सलवा जुडूम, माओवाद और आम आदिवासी के त्रिकोण में कैसे पिस गई ज़िंदगी.
पिछले नौ सालों से 46 साल की पैके वैका इंतज़ार कर रही हैं कि एक दिन आएगा जब इंद्रावती नदी के पास बसे अपने गांव नीरम में वो फिर से जाकर रह सकेंगी. लेकिन पैके को इस बात की चिंता भी सताती है कि कहीं ऐसा ना हो कि वो गांव पहुंचे और नक्सली उनके परिवार की हत्या कर दें. यह इंतज़ार और खौफ सिर्फ अकेली पैके का नहीं है उनके जैसे हज़ारों आदिवासियों का है जो बस्तर के अलग-अलग इलाकों में बनाये गए सलवा-जुडूम के कैंप में रह रहे हैं.
सलवा जुडूम अभियान के वक़्त पुलिस और सरकार समर्थित आदिवासी मिलीशिया द्वारा जबरदस्ती लाए हुए नक्सलियों के खौफ से भागे हुए बहुत से आदिवासी ऐसे कैम्पों में रह रहे हैं. विस्थापित हुए ये आदिवासी अपने गांव लौट नहीं सकते और कैम्पों में उनका मन लगता नहीं है.
सलवा जुडूम के प्रभावित आदिवासियों का हाल जानने के लिए न्यूज़लॉन्ड्री ने दंतेवाड़ा के कसौली कैंप का दौरा किया. वहां हमारी मुलाकात पैके वैका से हुई. गौरतलब है कि कसौली सलवा जुडूम का प्रशिक्षण कैंप भी था.
पैके कहती हैं, "मैं पिछले दस साल से इस कैंप में रह रही हूं. लेकिन यहां आने के कुछ महीनों बाद ही यहां से मेरा मन ऊब गया था. मैं अपनी इच्छा से यहां नहीं आयी थी. पुलिस वालों ने हमारे गांव के लोगों को मिलने के लिए बुलाया था.मेरे पति भी उस बैठक में गए थे, लेकिन जब वो लोग वहों पहुंचे तो सभी को पुलिस ने पकड़ लिया और ज़बरदस्ती इस कैंप में रख दिया. मेरे पति को पकड़ लिया था तो मुझे भी यहां आना पड़ा. पुलिस हमें नक्सली बोलती थी और अब नक्सली हमें जुडूम वाले बोलते हैं.
पैके और उनके पति मंगलू ओयामी वैका जब से कसौली कैंप में आये हैं वह एक दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम कर रहे हैं, यह बात पैके को खलती है. वह कहती हैं, "गांव में हमारी 6-7 एकड़ ज़मीन थी, वन उपज इक्कट्ठा कर हम बेचते थे, खाने-पीने की कोई दिक्कत नहीं थी.हम हमारे जंगल में रहते थे.यहां पिछले दस सालों से ईंट-सीमेंट उठाने का काम कर रहे हैं. यहां बिल्कुल भी मन नहीं लगता,ज़िन्दगी एक तरह से तबाह हो गयी है.लेकिन अब हम गांव वापस जा भी नहीं सकते क्योंकि नक्सली हमें मार देंगे."
पैके को उम्मीद है की अगर इंद्रावती नदी पर पुल बन जाए तो शायद एक बार वो फिर गांव जा सकती हैं. वह कहती हैं, "पुलिया बन जायेगी तो गांव में पुलिस की सुरक्षा बढ़ जायेगी और नक्सलियों का डर कम हो जाएगा. लेकिन पता नहीं ऐसा कब होगा, पता नहीं गांव जाने का कब तक इंतज़ार करना पड़े."
35 साल के सूर्या माड़वी (सुरक्षा कारणों से नाम बदल दिया है) विशेष पुलिस अफसर हैं जिन्हे आम तौर पर एसपीओ (स्पेशल पुलिस अफसर) कहकर बुलाया जाता है. सलवा जुडूम अभियान के दौरान बहुत से गांव वाले और आत्म-समर्पण कर चुके नक्सलियों को एसपीओ का दर्जा दिया गया था. एसपीओ का दर्जा देकर इनको नक्सलियों से लोहा लेने के लिए मैदान में उतारा था.
सूर्या कहते हैं, "मैं 2005 में पुसलमा गांव से इस कैंप में आया था. गांव में बहुत परेशानियां थी जिसके चलते बहुत से लोग जुडूम से जुड़ गए थे.नक्सलियों ने गांव के मुखिया लोगों को मारना शुरू कर दिया था. वह गांव वालों से कहते थे कि जो भी उनके खिलाफ जाएगा उसे वो मार देंगे. गांव में जो स्कूल थे वो नक्सली बन्दूक के ज़ोर पर गांव वालों से ही तुड़वा देते थे. असली समस्या ये थी कि पुलिस वाले हमारी गिनती नक्सलियों में करते थे और नक्सली हमें जुडूम वाला समझते थे.ये सब जुडूम बनने के बाद बहुत बढ़ गया था. नक्सली भी बहुत ज़्यादा गांव वालों को निशाना बनाने लगे थे, कुल मिलाकर बात यह थी कि दोनों की लड़ाई में बेवजह निर्दोष गांव वाले मारे जाने लगे थे."
सूर्या ने बताया कि सबसे पहले वो एसपीओ बने, फिर कोया कमांडो और अब वो सहायक आरक्षक हैं. कोया का मतलब बताते हुए वह कहते हैं, "कोया का मतलब होता है आदिवासी. गोंड और नक्सलियों को टक्कर देने कोया कमांडो नाम का दल बनाया था.लेकिन नक्सलियों से लड़ते-लड़ते कुछ कोया कमांडोज ने बेगुनाह गांव वालों पर भी अत्याचार करना शुरू कर दिया था. मैं साल 2009 में एसपीओ बना था.शुरुआत में हम तीर-कमान लेकर कैंप की सुरक्षा करते थे.नक्सलियों के खिलाफ जंगी कार्यवाई के दौरान भी हम गांव में तीर-कमान लेकर ही जाते थे, उस वक़्त हमें पैसे नहीं मिलते थे.
सूर्या ने बताया साल 2009 में एक एसपीओ की तनख्वाह 1500 रुपये महीना थी. उसके बाद 2015 में यह बढ़कर 15000 हो गयी थी.सूर्या दस साल से एसपीओ हैं लेकिन अपनी तनख्व्वाह को लेकर वह नाराज़ हैं. वह कहते हैं, "मैंने बहुत से नक्सली ऑपरेशन में भाग लिया है, बचेली में नेरली घाट के पास जब विस्फोट हुआ था तो मैं बाल-बाल बचा था, नक्सलियों ने फायरिंग भी की थी लेकिन मैं बच गया था. अभी भी मैं एक सहायक आरक्षक की हैसियत वह सब काम करता हूं जो एक पुलिस वाला या डीआरजी वाला करता है, लेकिन मुझे सिर्फ 15000 मिलते जबकि उनकी तनख्वाह 40,000 – 50,000 रुपये तक है."
सूर्या आगे बताते हैं, "गाँव में ज़िन्दगी अच्छी थी.खेती-बाड़ी थी, वन उपज बीनते थे, मछली पकड़ते थे.अब हम लोग बीच में फंस गए हैं, ना इधर के रहे ना उधर के. प्रशासन ने खुद की लड़ाई के लिए हम गांव वालों का इस्तेमाल किया और बाद में हमें अपने हाल पर छोड़ दिया."
17 साल के जयकिशोर मंडावी भी बचपन से अपने परिवार के साथ कसौली कैंप में रह रहे हैं.वह उनके परिवार के साथ छोटी उम्र में ही उनके गांव पुसलमा से कसौली के सलवा जुडूम कैंप में आ गए थे.उनके पिता मंगड़ूराम मंडावी भी एसपीओ थे. जयकिशोर न्यूज़लॉन्ड्री से कहते है, "साल 2015 में नक्सलियों ने मेरे पिता की तुमनार बाजार में हत्या कर दी थी. मैं अब दिहाड़ी मजदूर का काम करता हूं.गांव वापस जा नहीं सकता."
23 साल की मायावती उज्जी सिर पर तगाड़ी रखे मजदूरी करने जा रही थीं.जब वह आठ साल की थी तब अपने परिवार के साथ अपने गांव नीरम से जुडूम के कैंप में आ गयी थीं."मैं बहुत छोटी उम्र में यहां आ गयी थी. अब मैं यहां मजदूरी करती हूं.ज़्यादा कुछ तो पता नहीं है लेकिन इतना मुझे पता है कि मैं गांव वापस नहीं जा सकती.”
फरसपाल गांव के रहने वाले 50 साल के भीमा कर्मा साल 2009 में एसपीओ बन गए थे और तब से जुडूम के कसौली कैंप में रह रहे हैं. वह कहते हैं, "मैंने नागा बटालियन के साथ जगरगुंडा की पहाड़ियों में नक्सलियों के खिलाफ बहुत से अभियानों में भाग लिया है.महेंद्र कर्मा ने हमको यहां बुलाया था इसलिए हम जुडूम के साथ जुड़ गए थे.लेकिन जुडूम से जुड़ने के बाद हम सदा के लिए नक्सलियों के निशाने पर आ गए हैं. मेरे दो बेटे हैं एक दुकान चलता है और एक डीआरजी (डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व गार्ड) में है."
सलवा जुडूम अभियान का श्रीगणेश
जून 2005 में नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडूम अभियान की शुरुआत हुयी थी. सलवा-जुडूम को शुरू करने में छत्तीसगढ़ कांग्रेस पार्टी के कद्दावर आदिवासी नेता और बस्तर का शेर कहे जाने वाले महेंद्र कर्मा की अहम् भूमिका थी. लेकिन नक्सलियों का सफाया करने के उद्देश्य से शुरू हुआ सलवा जुडूम अभियान खुद बस्तर के नक्सल प्रभावित इलाकों में रहने वाले आदिवासियों के लिए जी का जंजाल बन गया.
सरकारी आकड़ों और उस ज़माने में छपी मीडिया रिपोर्टों के अनुसार सलवा जुडूम की बदौलत दंतेवाड़ा के 644 गाँव खाली हो गए थे. हज़ारों की तादाद में इस अभियान के दौरान आदिवासी विस्थापित हो गए थे. सलवा जुडूम पर आरोप लगे थे कि उन्होंने गांव में रहने वाले आदिवासियों को ज़बरदस्ती सलवा जुडूम के कैंपों में स्थानांतरित कर दिया था.हत्या, आगज़नी, बलात्कार जैसी वारदातों को अंजाम देने के लिए सलवा जुडूम बदनाम हो गया था.
सरकार के सरंक्षण में चल रहे सलवा जुडूम अभियान के तहत बहुत से गांव जला दिए गए थे. ऐसे वाकये हुए जहां ग्रामीणों को घर जलाने की धमकी देकर जुडूम के साथ जुड़ने बोला जाता था. गांवों पर हमले होते थे जिसमे घर जला दिए जाते थे, बकरी, मुर्गा, अनाज, महुआ, टोरा आदि चीज़ें लूट ली जाती थी और ग्रामीणों पर जुडूम से जुड़ने का दबाव बनाया जाता था.
महिलाओं को निर्वस्त्र करना, जंगला कैंप में तीन महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार, कर्रेमरका गांव में नागा बटालियन के साथ मिलकर सामूहिक बलात्कार, नीलम गाँव में पानी भर रही गर्भवती महिला के साथ बलात्कार जैसी दर्जनों लैंगिक शोषण की घटनाओं में सलवा जुडूम के एसपीओ और अन्य कार्यकर्ताओं की भूमिका सामने आई. धोरम गांव में सलवा जुडूम के लोगों पर एक महिला के स्तन काट देने का आरोप लगा.
मार्च 2007 में बीजापुर के मटवाड़ा स्थित सलवा जुडूम कैंप में छत्तीसगढ़ पुलिस के एक सब इंस्पेक्टर और लगभग 15 एसपीओ ने तीन आदिवासियों की बेहरहमी से हत्या कर दी थी. उन तीनों की चाकू से आंखे निकाल लीं थी और सिर पत्थरों से कुचल दिया था.
मनकेली गांव के तकरीबन 60 घर सलवा जुडूम ने जला दिए, और लूट लिए थे.इसके अलावा इस गांव के पांच लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. गांव वालों को यह कहकर हाट में जाने से मना कर दिया जाता था कि वे नक्सलियों को पनाह देते है. क्रूरता की ऐसी कई घटनाओं के चलते जल्द ही सलवा जुडूम बदनाम होने लगा.
आदिवासी दो तरफा चक्की में पिस रहे थे. एक तरफ सलवा जुडूम के लोग उन्हें निशाना बना रहे थे तो दूसरी तरफ माओवादी/नक्सली उन पर इसलिए जुल्म कर रहे थे कि वह जुडूम से ना जुड़ें. नक्सली भी गांव वालों पर अत्याचार कर रहे थे. मात्र सलवा जुडूम की बैठक में जाने के आरोप में नक्सलियों ने आदिवासियों को जान से मार दिया था.पालनार गाँव के मुखिया और अन्य तीन लोगों को नक्सली ने सिर्फ गांव में हुयी सलवा जुडूम की बैठक के चलते मार दिया था.
सितम्बर 2005 में गोंगला गांव के 70 साल के गईटा बोदु की नक्सलियों ने सिर्फ इसलिए हत्या कर दी थी क्योंकि वह सलवा जुडूम की बैठक में शामिल हुए थे.
बस्तर और नक्सलवाद से जुड़ी समस्याओं को करीब से देखने वाले पत्रकार और पीस एक्टिविस्ट शुभ्रांशु चौधरी कहते है, "सलवा जुडूम एक तरह की सामरिक नीति थी जो बुरी तरह से नाकामयाब रही. सलवा जुडूम अभियान के द्वारा गांव के गांव खाली करवा कर ज़बरदस्ती उन्हें सड़कों के किनारे बने जुडूम के कैम्पों में रखा गया था. जुडूम के कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए अत्याचारों के चलते बहुत से लोग माओवादियों से जुड़ गए थे. सलवा जुडूम और माओवादियों के आपसी संघर्ष में आदिवासी तीन हिस्सों में बंट गए. एक हिस्सा जुडूम के साथ जुड़ गया, जो लोग जंगल में भागे थे वो माओवादियों के साथ जुड़ गए और तीसरा हिस्सा जो ना जुडूम के साथ जुड़ा ना माओवादियों के साथ वह मजबूर होकर अपना सब कुछ छोड़कर आंध्र प्रदेश चले गया."
चौधरी आगे कहते है, "छत्तीसगढ़ में माओवादी को संख्या सलवा जुडूम के अत्याचारों के चलते बढ़ी. माओवाद यहां बहुत पहले से था लेकिन उसके साथ यहां के लोग जुड़े हुए नहीं थे.सलवा जुडूम की वजह से माओवादियों को लोगों का समर्थन मिल गया. एक माओवादी नेता ने खुद मुझसे कहा था कि वह जुडूम का शुक्रिया अदा करते हैं कि उनकी बदौलत उनका संगठन और बड़ा हो गया.”
छह साल के दौरान सलवा जुडूम अपनी बर्बरता के चलते खासा बदनाम हो गया था. जिस अभियान की शुरुआत नक्सलियों से आदिवासियों की रक्षा के लिए हुई थी वो अभियान खुद आदिवासियों का बहुत बड़ा दुश्मन बन गया. जुलाई 2011 में सलवा जडूम अभियान के दौरान हुए अत्याचारों के मद्देनज़र सर्वोच्च न्यायालय ने सलवा जुडूम को अवैध और असंवैधानिक करार कर दिया. इसके साथ यह भी आदेश दिया कि सभी एसपीओ को घोषित कर उनके हथियार वापस ले लिए जाएं.
सलवा जुडूम तो छत्तीसगढ़ में अब नहीं रहा, लेकिन आदिवासियों के शोषण की जो पटकथा उसने लिखी थी, वह किसी न किसी रूप में जारी है. हैरत की बात यह है कि बिना किसी सबूत के उन्हें नक्सली करार कर गोली मार दी जाती है. एनएल सेना की इस सीरीज की रिपोर्टिंग के दौरान ऐसी ही एक घटना देखने को मिली जो पुलिसिया दमन और नक्सलवाद की मार झेल रहे आदिवासियों की मजबूरी और लाचारी बयान करती है.
19 मार्च की सुबह की बात है, तकरीबन 7 बजे रहे थे दंतेवाड़ा के गमपुर गांव का 22 साल का बदरू पाण्डु माड़वी अपने दोस्त समडू माड़वी और गांव की अन्य कुछ महिलाओं के साथ महुआ बीनने जा रहा था. कहा जा रहा है कि महुएं के जंगल में मौजूद डीआरजी (डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व ग्रुप) के जवानों ने उसे गोली मार दी. डीआरजी में अधिकांश स्थानीय आदिवासी युवा औरआत्मसमर्पण कर चुके नक्सली होते हैं.
बदरू की मौत की चश्मदीद उन्हीं के गांव की रहनेवाली कोसी-कोसा माड़वी कहती हैं, "बदरू और समडू हमारे साथ चल रहे थे. उन्होंने कहा कि वह आगे निकल रहे है जिससे अगर कोई मवेशी महुए के पेड़ के पास हो तो उस भगा सकें. जब पीछे-पीछे हम वहां पहुंचे तो हमारी आँखों के सामने उसको गोली मार दी.
घटना की दूसरी चश्मदीद सुमरी तामो कहती हैं, "ठीक हमारे सामने बदरू को पुलिस वालों ने गोली मारी थी. देख कर विश्वास नहीं हो रहा था. लगभग सौ पुलिस वाले थे वहां. जब हम उन्हें बदरू की लाश ले जाने से रोकने लगे तो उन्होंने हमें भी मारा."
बदरू की मां माड़को पाण्डु माड़वी कहती हैं, "मेरी बहन जगदलपुर जेल में कैद है, मैं उसी से मिलने गयी थी. लौटते में मुझे पता चला कि मेरे बेटे को गोली मार दी है. मेरे बेटा नक्सली नहीं था. वह एक आम आदिवासी था. उसने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा था."
बदरू की हत्या पर गमपुर पंचायत के अंतर्गत आने वाले गांव के लोग बहुत दुखी और नाराज़ थे. 20 मार्च को जब हमने उनकी मां से मुलाकात की थी तो वह अकेली एक जगह बैठकर रो रही थीं. तामोड़ी, दोडीतुमनार, एण्ड्री, वेंगपाल, बड़ेपल्ली के ग्रामीणों में रोष था और उन्होंने तय किया था कि जब तक बदरू के हत्यारों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होगी वो लोग उसकी लाश नहीं लेंगे.
सारे गांव वाले इरोली गांव में इकट्ठा हुए थे. वे कह रहे थे कि पुलिस वालों ने बेवजह एक बेगुनाह आदमी की हत्या की है और अब वो और भी लोगों को इसी तरह मारेंगे. गांव की महिलाएं विलाप कर रही थीं. बदरू के साथ गयी कुछ महिलाओं से जब बात की तो उन्होंने बताया की पुलिस ने उन्होंने भी पीटा था. तीन महिलाओं को इतना ज़्यादा पीटा की वो यहां आ नहीं पाईं.
गांव वाले चाहते थे कि वो एक मोर्चा निकाले और आरोपियों को गिरफ्तार करने की मांग करें. लेकिन उसी दिन कोविड-19 महामारी के चलते प्रशासन ने दंतेवाड़ा में धारा 144 लगा दी थी. स्थानीय पंचायत के कुछ नेताओं ने कहा कि धारा 144 के चलते मोर्चा नहीं निकाला जा सकता. इसलिए बदरू की लाश को गांव वालों को ले लेना चाहिए और बाद में पुलिस के खिलाफ मुकदमा दायर करना चाहिए.
बदरू की मां चुपचाप बैठी इन सब बातों को सुन रही थी और अपनी रुआंसी आंखों से एक टक एक दिशा में देख रही थी. उसकी बेबसी और लाचारी, उसके मौन और उदासी में नज़र आ रही थी और यह सोचने को मजबूर कर रही थी, कि क्या जंगल में रहने वाले इन आदिवासियों की जान की हमारे देश में किसी को भी कोई चिंता है?
**
छत्तीसगढ़ आदिवासी प्रिजनर्स - 4 हिस्सों की एनएल सेना सीरीज का यह चौथा और आखिरी पार्ट है. छत्तीसगढ़ की जेलों में बिना कानूनी कार्यवाही या सुनवाई के बंद आदिवासियों पर विस्तृत रिपोर्ट.
पहला पार्ट: छत्तीसगढ़ पार्ट 1: भारतीय गणतंत्र के अभागे नागरिक
दूसरा पार्ट: छत्तीसगढ़ पार्ट 2: क्या बालिग, क्या नाबालिग, जो हत्थे चढ़ा, वो जेल गया
तीसर पार्ट: छत्तीसगढ़ पार्ट 3: एक से आरोप, एक सी कहानी
***
यह स्टोरी एनएल सेना सीरीज का हिस्सा है, जिसमें हमारे 35 पाठकों ने योगदान दिया. यह मानस करमबेलकर, अभिमन्यु चितोशिया, अदनान खालिद, सिद्धार्थ शर्मा, सुदर्शन मुखोपाध्याय, अभिषेक सिंह, श्रेया भट्टाचार्य और अन्य एनएल सेना के सदस्यों से संभव बनाया गया था.