुछ रिश्तेदारों से इस बात पर चर्चा की. ये सभी शहरों में रहते हैं और इनके बच्चे निजी स्कूलों में जाते हैं. इन्होंने बताया कि हफ्ते में 3-4 दिन ऑनलाइन लाइव क्लास लग रही है. बच्चे पढ़ रहे हैं.हालांकि छोटे बच्चों को कंप्यूटर/लैपटॉप के सामने देर तक बैठने में बहुत दिक्कत हो रही है. बच्चे अकड़ जाते हैं और बोरियत से भर जाते हैं. इन निजी स्कूलों के तरीकों को देख मेरे एक मित्र ने मज़ाक में मुझसे पूछ लिया कि मई-जून में तो भारत के बहुत राज्यों में गर्मी की छुट्टी होती है तो फिर ये स्कूल वाले बच्चों की क्लास क्यों लगा रहे हैं?
कुछ अत्यधिक चिंतित अभिभावकों ने तो आजकल के लोकप्रिय ऐप खरीद लिए हैं. एक कंपनी जो बहुत चल रही है वो तो टैबलेट भी साथ में देती है, या कहें कि लेने पर मजबूर कर देती है. हालांकि इसके बदले मोटी रकम भी अदा करनी पड़ती है. एक तरह से शिक्षा को लेकर जितनी निजी कंपनियां हाल-फिलहाल शुरू हुई हैं उन सभी ने विज्ञापन बाज़ार की नौटंकी को पकड़ लिया है. इन्होंने माताओं और पिताओं को विश्वास दिला दिया है कि इनके प्रोडक्ट के बिना उनका बच्चा तो कुछ भी नहीं सीख पाएगा. एक बहुत बड़ा डर पैदा कर दिया.फिर क्या! हो गयी खरीददारी शुरू.अब इनके पाठ भी देख लीजिए! हवा में पढ़ाते हैं. सचमुच हवा में चित्र बना दें, समीकरण हल कर दें और परमाणु के अन्दर ही घुस जाएं.
क्या-क्या नहीं होता हैं बेहतरीकरण के नाम पर.कुछ मामलों में ये चीज़ों को समझने में मददगार भी है.विजुअलाइज़ करना आसान हो जाता है.लेकिन ये महंगे उपाय अमीरों के लिए ही हैं. मैडम यहांसूट पहनकर आती हैं पढ़ाने. सोचिये एक गांव के बच्चे पर क्या असर पड़ेगा इसका. वो तो टूट जाएगा. उसे यकीन आ जाएगा कि ये कंप्यूटर, मोबाइल के अन्दर जो लोग हैं, दुनिया है, वो हमारे गांव से बेहतर है. यहां से ही गांव का पतन शुरू हो जाता है. मेरी व्यक्तिगत राय में तो मुझे इस बात का कोई दुःख नहीं है कि गांव के बच्चे इस तरह के उपकरण और ऐप नहीं खरीद सकते. ये पढ़ाने का ऐसा कोई अजीबोगरीब तकनीक नहीं इस्तेमाल कर रहे हैं जो हमारे सरकारी शिक्षक-शिक्षिकाएं नहीं कर सकते.
मैं ये बिलकुल भी नहीं कह रहा कि यह बकवास है. ये ज़रूर अच्छी चीज़ है. घर बैठे बच्चों को पढ़ने-सीखने का मौका मिल रहा है. पर ये बात समझनी होगी की शहर और गांव अलग होते हैं. आप दोनों जगह के बच्चों को एक ही शरबत नहीं पिला सकते. कुछ बुनियादी चीज़ें ज़रूर समान होंगी (जैसे हर बच्चे को पढ़ने के लिए अच्छी किताबें मिलनी चाहिए और खाने में पौष्टिक भोजन) पर हम विभिन्नता को अनदेखा नहीं कर सकते.चकराने वाली बात यह है कि पढ़ने-सीखने के लिए गुणवत्तापूर्ण कंटेंट मुफ्त में कई जगह मौजूदहै. खान अकादमी ऐसी ही एक गैर-लाभकारी संस्था है जो ज़बरदस्त कंटेंट बनाती है. कुछ भारतीय संस्थाओं ने भी हाल ही में बेहतरीन वीडियोकंटेंट बनाया है. ऐसे विकल्प होते हुए भी देश का बहुत बड़ा वर्ग महंगे प्रोडक्ट की तरफ क्यों आकर्षित हो रहा हैं?
ऑनलाइन बहुत कुछ हो रहा है. अच्छा भी है. हममे से ज़्यादातर लोग अपना खूब सारा समय यहां बिताते हैं. कुछ पढ़ते हैं, कुछ सुनते हैं, कुछ देखते हैं और लोगों से जुड़ते हैं. अगर बच्चे भी इससे कुछ फायदा उठा सकें, कुछ सीख सकें तो क्या हर्ज़ है? हमारे गांव के कुछ बच्चे जिनके गांव तक नेटवर्क पहुंच चुका है उन्हें मोबाइल और इन्टरनेट चलाने में बहुत मज़ा आ रहा है. इन्हें फोटो खींचना,यूट्यूब देखना,टिकटोक पर वीडियो बनाना,व्हाट्पऐप पर चैट करना अच्छा लगता है. और बहुत से बच्चे मुझसे पूछ रहे है कि ऑनलाइन कैसे पढ़ते हैं? बहुत से बच्चे मोबाइल खरीदने के लिए पैसे भी जुटा रहे हैं. बड़े बच्चों में ऐसी एक हलचल मुझे नज़र आई है. बेशक ये बच्चे अपनी पढाई को लेकर चिंतित है.
पर मैं कुछ बातें इसपर कहना चाहूंगा. बहुत सालों से मैं भीऑनलाइन पढ़ाई कर रहा हूं.कई सारी वेबसाइटें और ऐप मौजूद हैं जहां कुछ भी नया सीखा जा सकता है. वाल्टर लेविन के भौतिकशास्त्र पर वीडियो तो मुझे बहुत पसंद हैं. वाल्टर एक महान खगोल-भौतिकशास्त्री हैं और शायद उससे भी अच्छे शिक्षक.वे भौतिकशास्त्र और बच्चों को सिखाने के लिए कक्षा में अपनी जान की बाज़ी भी लगा देते हैं. अगर हम इस तरह के ऑनलाइन कंटेंट की बात करें तो मुझसे बड़ा ऑनलाइन माध्यम का समर्थक कोई न होगा.
अच्छे कंटेंट के बाद दिक्कत पहुंच की है और फिर स्क्रीन बाउंड होने का डर.इसके अलावा ये ज़रूरी नहीं कि आपने बच्चे को कोई एक गणित का वीडियो लगाकर दे दिया तो वह उसे देखकर रुक जाए. वह एक बड़े वर्चुअल दुनिया में पहुंच चुका है और वहां कुछ भी संभव है.साइबर बुलीइंग से लेकर डार्क वेब जैसे खतरे हैं.क्या हमने इन सब बातों पर सोचा है? मैं तो इन बातों पर कोई चर्चा होते नहीं देख रहा हूं (फेसबुक पोस्ट करने से काम नहीं चलेगा). क्या हमने कुछ भी बनाने से पहले अलग-अलग दृष्टिकोण से इस माध्यम पर पढ़ने-पढ़ाने को लेकर एक बार भी चिंतन किया? अगर नहीं तो क्यों नहीं? किस बात की जल्दी थी? ऐसे में तो मेरे नादानी से भरे कहानी सुनाने वाले प्रयोग और बड़ी-बड़ी संस्था और सरकार के प्रतिक्रिया में कोई अंतर नहीं. कुछ करना ज़रूर है पर क्या इतनी तेज़ प्रतिक्रिया की ज़रुरत है?
ऑनलाइन सीखने-सिखाने को लेकर एक मोटा मुद्दा ये भी उठ रहा है कि क्या अब सब कुछ केंद्रीकृत हो जाएगा? किसी भी बच्चे और उसके समुदाय के लिए सबसे ज़रूरी उसके आस-पास की दुनिया होती है.इस दुनिया में रहकर और यहां के घटकों से रिश्ता बनाकर सीखने की प्रक्रिया शुरू होती है. इस दुनिया से हम गहरे स्तर पर जुड़े होते हैं. यहां हुए अनुभव की नीव पर आगे के अनुभव खड़े होते हैं और हम नयी चीज़ें सीखते हैं. यही कारण हैं कि अपने परिवेश पर लिखी मामूली कहानी से हम सहज रूप से जुड़ जाते हैं और किसी महान रूसी लेखक की पुरस्कृत कहानी से जुड़ने में कठिनाई होती है. शिक्षा परिवेश और उससे निकलती कहानियों, लोगों और उनके कामों से जुड़ी होती है. अब अगर एक कमरे में एक व्यक्ति किसी विषय को पढ़ाने की, यह मानकर कोशिश करे कि उसे देश के सभी बच्चों तक पहुंचना है, तो भारत जैसे देश की भाषायी, सांस्कृतिक, सामाजिक व ऐतिहासिक विविधता को कैसे एक पाठ में डाल पाएगा?
कश्मीर के बच्चे का परिवेश और उसके अनुभव केरल के बच्चे से बिलकुल अलग है. इस हिसाब से बहुत से पारम्परिक और बुनियादी ज्ञान भी अलग हुए. तो फिर इन दोनों को एक ही बात बताकर कैसे हम कुछ भी समझा सकते हैं? विकेंद्रीकरण पर हमारे देश में अच्छा काम हुआ है. ज़्यादातर राज्यों में बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाया जाता है. भाषा से संस्कृति और परिवेश स्वाभाविक रूप से जुड़े हुए है. अगर ऐसा ना हो तो बच्चों के सामाजिक न्याय का हनन होगा. हालांकि अभी बहुत काम करना बाकी है.
अभी भी आदिवासी बच्चों की भाषा, संस्कृति और उनके जीवन के मूल्यों को हमारा शिक्षा तंत्र दरकिनार किये हुए है. यह तभी संभव है जब देश में ज्यादा से ज्यादा विकेंद्रीकरण हो.पर इस सर्वव्यापी महामारी के पश्चात क्या हम ऐसी कोई कल्पना कर सकते हैं?हर शहर में सार्वजनिक कॉलेज और हर गांव में सरकारी स्कूल होने से ही विविधता को सराहा, निखारा और चमकाया जा सकता है. क्या कोई प्रोफेसर इस विविधता को अपने एक लेक्चर में बांध सकताहै?क्या ये महंगे ऐप अरुणाचल प्रदेश के गांव में रहने वाली निशी आदिवासी समुदाय की लड़की के जीवन की छटा को अपने वीडियो पाठ (जो शायद किसी बड़े शहर के आकांक्षापूर्ण मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चे को ध्यान में रखकर बनाया गया हो) में बिखेर पाएंगे?
ऑफलाइन की दुनिया
चलिए अब ऑफलाइन माध्यम की बात करें. बहुत से संवेदनशील लोगों ने पाया कि ऐसे जगह जहांऑनलाइन माध्यम विफल हो रहे हैं वहां कुछ-न-कुछ तो करना पड़ेगा. हम भी कुछ ऐसा ही सोच रहे थे. तो हमने समय लिया, थोड़ा सोचा. बहुत से लोगों ने भी इसी दिशा में काम किया. निकलकर आया कि क्यों ना हम इस बात को पकड़ें कि हमें बच्चों को ज्यादा कुछ नया नहीं सिखाना है. जो कुछ बच्चों ने अब तक सीखा है उसका अभ्यास करें, कुछ नयी कहानियां पढ़ें, कुछ खेल-खिलौने बनाएं, कुछ अपने से प्रयोग करें और आस-पास की दुनिया से ही सीखें. ये बात जब चर्चा में आई तो हमें बहुत अच्छी लगी. मैं तो प्रफुल्लित हो गया. स्कूल जब खुलेंगे तो सीखने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी. तब तक अभ्यास जारी रहे.
ग्रामीण इलाकों में बच्चों का स्कूलों से कटने का डर हमेशा बना रहता है. अपने गांव की बात करूं तो ये बिलकुल मुमकिन है कि 5-6 महीने अगर बच्चा स्कूल ना जाए तो फिर स्कूल खुलने पर भी वो ना जाए और पढ़ाई छोड़ दे. चूंकि स्कूली शिक्षा गांव के जीवन से बिलकुल भी नहीं जुड़ती है, यह संभव है कि जल्द ही बच्चे स्कूल और स्कूली पढ़ाई-लिखाई को भूल जाएं और अपने कामों में लग जाएं.
मैं यहां इस बहस में नहीं जाऊंगा कि गांव का जीवन कैसा है और स्कूल में किस प्रकार की शिक्षा मिलती है और इन दोनों के बीच की खाई कितनी चौड़ी है और इसके क्या दुष्प्रभाव हैं. लेकिन इतना ज़रूर बता दूं कि हमारे सुकमा के गांव में समुदाय के पास बहुत सारे अपने काम हैं.बच्चे किसी वयस्क की तरह ही काम करतेहैं (बहुत नन्हे बच्चों को छोड़ दिया जाए). सुबह से रात तक ढेर सारे काम बंधे होते हैं जिन्हें वे मन लगाकर नियमित रूप से करते हैं और उन कामों को सीखते हैं. इस समय भी ज़्यादातर आदिवासी बाहुल्य गांवों में बच्चे अनेक कामों में व्यस्त हैं. हां, शायद शहरों में यह समस्या निकल कर आए कि बच्चों के पास महत्वपूर्ण कामों की कमी है. पर मुझे यकीन है कि बच्चे बहुत रचनात्मक होते हैं और अपने लिए कुछ-न-कुछ काम तो बना ही लेते हैं.
हमने अलग-अलग स्तर पर ऐसी किताबें तैयार की जिसमें बच्चे बहुत कुछ पढ़ें, लिखें, गोदा-गादी करें, चित्र बनाएं, कविता करें, कुछ गणित भी कर लें, मजेदार कहानियों की दुनिया में तैरें, अपने गांव के जीवन को व्यक्त करें और कुछ पिछली कक्षा में पढ़े विषयों का अभ्यास करें. बच्चों के हाथ लगते ही वे बड़ी उत्सुकता से इससे खेलने लगे. 2 महीने से उन्होंने पेंसिल वगैरह छुआ भी नहीं था. अब इस सुन्दर पुस्तिका को देखते ही वो मचलकर शुरू हो गए.नन्हें बच्चों को समझाने का काम गांव के बड़े बच्चों को दिया गया और उन्होंने ख़ुशी से स्वीकार किया. मेरी ही कक्षा (9वीं) के एक लड़के को छोटे बच्चों को सिखाने में इतना मज़ा आने लगा कि उसने एक दिन अपने गांव के स्कूल में ही क्लास चला दी. हमें उसे समझाना पड़ा कि स्कूल को बंद करना कोरोना से बचाव के लिए ज़रूरी है और ज्यादा बच्चों को एक जगह एकत्रित नहीं किया जाना है. वो समझ गया और बच्चों को सिखाना जारी रखा.
यह तरीका थोड़ा महंगा ज़रूर है क्योंकि हर बच्चे के लिए पुस्तिका प्रिंट करना होता है और गांव में कुछ भी प्रिंट करना महंगा पड़ता है. पर यह गांव के बच्चों को स्कूली शिक्षा से जोड़े रखने में कारगर साबित हुआ है. शहरों में बहुत से टीचर इसी तरह के प्रयास व्हाट्सऐप के ज़रिये कर रहे हैं और उन्हें बच्चों से अच्छी प्रतिक्रिया मिली है.हम इस तरह के अनेक ऑफलाइन तरीके खोजने का प्रयास कर सकते हैं और आपस में बांट सकते हैं. बच्चों ने हमसे एक पुस्तिका ख़त्म कर दूसरी भी मांगनी शुरू कर दी. हमने वादा कर दिया कि जल्द ही दूसरी लेकर आएंगे. और फिर तीसरी.
बहुत से राज्यों में कुछ गैर-सरकारी संस्थाएं ऐसा ही (offline) काम कर रही हैं. मैंने किसी रिपोर्ट में यह भी पढ़ा है कि ऐसे ही प्रयास पाकिस्तान, बांग्लादेश और भूटान में भी किए जा रहे हैं. माता-पिता, बड़े भाई-बहन या गांव के किसी युवा लड़के-लड़की को छोटे बच्चों की पढाई में मदद करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है.
यहांएक बात हमें समझनी होगी की पढ़ाना या कोई नया विषय सिखाना बेहद जटिल होता है. इसके लिए प्रशिक्षण, अनुभव और अभ्यास की ज़रुरत होती है. थोड़ी बहुत मदद करना एक बात है और कुछ नया सिखाना दूसरी. क्या हम किसी भी व्यक्ति से पढ़ाने-सिखाने की अपेक्षा कर सकते हैं? ऐसा ना हो कि हमारी चेतना में ये बात घुस जाए कि कोई भी बच्चों को पढ़ा सकता है. इन बातों का हमेशा विशेष ध्यान रखना होगा. पढ़ाने को लेकर वैसे भी देश भर में एक मान्यता बनी है कि कोई भी यह काम कर सकता है और यह बहुत आसान है. हमें इस बात को सशक्त नहीं करना.
बच्चों के घर पर होने से उनके परिवार पर ज़िम्मेदारी का भार बढ़ गया है. सुकमा जैसे आदिवासी इलाकों में तो कुछ ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि यहां बच्चे छोटी उम्र से ही स्वतन्त्र रूप से जीवन जीते हैं. एक छोटी बच्ची चावल-सब्जी खाकर सुबह-सुबह घर से निकल जाती है और दिन भर कहीं खेलती है, कुछ काम वगैरह करती है, यहां-वहां जंगल घूमती है और रात में लौटती है. इस बात की किसी को चिंता भी नहीं होती क्योंकि उन्हें पता है गांव में बच्चे सुरक्षित ही होंगे. दिक्कत उन परिवारों में हो सकती है जहां बच्चों का स्कूल जाने के अलावा और कोई अर्थपूर्ण काम नहीं होता. शहरों का हाल शायद ऐसा ही होगा (कुछ अपवादों को छोड़कर). बहुत गांवों में भी यह मुमकिन है क्योंकि गांव भी तो अब अपनी सहजता और मौलिकता से दूर भटक रहा है.
ऐसे में परिवारों को ना केवल बच्चों पर ज्यादा ध्यान देना पड़ेगा बल्कि ये भी सोचना होगा कि बच्चों का मानसिक संतुलन कैसे ठीक रहे? एक बड़ी संख्या में बच्चे बहुत छोटे कमरों-घरों में घुटकर रह रहे होंगे, सुस्त जीवन शैली बन गयी होगी, आहार भी पर्याप्त नहीं मिल रहा होगा और कहीं-कहीं हिंसात्मक और अपमानजनक माहौल भी होंगे. ऐसे में बच्चों पर गहरा घाव पड़ सकता है. सीखने-सिखाने की बात करने से पहले हमें इन सब बिन्दुओं पर विचार करना होगा.
बहुत से माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ा भी रहे हैं क्योंकि उन्हें ये डर सता रहा है कहीं उनका बच्चा या बच्ची दुनिया की रेस में पिछड़ न जाए. पर ऐसे परिवार, जहां घर के बड़े काम में व्यस्त होंगे, कोरोना के दिए ज़ख्म से उभर रहे होंगे या खुद स्कूली शिक्षा से वंचित रहे होंगे, ये किस तरह से अपने बच्चों की स्कूली शिक्षा में मदद कर सकते हैं? यह सवाल गहरा है.अपने जिले के गांवों की बात करूं तोस्कूलों में पढ़ने वाले ज़्यादातर बच्चों के माता-पिता कभी स्कूल नहीं गए.
इस वजह से स्कूली सामग्री, जो कुल मिलाकर खोखले शब्दों के इर्द-गिर्द घूमती है (फिलहाल मैं यहां के सरकारी स्कूलों में यही देख पाता हूं), से इनका कोई वास्ता नहीं. कई जगह यह कहा जा रहा है कि घर वाले अपने बच्चों को पढ़ाएं. ज़ाहिर सी बात है कि यहां स्कूली पाठ्यक्रम सिखाने की बात हो रही है. हमारे गांव के माता-पिता तो ये सब सिखाने में सक्षम नहीं है. इन्हें ये सब आता भी नहीं और ना ही कभी इन विषयों से ये लोग कभी जुड़ पाए हैं. और इस खाई तो पाटने में भी कोई काम नहीं किया गया. कुछ संस्थाएं तो माता-पिता व अभिभावकों के लिए एक पुस्तिकातैयार करने की बात कर रही है जिसकी मदद से माता-पिता अपने बच्चों को पढाएंगे-सिखाएंगे. अब ये ज़िम्मेदारी भी अभिभावकों के सर लादी जाएगी.
मेरा प्रश्न यह होगा कि वैसे भी बच्चे अपने बड़ों से अनेक काम, कौशल और मूल्य सीखते हैं पर इसपर किसी का ध्यान क्यों नहीं है? आदिवासी गावों में तो बच्चेआत्मनिर्भरता की सीख लेते हैं. लेकिन नहीं! हम अनार के अ और गुणा-भाग के पचड़े से बाहर निकल ही नहीं पा रहे और इतने अंधे हो गए हैं कि लोगों और पूरे समुदाय के ज्ञान और अप्रत्यक्ष रूप से घर पर मिलने वाली शिक्षा की उपेक्षा कर बैठे हैं.माता-पिता जितना कर रहे हैं उसकी सराहना करते हुए क्यों न हम ऐसी बातों पर संवाद करें कि एक सामान्य घर में क्या-क्या मुमकिन है, ना कि माताजी बच्चे को पढ़ना कैसे सिखाए और पिताजी बड़ी-छोटी संख्या में पहचान करवाना.
मुझे लगता है हम सबके लिए अपने पारिवारिक रिश्ते मज़बूत करने के लिए यह समय सबसे उपयुक्त है. माता-पिता अपने बच्चों से ज्यादा-से-ज्यादा बात कर सकते हैं. घर के पूर्वजों की पुरानी कहानियां सुनाई जाए,मस्ती भरी किस्सेबाजी हो, भाइयों और बहनों में गप्प लड़े, घर के अनेक काम सीखे जाए, खाना बनाने, साफ़-सफाई में एक-दूसरे की मदद की जाए (खासकरके शहरी लड़कों के लिए तो यह करना बहुत महत्वपूर्ण है).
अगर संभव हो तो नानी-दादी के साथ समय बिताया जाए और उनके बचपन के बारे में सुना जाए (यहांऐतिहासिक और पर्यावरण सम्बन्धी बदलाव के दृष्टिकोण से बात की जाए तो कितना कुछ सीखने को मिलेगा), बच्चे अपने माता-पिता के कामों में हाथ बटाएं और उनके कार्य को समझे (इसपर सही गलत की बढ़िया बहस भी छेड़ी जा सकती है), गर्मागरम वाद-विवाद भी घर पर संभव है, कुछ बागवानी की जाए, आसपास के जानवरों, पक्षियों, लोगों और अनेक घटकों का अवलोकन किया जाए, अखबार व छोटी कहानियां पढ़ी जाएं, कलात्मक गतिविधियां की जाएं, किचन में नए प्रयोग किए जाएं या फिर जो सारे काम पहले से बंधे हैं उन्हें ही पूरा किया जाए.अगर सोचें तो घर अपने आप में किसी स्कूल से कम नहीं. कितना कुछ किया और सीखा जा सकता है. गंभीरता से सोचकर लिखने बैठें तो पन्ने पर पन्ने भर जाएंगे. अगर हम ये सारी बातें लोगों के साथ बांटें तो कितना अच्छा होगा. पर इस बात को छोड़ अपने संकीर्ण मानसिकता में पनपे विचारों को पहाड़ मानकर घर के जीवन में छुपी सीख को कुचल दिया जाए तो ये किसी अपराध से कम नहीं होगा.
देखिये स्कूल एक-न-एक दिन खुल ही जाएंगे. बच्चों का सीखना-पढ़ना वगैरह जो भी है, सब शुरू हो जाएगा. तब तक परेशान होकर घबराइये नहीं. घबराहट में अक्सर हम सकारात्मक दृष्टि खो देते हैं और सबसे बुरी स्थिति पर सारा ध्यान केन्द्रित हो जाता है. फिर हम मूर्खतापूर्ण कदम उठा लेते है. कई बार यह विनाशकारी भी हो सकता है.
बच्चों के बारे में ज़रूर सोचें. उन्हें जीने दें. उन्हें बढ़िया और ज़रूरी कामों में संलग्न होने के मौके दीजिए. उन्हें महत्वपूर्ण महसूस करवाइए. उनके साथ बातेंकरें और खेलें. कुछ नया सिखा सकते हैं तो सिखाएं और अगर नहीं तो कोई बात नहीं. पर बेचैन न होइए. आराम करें, अच्छा खाएं, स्वस्थ रहें और खुश रहे.
बस! बाकी, एक दिन सब ठीक हो ही जाएगा.
एक ग्रामीण शिक्षक होने के नातेमेरी ज़िम्मेदारी बनती है कि आज की स्थिति पर चिंतन करूं और कहूं.यह मेरे कुछ विचार हैं जो मैंने आपसे बांटे हैं. ज़रूर ही बहुत से महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर मेरी सोच में बारीकी की कमी नज़र आएगी. चूंकि मैं एक छोटे से गांव के एक छोटे से स्कूल का शिक्षक हूं, मेरे लिए बहुत बड़े स्तर पर सोचना मुश्किल है. पर फिर भी मैंने कोशिश की है. मेरी बातों पर टिप्पणियां और आलोचनाएं आमंत्रित हैं.बाकी सब बढ़िया है!
भवदीय,
एक साधारण ग्रामीण शिक्षक
नीरज नायडू,
सुकमा, छत्तीसगढ़