सालों साल सिर्फ इस बिना पर जेल में पड़े हैं आदिवासी क्योंकि या तो पुलिस ने चार्जशीट में देरी की या गवाह, गवाही देने के लिए नहीं पहुंचे.
बीजापुर के बेल्ला नेंड्रा गांव के 40 साल के इरपा नारायण की कहानी छत्तीसगढ़ के पुलिसिया तंत्र के हर खामी को बयान करती है. उनकी कहानी यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या छत्तीसगढ़ के नक्सली इलाकों में रहने वाले आदिवासियों को वहां की पुलिस भारत का नागरिक समझती भी है.
पुलिस की एफआईआर के मुताबिक 3 फरवरी 2008 को गश्त पर गए हुए विशेष पुलिस अधिकारी और सीआरपीएफ के एक सयुंक्त दल पर बीजापुर जिले के मुरडुण्डागांव के पास के एक जंगल में नक्सली हमला हुआ था. वर्दी पहने नक्सली और संगम के सदस्यों ने हमला किया था. नक्सली हमले की हर एफआईआर की तरह इस एफआईआर में भी अंधाधुंध फायरिंग का ज़िक्र था और यह भी लिखा था कि पुलिस द्वारा जवाबी कार्यवाई पर नक्सली वहां से भाग गए थे. पुलिस एफआईआर के अनुसार तलाशी लेने पर घटनास्थल के पास से उन्हें तीर-धनुष के साथ इरपा नारायण मिला था.
इस मामले में सबसे पहले सवाल उठता है कि पुलिस ने एफआईआर में अंधाधुंध फायरिंग का जिक्र किया है जबकि उनके ही मुताबिक इरपा उन्हें तीर धनुष के साथ मिला था. यदि पुलिस की बात को सच भी मान लिया जाए तो जाहिर है कि तीर धनुष से अंधाधुंध फायरिंग नहीं की जा सकती. गौरतलब है, कि हक़ीकत में पुलिस ने इरपा नारायण को उनके घर से गिरफ्तार किया था और इस बात पर वह हमेश से कायम थे.
न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत के दौरान इरपा ने बताया, "मैं अपनी 8 माह की गर्भवती पत्नी के लिए खाना बना रहा था जब पुलिस मेरे घर पर आयी. मुंह पर लात-घूंसे मारे थे. उसके बाद डंडे से बहुत मारा था. वो लोग बोल रहे थे कि मैं नक्सलियों की मदद करता हूं, उन्हें खाना बना कर खिलाता हूं. उनको यही लगता है कि नक्सली इलाके में रहने वाला हर आदिवासी नक्सलियों की मदद करता है. मार-पीट करने के बाद वो मुझे आवापल्ली थाने ले गए थे. उसके बाद मुझे 15 दिन दांतेवाड़ा जेल में रखा गया. उसके बाद जगदलपुर जेल भेज दिया जहां मैंने बेगुनाह होने के बावजूद भी साढ़े सात जेल में बिताये.
यूं तो एफआईआर और पुलिस के बयानों में उन्होंने इरपा के अलावा किसी और का नाम नहीं लिखा था, इसके बावजूद 27 फ़रवरी को उसी मामले में सूरनार गांव के रहने वाले दो अन्य लोग पुनेम भीमा और मीदियम लच्छू को गिरफ्तार किया था. भीमा और लच्छू के अनुसार वो जंगल के रास्ते से एक मेले में जा रहे थे तब उन्हें पुलिस ने पकड़ लिया था.
इस मामले में हैरत की बात यह है कि लगभग सात साल तक तो अदालती मुक़दमा ही नहीं शुरू हुआ. ये तीनों लोग बिना मुक़दमे की शुरुआत हुए ही जेलों में कैद थे.इस मामले में सिर्फ पांच गवाह थे. यह पांचों पुलिस पार्टी में थे और उस दौरान बीजापुर में पदस्थ थे. दंतेवाड़ा सत्र न्यायालय ने 40 बार अभियोजन पक्ष को गवाहों को पेश करने के आदेश दिए लेकिन सात साल तक एक भी गवाह अदालत में नहीं आया.
लगभग छह साल बाद इस मामले में अदालत को ध्यान में आया कि पुनेम भीमा और मीदियम लच्छू का नाम गिरफ्तारी ज्ञापन के अलावा कहीं और नहीं है. ना ही उनका नाम चार्जशीट में है और ना ही एफआईआर में. उनका इस मामले से क्या सम्बन्ध है इसका अभियोजन पक्ष के पास कोई जवाब ही नहीं था. मजबूरन कोर्ट ने पुनेम भीमा और मीदियम लच्छू को इस मामले में जमानत दे दी. लेकिन इरपा नारायण का एफआईआर में नाम होने के चलते उन्हें जमानत नहीं मिली.
गौरतलब है कि पुनेम भीमा और मीदियम लच्छू को ज़मानत तो मिल गयी थी लेकिन उनके पास जमानत भरने के पैसे नहीं थे, इसके चलते उन्हें और छह महीने जेल में रहना पड़ा था. उनके परिवार के लोगों का कोई अता-पता नहीं था. किसी तरह उन्हीं के इलाके के जेल से रिहा हुए एक व्यक्ति से संपर्क स्थापित किया गया तो पता चला सात सालों के दौरान उनका गांव सलवा जुडूम वालों ने उजाड़ दिया था. मीदियम लच्छू की मां की मौत हो चुकी थी. संयोग से उनकी छोटी बहन ज़िंदा थी जिसने लच्छू और भीमा की ज़मानत करवाई.
आखिरकार सातवें साल में इस मामले में पुलिस के गवाह अदालत में आना शुरू हुए. सभी गवाहों ने जेल में पिछले सात साल से भी ज़्याद से कैद काट रहे तीनों (इरपा, पुनेम और मीदियम) लोगों को पहचानने से इनकार कर दिया. ये भी कहा कि तीनों में से कोई भी घटनास्थल पर नहीं मिला था.
40 साल के इरपा कहते हैं, "मैं कभी भी किसी नक्सली गतिविधि में शामिल नही हुआ हूं लेकिन फिर भी बेवजह मैंने अपनी ज़िन्दगी के साढ़े सात जेल में गुज़ारे.मेरे जेल में जाने के एक महीने बाद मेरी पत्नी ने पत्नी ने एक बेटे को जन्म दिया था लेकिन एक-डेढ़ महीने बाद उसकी भी मौत हो गयी थी. शायद मैं जेल नहीं गया होता तो वो बच जाता."
छत्तीसगढ़ में ऐसे अनगिनत मामले हैं जहां नक्सलियों से पहला नाम मिलने की वजह से पुलिस ने निर्दोष लोगों को जेलों में डाल दिया. ऐसा ही एक मामला नारायणपुर के किलम गांव के राजू पुगडु का है जिनका पहला नाम राजू एक नक्सली हमले के आरोपी राजू वुड्डीमोरया से मिलने के चलते पुलिस ने 2016 में गिरफ्तार किया था.इस मामले में दूसरी हैरान करने वाली बात यह है कि ढाई साल तक राजू पुगडु बिना मुक़दमा शुरू हुए जेल में रहे और मुक़दमा ना शुरू होने का कारण यह था कि अदालत और पुलिस को उनके मामले से सम्बंधित पुराने दस्तावेज़ नही मिल रहे थे.
इस मामले को समझने के लिए साल 2007 सबसे बेहतर है. उस वर्ष राजू, पिता का नाम वुड्डीमोरया व अन्य कई लोगों पर एक आपराधिक मामला दर्ज हुआ था. इसके तहत राजू पिता का नाम वुड्डीमोरया और अन्य लोग पर यह इल्ज़ाम लगे थे कि वो नक्सली हैं और उन्होंने 9 मार्च 2007 को आशा देवी नाम की एक महिला के घर जाकर उनकी हत्या कर दी थी. इस मामले में अपराध दर्ज होकर कोंडनगांव के सत्र न्यायालय में मुकदमा भी शुरू हो गया था. 30 नवम्बर 2007 को इसमामले में 13 आरोपियों को बरी कर दिया था.उसके बाद 28 मार्च 2008 को एक आरोपी को बरी कियागया. 8 जुलाई 2013 को दो और आरोपियों को बरी कर दिया था.लेकिन राजू वुड्डीमोरया को फरार बताया गया था और उसके खिलाफ एक स्थायी वॉरंट जारी कर दिया गया था.
इसी वारंट के ज़रिये 19 सितम्बर 2016 को राजू पुगडु को राजू वुड्डीमोरया समझ कर गिरफ्तार कर लिया गया. उनको कोंडागांव की अदालत में पेश किया गया, जहां राजू पुगडु ने आपत्ति दर्ज की थी कि वह वो व्यक्ति नहीं है जिसे पुलिस ढूंढ रही है.उनका नाम राजू है लेकिन उनके पिता का नाम पुगडु है. लेकिन उनकी इस बात को नहीं माना गया. इसके बाद यह मामला जगदलपुर की एनआईए अदालत में चला गया.
लगभग ढाई साल तक 62 साल के राजू पुगडु जगदलपुर केंद्रीय जेल में बिना मुक़दमे की शुरुआत हुए कैद रहे. क्योंकि कोंडागांव की अदालत और पुलिस थाने से इस मामले से सम्बंधित एफआईआर, आरोप पत्र, बाकी आरोपियों से सम्बंधित मामले के दस्तावेज़ गुम हो चुके थे.
आखिरकार फरवरी 2019 में जब यह मामला बिलासपुर उच्च न्यायलय पहुंचा तब जाकर राजू पुगडु को ज़मानत मिली. उच्च न्यायलय ने भी अपने आदेश में इस बात का ज़िक्र किया है कि एनआईए अदालत ने भी 2007 में हुए इस मामले से सम्बंधित मूल दस्तावेज़ भेजने के लिए कोण्डागांव के जिला व सत्र न्यायालय को कई ज्ञापन भेजे थे, लेकिन दस्तावेजों का कहीं कुछ पता नहीं चला. दस्तावेज़ नहीं मिलने की वजह से मुकदमें में कोई कार्यवाई आगे नहीं बढ़ी जिसके चलते राजू पुगडु को ढाई साल जेल में बिताना पड़ा.
इस मामले की पैरवी कर चुकी वकील शिखा पांडे कहती हैं, "यह मामला इस बात को सटीक तरीके से दर्शाता है कि कैसे आतंकवाद विरोधी कानून से जुड़े मामलो में अभियुक्त बनाये गए व्यक्ति पर अपने आपको बेगुनाह साबित करने का बोझ होता. उस पर जमानत लेने के लिए यह बोझ होता है कि वह साबित करे कि उस पर लगाए गए आरोपों का कोई आधार नही है.इस मामले में इस व्यक्ति को सिर्फ एक पुराने स्थायी वारंट की बिनाह पर ढाई साल जेल में रखा गया और दो बार जमानत ख़ारिज कर दी गयी.वो भी एक ऐसा वारंट जो किसी और व्यक्ति के नाम पर था.”
गीदम में रहने वाली सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोढ़ी कहती हैं, "आदिवासी गांवों में एक नाम के बहुत लोग होते हैं, जो चीज़ उनकी नाम और पहचान को उनसे अलग करती है वह होता है उनके पिता का नाम. आपको एक गांव में दस-दस पोदिया मिलेंगे, दस मंगल मिलेंगे, दस बुदरा मिलेंगे उनकी पहचान में फर्क सिर्फ पिता के नाम का होता है और ऐसे नाम आदिवासी संस्कृति का हिस्सा हैं.लेकिन आजकल डर के मारे लोग आदिवासी नाम रखना बंद कर रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि किसी नक्सली से नाम मेल खाने के चलते या तो उन्हें मार दिया जाएगा या जेल में डाल दिया जायेगा."
नक्सली इलाकों में रहने वाले आदिवासियों के ऊपर सैकड़ों मामले हैं जिनमें झूठे सबूत और गलत आरोप पत्र दाखिल कर लोगों को गिरफ्तार कर जेल में कैद कर दिया था. स्टेट बनाम जोगा,जुगल,सुदर के मामले में पांच महीने तक दर्ज हुयी 13 प्राथमिकियों में से एक में भी तीनों का नाम नहीं था.लेकिन बाद में दाखिल हुए 13 आरोपपत्रों में उन्हीं13 शिकायतकर्ताओं जिन्होंने प्राथमिकी दर्ज कराई थी, अपने पुलिस बयानों में जोगा, जुगल, सुंदर का नाम जोड़ दिया था.जेलमें लगभग दो से तीन साल काटने के बाद तीनों 13 मामलों में बाइज़्ज़त बरी हो गए थे.
क्षमता से अधिक आरोपी जेलों में
ऐसे कई मामले हैं जिनमें पुलिस ने बर्तन को खतरनाक हथियार कहा है. स्टेट बनाम बेटी बुच्ची मामले में 11 लोगों पर आर्म्स एक्ट का मामला दर्ज किया था और लिखा था कि आरोपियों के पास से खतरनाक हथियार मिले हैं. इन हथियारोंकी फेहरिस्त में चार लोगों के पास तीर कमान थे, चार लोगों के पास चौके में इस्तेमालहोने वाला चाक़ू था. एक केपास चाकू के आकर हंसिया था, एक के पास सीमेंट भरने की कन्नी थी और एक के पास बड़ा सा बर्तन था. (सूचना के अधिकार पर आधारित जगदलपुर लीगल ऐड के एक प्रदर्शित दस्तावेज़ के अनुसार)
बेट्टी बुच्ची को 28 जून 2012 की उसी रात को गिरफ्तार किया गया था जिस रात बीजापुर के सरकेगुड़ा में सुरक्षाबलों ने 17 गाँव वालों की हत्या कर दी थी.मरने वाले 17 लोगों में से छह लोग नाबालिग थे. सरकेगुड़ा में ग्रामीणों की हत्या करन के बाद सुरक्षाबलों ने सिमिलीपेंटा जाकर बेट्टी समेत 11 लोगों को गिरफ्तार किया था. गिरफ्तारी के दौरान गिरफ्तार हुए लोगों के पास मौजूद सब्ज़ी काटने का चाकू, बड़े भगोने आदि खाना बनाने के बर्तनों को पुलिस ने खतरनाक हथियार बताया था और आर्म्स एक्ट के मुकदमा दर्ज कर दिया था.
जगदलपुर लीगल ऐड की एक अध्ययन के अनुसार छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग की जगदलपुर केंद्रीय जेल, दंतेवाड़ा जिला जेल, और कांकेर जिला जेल में कैदियों की संख्या जेलों की क्षमता से बहुत ज़्यादा है. 2013 के आंकड़ों के हिसाब से जगदलपुर जेल में 579 कैदी रखने की क्षमता है लेकिन वहां 1508 कैदियों को रखा हुआ है. दंतेवाड़ा की जिला जेल की क्षमता 150 कैदियों की है लेकिन वहां 557 कैदी हैं. इसी तरह कांकेर जेल की क्षमता 65 है लेकिन वहां 278 लोगों को जेल में रखा हुआ है.
गौरतलब है कि इन जेलों में अधिकतर विचाराधीन कैदी हैं. जगदलपुर में 1508 में से 853 कैदी विचाराधीन हैं. दंतेवाड़ा जेल में 557 कैदियों में से 546 कैदी विचाराधीन हैं. साल 2014 में कांकेर जेल में 405 कैदी जिनमें से मात्र तीन दोषी थे. इनमे से अधिकांश कैदी 18 से 30 साल की उम्र के आदिवासी युवक थे. गौरतलब है कि इनमे से 96% मामलों में कैदी बाइज़्ज़त बरी हो जाते हैं, लेकिन बरी होने के पहले उनकी ज़िन्दगी के कई साल जेल की काल कोठरी में बेवजह बरबाद हो जाते हैं.
19 साल के भीमा कडाती का मुकदमा भी झूठे आरोपों में कैद किये गए आदिवासियों की कहानी का भयावह चेहरा दिखाता है. भीमा कडाती पर12 नक्सली मामले दर्ज किये गए थे.यह मुक़दमे चार साल तक चले, और सभी मुकदमों में कडाती को बरी कर दिया गया. लेकिन कडाती जेल से निकल ही नहीं पाए, क्योंकि सारे मामलों में बरी होने से पहले दंतेवाडा जिला जेल में चिकित्सीय लापरवाही के चलते उनकी मौत हो गयी. ज़िंदा रहे कडाती पांच मामलों में बाइज़्ज़त बरी हो चुके थे.
भीमा कडती को पुलिस ने अक्टूबर 2010 को दंतेवाड़ा जिले में आने वाले उनके गांव फूलपाड़ से गिरफ्तार किया था.भीमा के साथ पुलिस ने और चार लोगों को गिरफ्तार किया था.इस मामले में हैरान करने वाली बात यह है कि पुलिस ने आरोपपत्र में एक भी जगह भीमा के खिलाफ किसी भी सबूत का जिक्र नही किया. पुलिस न सिर्फ यह लिखा कि गोपनीय सूत्र द्वारा उन्हें भीमा के बारे में जानकारी दी गयी.गौरतलब है कि आरोपपत्र में पुलिस को आरोपी के खिलाफ क्या सबूत मिले है उसका जिक्र करना ज़रूरी होता है. इसके अलावा गवाहों ने भी अपने बयानों में यह कहा था कि वह भीमा को नही पहचानते हैं.
भीमा पर पुलिस ने ट्रेन की पटरी उखाड़ने, बस में बम धमाका करने,पुलिस स्टेशन और पुलिस पर हमला करना, तहसील के दफ्तर को ध्वस्त करने जैसे संगीन आरोप बिना किसी सबूत के लगा दिए थे.बेगुनाह होने के बावजूद भी उन्हें जेल में कैद किया गया और इंसाफ मिलने के इन्तज़ार में उनकी वहीं मौत हो गयी.
आदिवासियों पर दर्ज हुए मुकदमों में कई बार जानबूझ कर ढिलाई बरती जाती है और पुलिस के गवाह पेश नहीं होते हैं.स्टेट बनाम मड़कम हांडा मामले में अभियोजन पक्ष की तरफ से नौ गवाह थे जिनमे से चार नागा बटालियन से थे. लगभग चार साल में नागा बटालियन के चार गवाहों को 40 अदालती समन भेजे गए, लेकिन वो एक बार भी अदालत में हाज़िर नहीं हुए. जिसके चलते मुकदमा आगे बिना बढ़े मड़कम हांडा को चार साल जेल में बिताने पड़े. पांचवें साल के बाद वो इस मामले से बरीहो गए थे.
पुलिसिया मनमानी की अनगिनत कहानी
दंतेवाड़ा में रहने वाले वकील क्षितिज दुबे अपने एक मुव्वकिल गोपन्ना रेड्डी का मामला हमें बताते हैं, "पिछले पिछले 14 साल से नक्सली मामलों में वो जगदलपुर जेल में हैं. 2006 में वह चार मामलों में गिरफ्तार हुए थे.पांच साल जेल में रहने के बाद वो सभी मामलों में बरी हो गए थे. लेकिन जैसे ही वो जेल के गेट से बाहर निकले, उन्हें फिर से गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया और तीन मामले उन पर दर्ज कर दिए गए. इन तीन मामलो में भी वह लगभग चार साल में बरी हो गए थे लेकिन जिस दिन वह जेल से निकले उनको दुबारा पकड़कर जेल में डाल दिया गया. दोबारा बरी होने के बावजूद जब उनको जेल में डाला था तो उनपर चार नए मामले दर्ज कर दिए थे. चार में से तीन मामलों में वो बरी हो गए हैं.चौथा मामला302 का है जिसमें पुलिस पार्टी पर हमला करने का इलज़ाम है.पिछले पांच सालों में उन मामलों में सिर्फ एक गवाही हुयी है.”
गौरतलब है कि साल 2015 में एक बार पुलिस लगभग 1000 लोगों को नक्सली होने के इलज़ाम में उठा लायी थी, पुलिस की इस हरकत पर सुकमा जिले के तत्कालीन मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने कड़ी फटकार लगायी थी.इसके अलावा उन्होंने छत्तीसगढ़ के तत्कालीन महानिदेशक को यह भी लिखा था कि नक्सलवादका सफाया करने की आड़ में पुलिस बेगुनाह आदिवासियों का दमन करती है.
न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए, पूर्व मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ग्वाल ने कहा, "पुलिस वाले एक हज़ार लोगों को नक्सली बना कर ले आये थे और उन्हें अलग अलग बैरकों में रख दिया था. वह उन लोगों को गांव के हाट बाज़ार से उठा लाये थे.पुलिस तक को पता था कि उन्होंने गलत हरकत की है.इसके बाद मैंने पुलिस महानिदेशक को पत्र लिखा जिसके चलते सिर्फ 50-60 को गिरफ्तार किया गया औऱ बाकी लोगों को दिया गया.”
ग्वाल आगे कहते हैं, "नक्सलियों के नाम पर आदिवासियों पर जितने भी अपराध दर्ज होते हैं उनमें से 99 प्रतिशत गलत आधार पर होतेहैं.जिस आदिवासी को पुलिस मास्टरमाइंड, एरिया कमांडर जैसे नामों से गिरफ्तार करती है, उसके पास ना शरीर पर कपड़ा हैन पेट में रोटी है, सर पर छत नहीं है, वो कहां से एके-47लाएगा. कहां से लाखों रुपये का बम लाकर फोड़ेगा.यह सोचने की बात है.यह आदिवासी सदियों से बस्तर में हैं. वो क्यों अचानक से नक्सली बन जायेंगे.पुलिस के अत्याचरों से तंग आकर आदिवासी जंगलों से भाग रहे हैं.नक्सली गतिविधियों के मास्टरमाइंड कोई और होते हैं लेकिन पुलिस गरीब आदिवासियों को पकड़ती है."
न्यूज़लॉन्ड्री ने आदिवासियों के खिलाफ झूठे आरोप और उनकी गिरफ्तारी से जुड़े मामलो को लेकर छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक डीएम अवस्थी से भी बातचीत करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने हमारे सवालों का कोई जवाब नहीं दिया. उनकी तरफ से जवाब आने पर रिपोर्ट में जोड़ दिया जाएगा.
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छत्तीसगढ़ आदिवासी प्रिजनर्स - 4 हिस्सों की एनएल सेना सीरीज का यह तीसरा पार्ट है. छत्तीसगढ़ की जेलों में बिना कानूनी कार्यवाही या सुनवाई के बंद आदिवासियों पर विस्तृत रिपोर्ट.
पहला पार्ट: छत्तीसगढ़ पार्ट 1: भारतीय गणतंत्र के अभागे नागरिक
दूसरा पार्ट: छत्तीसगढ़ पार्ट 2: क्या बालिग, क्या नाबालिग, जो हत्थे चढ़ा, वो जेल गया
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यह स्टोरी एनएल सेना सीरीज का हिस्सा है, जिसमें हमारे 35 पाठकों ने योगदान दिया. यह मानस करमबेलकर, अभिमन्यु चितोशिया, अदनान खालिद, सिद्धार्थ शर्मा, सुदर्शन मुखोपाध्याय, अभिषेक सिंह, श्रेया भट्टाचार्य और अन्य एनएल सेना के सदस्यों से संभव बनाया गया था.